पिय खोद रही सर निज उर में
स्नेह-नीर पिया का भरने को।
स्नेह-धार फूट पड़ी सर में
स्नेह-नीर लबालब भर आया।
तब हंस युगल अपनी तुंड में
सर में उतरे सरोज लिये।
भेंट करी कमल की उर-सर को
जल-केलि करें अब वे उसमें।
दो थे सरोज वे फ़ैल गए
जड़ उर-सर में मुख बाहर को।
आभा तब पिय की फ़ैल गई
जब उर-सर के वे ओज बने।
पर फिर भी उसकी चाहत थी
स्नेह-नीर पिया का पाने की।
जिससे उसकी उर-उत्कंठा
पूरी हो ओज बढ़ाने की।
जो चाहत थी पूरी कर ली
स्नेह-नीर पिया ने दे डाला।
पर बिखर गया वह उर-सर से
बह गया नाली में दूषित हो।
हंस युगल ने जब देखा यह
स्नेह-नीर बह गया उर-सर से।
जल-केलि छोड़ वे पहले ही
उड़ गये आरोप लगाने से।
कमलज ने छिन्न हुए नीर को
उर-सर समीप ही ठहराया।
व दंड दिया भार ढोने का
जिससे वह उर-सर हीन हुआ।
वह उर-सर से संधि विच्छेद कर
गया निज अस्तित्व बनाने को।
रहा समीप उर-सर के फिर भी
वह पड़ा रहा एकांत लिए।
पिय दण्डित हो अब उठा रही
लघु भार उसी का महीनों से।
सब खर्चा भी वह उठा रही
निज बढ़ी भूख को शांत किये।
चाहती जिससे पिण्ड छुड़ाना
अब याद उसी की हो आयी।
कैसे स्नेह-नीर उर-सर से
छिन्न हुआ था वह सकुचाई।
जो रूठ चला था उर-सर से
वह उसे बुलाना चाहती थी।
उसको अपने क्रोड़ वास में
अब वह ठहराना चाहती थी।
वह दिन भी पास आ गया तब
पिय मुक्त हुई औ' भार हीन।
जो नीर बहा था उर-सर से
वह आज हुआ उसका अंगज।
वह आया क्रोड़ आसरे में
निर्जन निवास तब अपना छोड़।
पुनः उर-सर से संधि कर लीं
जब टूट गया खर्चे का जोड़।
उर-सर की ममता जाग उठी
स्नेह-नीर हुआ पय ममता मिल।
उर-सर सरोज भी उस पय में
नव पयोज नाम से थिरक उठे।
उस थिरकन में पय छलक पड़ा
औ' पयोज-नाल से धार चली
जल्दी से डेरा डाल दिया
उस धार-द्वार पर पयोमुख ने।
बह चली धार फिर उर-सर से
अब खड़ा पयोमुख ओक किये।
दे रहे निमंत्रण पीने का
दोनों पयोज बारी -बारी।
उर-सर से सारा नीर निकल
बह गया पयोमुख के मुख में।
उर-सर-तल में रह गई मात्र
ममता-मक्खन की एक परत।
उर-सर का सारा ओज क्षीण
तब हुआ कमल भी सूख गए।
उस पयोधरा ने निज शिशु के
पालन ही पर सब खर्च किया।
चल पड़ा शिशु एक बार पुनः
पय-पान हेतु उर-सर समीप।
पर मिला उसे पय-द्वार बंद
अब पय-प्रासाद भी खंडहर था।
उर-सर को तब वातायन से
चोरी से शिशु ने देख लिया।
उर-सर-तल में जो जमा हुआ
उसको माँ कह संकेत किया।
पिय हुई उन्मादित शिशु मुख ने
जब माँ कह कर संकेत किया।
तब अपने दोनों हाथों से
शिशु को छाती से लगा लिया।
माँ नाद किया था जो शिशु ने
वह क्रोध-क्षुधा की पावक थी।
उस पावक की लपटों से ही
ममता-मक्खन सब भस्म हुआ।
अग्नि क्रोध-क्षुधा की शांत हुई
ममता-मक्खन जब हुआ ख़तम।
और फ़ैल गई अक्षय सुगंध
मदमत्त हो गया शिशु एकदम।
प्रश्न १ : उक्त रचना में 'कथा' और 'काव्य' दोनों हैं। लेकिन कौन किसके द्वारा चलायमान है - यह क्या स्पष्ट है? थोड़ा विस्तार से बताने का प्रयास करें।
