गुरुवार, 10 नवंबर 2016

आप अदालत हैं

अपना मानते हैं जिन्हें
वही नहीं देते अपनत्व।
पक्षपात करते हैं सदैव वे
पुत्री के आँसुओं का स्वर सुन।
नहीं जाना उन्होंने मेरी कटुता को
न ही मेरी दृष्टि में बने दायरों को
— संबंधों की मर्यादा के
 हास–परिहास के ।
तुरंत मूल्यांकन कर डाला
 ‘शक्की’ कहकर मेरा।

क्या मेरी दृष्टि को इतना अधिकार नहीं
कि वह सचेत रहे –
संभावित दुर्घटनाओं से पूर्व ही,
भेद कर सके दृष्टि-कुदृष्टि का
क्या ऐसा करना अति आचार है?
क्या ऐसा करना ‘शक्की’ होना है?

प्रिय का हित सर्वोपरि हो जिसके लिए
उसी को ठहरा दिया जाए जब अपराधी
नहीं कर पाएगा तब वह कहीं ‘अपील’।

नहीं हैं तीन अदालतें
मेरे दायरे में
कि एक याचिका रद्द हो
कर सकूँ अपील दूसरी जगह।

आप ‘अदालत’ हैं –
एकमात्र
न्याय होगा तो
विश्वास पैदा होगा ‘अदालत’ में।
अन्यथा असामाजिक होना
पसंद करूँगा ‘मैं’।

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