पृष्ठ कोरा
देखना मैं चाहता हूँ
एक धुंधला चित्र जिसमें
रख कलम उस पर उकेरूँ
सहजता से चित्र प्रेरक।
एक बिंदु -
आरम्भ होकर
अंत बिंदु तक मिले जा
मध्य की रेखाएँ
इतनी उभर जाएँ कि लजाएँ
सिमटने का भाव उसमें
दृष्टि पड़ते संचरित हो।
पाद का अंगुष्ठ
भूमि पर बनाता चाप
एड़ी टिकी रहती
बनाते गर्त छोटे आप।
यौवन भार
कर रहा लोचित
-- मध्य के उभार
उरु पर स्वतः ही
पड़ रहा समग्र वपु भार।
संध्या समय
के सूर्य का प्रकाश
तरु-पल्लवों के बीच से
पहनाये छाया-पाश।
सुमन-क्यारी
से गुजर कर वायु
घ्राण रंध्रों को बताये
अंग-सौष्ठव आयु।
कर बद्ध दिखते
प्रेम, श्रद्धा भाव
आगंतुक की भाँति होता
'काम' का ठहराव।
4 टिप्पणियां:
प्रतुल जी बेहद खूबसूरती से बुना शब्द विन्यास काही अलहदता काही व्यक्तित्व का भारी पैन बेहद खूबसूरत बन पड़ी है कविता बधाई
गणितीय भावनाओं की सहज प्रविष्टि दिल को छूती
@ आदरणीय कुशवंश जी,
आपकी खूबसूरत बधाई ने मुँह तो अच्छे से दिखाया किन्तु वह बुदबुदाई क्या ??? :)
समझ तो रहा हूँ फिर भी 'बधाई' स्वर साफ़-साफ़ सुनाई दे तो धन्य होऊँ।
@ आदरणीय रमाकांत जी,
इस कविता को लिखने से पहले मेरी सोच पर गणित इतना हावी था कि उसकी झलक को छिपा न पाया।
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