यह ब्लॉग मूलतः आलंकारिक काव्य को फिर से प्रतिष्ठापित करने को निर्मित किया गया है। इसमें मुख्यतः शृंगार रस के साथी प्रेयान, वात्सल्य, भक्ति, सख्य रसों के उदाहरण भरपूर संख्या में दिए जायेंगे। भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी। सो उसे समय-समय पर व्याख्यायित करने का सोचा है। यह मेरा दीर्घसूत्री कार्यक्रम है।
सोमवार, 15 फ़रवरी 2010
ज्ञानोपनयन-१
आर-पार दिखने वाले
पर्दों को मुझसे हटा अरी.
नयन-दीप जलते हैं पीछे
जल जावेंगे करो घरी.
मुझ नयनों के लिए एक
ज्ञानोपनयन* ला करके दो.
जिसे पहन हर वास्तु पुरातन
नूतन-सी दिखती बस हो.
(*ज्ञानोपनयन — चश्मा - ज्ञान का) प्रेरणा — ऋतुराज परी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें