प्रेषित की मुस्कान उन्हें तो वे भी थोड़ा मुस्काये।
मिलने को दो नयन-युगल धीरे-धीरे सम्मुख आये।
एक युगल आँखें निराश थीं और दूसरी झुकी हुईं।
आर-पार दिखने वाले परदों के पीछे छिपी हुईं।
प्रथम दो नयन हँसकर बोले सफल नहीं हम हो पाये।
गौरव किस पर करें किसलिए अब तुमसे मिलने आयें।
'अरे नहीं, ऐसा ना बोलो' मन ने था चुपचाप कहा -
'तुम हो सफल दृष्टि में मेरी, सफल हमारा नेह रहा।'
नयन दूसरे चुपके-चुपके देख रहे थे सकुचाये।
सोच रहे वे कौन करुण गाथा कवि के सम्मुख गायें।
मन भाये वे नयन, कल्पना ने मुझसे हो मौन कहा -
'इनको भी दो नेह इन्होंने शुष्क शिशिर का पौन सहा। '
4 टिप्पणियां:
बस वाह ।
अद्भुत....
सुशील जी,
जब भी अपने तुकांत व्यक्त भावों पर प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया पाता हूँ तो छिपता फिरता हूँ समझ नहीं आता किन शब्दों में प्रतिउत्तर दूँ, कैसे सामने आऊँ ? यदि कोई बतरस प्रेम से आलोचनात्मक या प्रश्नात्मक रूप से सामान्य प्रस्तुति पर चर्चा बनाने का प्रयास करता है तो परदों की आड़ नहीं ढूँढ़ता।
मोनिका जी, 'अरे नहीं, ऐसा ना बोलो' -- विस्मय स्थायी भाव से उत्पन्न 'अद्भुत' को शौर्य कर्म के स्थायी भाव 'उत्साह' पर ही न्योछावर करने के लिए बचाकर रखें।
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