प्रश्न २ : उक्त रचना में गुण और दोष सरलता से पहचाने जा सकते हैं। फिर भी क्या यह उच्च कोटि का काव्य कहा जा सकता है ? - तर्क सम्मत उत्तर दें।
साहित्य में मौखिक और लिखित अभिव्यक्ति के दो माध्यम (गद्य और पद्य) प्रसिद्ध हैं। फिर भी अभिव्यक्ति में नयापन डालने के प्रयास होते रहे हैं। गद्य विधा में एकाधिक रूपों से दिन-रात हमारा वास्ता पड़ता ही रहता है उसमें ब्लॉग लेखन विधा ने भी इजाफा कर अन्य विधाओं पर मुलम्मा चढ़ाने का काम किया है। गीतिकाव्य, कथाकाव्य, गद्य गीत, प्रगीत, नवगीत, कविता (छंद कविता, छंद-मुक्त कविता), अकविता, नयी कविता, वाम कविता और भी अजीबो-गरीब नाम वाले काव्य (यथा : 'टेलीग्राफी कविता, टेलीफोनी कविता आदि) हैं जिनको ठीक-ठीक पहचानने में सामान्य पाठक वर्ग ही नहीं लेखक-कवि वर्ग भी भ्रमित रहता है। यदि यह समस्या अत्यंत सरल सहज तरीके से सुलझायी जाए तो कितना अच्छा हो!
काव्य-रसिकों से अनुरोध है इस विषय में जिसकी भी जैसी समझ बनी हो वह संक्षेप या विस्तार से साझा कर सकता है।
5 टिप्पणियां:
पहला बंद
कथा का प्रारब्ध -अति-उत्तम
खने उरस्थल पर प्रिया, नेह-नीर हित ताल ।
ताल मेल से नेह ने, कर ही दिया कमाल ॥
दूसरा बंद
मुंह से झड़ते फूल हैं, प्रेम का प्राकट्य
हंस हंसिनी चोंच में, कमल परस्पर थाम ।
उतरे उर-सर उमगते, केलि कामना काम ।।
तीसरा बंद
प्रेम सफलता पूर्वक रोपा गया-
मूल कर्म संपन्न हो, अंतर-विकसित मूल ।
वीर्य भाव आभा प्रकट, पसरे कूल दुकूल ।
चौथा बंद -
फिर भी मनोरथ अतृप्त ही रहे-और और और --
SABHI BANDH ADBHUT BHAW LEKAR
१.-----निश्चय ही यह कथ्य-काव्य है ..अर्थात कविता में कहानी जैसे महाकाव्य या खंडकाव्य कविता में उपन्यास होते हैं जिन्हें में काव्य-उपन्यास का नाम देता हूँ ( यथा मेरा काव्य-उपन्यास शूर्पणखा )....
----इस प्रकार के काव्य में, कविता कथ्य को गति प्रदान करती है एवं एवं कथ्य कविता को अर्थवत्ता...
२.----- भाव-पक्ष की कोटि से रचना उच्च कोटि की है ..हाँ कलापक्ष में त्रुटियाँ हैं...मात्रा दोष..व गति-लय-प्रवाह भंग की ....
@ आदरणीय श्याम गुप्त जी,
त्रुटियों सम्बन्धी आपकी टिप्पणी से सहमत हूँ। कथा-काव्य और काव्य के कुछ और रूपों पर मंथन ज़ारी रखे हूँ। आप अपने काव्य-उपन्यास 'शूपर्णखा' का लिंक भेजिएगा।
@ रविकर जी,
आभारी हूँ आप रचना से श्रेष्ठ तो टिप्पणी करते हैं। आपको हर तरह से पढ़ना अच्छा लगता है। आपकी 'काव्य-क्रीड़ा' क्रीड़ा मात्र नहीं है, वह काव्य शास्त्रीय दृष्टि से भी अति उत्तम है। आपकी टिप्पणी पर दो ही तरह की प्रतिक्रिया हो सकती है या तो गदगद होकर उसका विश्लेषण किया जाय या फिर चुपचाप रहकर मात्र आभार व्यक्त कर दिया जाय।
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