रविवार, 12 जुलाई 2015

मीन ईहा


नहीं बचा 
जब कोई बहाना 
मिलने का, तब मीत बुलाना 
चाहा मन में, बात सोचकर - 
छेड़ूँ क्यों ना प्रेम तराना। 

नहीं रोक 
पाएगा प्रियतम 
नयनों का तब वर्षा गाना 
यदि सफल न हो पाई तो 
मरकर चाहूँ प्रियतम पाना। 

हो जाऊँ 
ज्वर से मैं पीड़ित 
ज्वार उठें ह्रदय में मेरे 
तट के नाविक नैया लेकर 
भाटा आने पर आ घेरें। 

मैं तो फँसना 
बहुत दिनों से 
चाहूँ थी पिय के बंधन में
जाल फेंककर जल्दी प्रियतम 
ले लें मुझको आलिंगन में।

2 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

प्रेम में सब मंजूर हैं मन को। .
बहुत सुन्दर

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत बढ़िया ।