निशा आधी नग्न होकर
मेरी शैया के किनारे
आई सुधा-मग्न होकर
लिए नयनों में नज़ारे।
आँख के तारे नचाकर
अनुराग से पाणि बढ़ाकर
कर लिया मेरा आलिंगन
बिन हया ही मुस्कुराकर।
मैं विमर्ष से निशीथ में
निस्पंद, नीरव नेह को
किस तरह कर दूँ निराहत?
विदग्ध तृषित देह को।
श्वास में मिलती मलय-सी
अनिल, तन से फूटती है
कर रही मदमत्त मुझको
प्यार पाकर झूमती है।
श्याम अंबर चीर देखा
दीपिका ने क्रोध से तब
निशा भागी, निमिष मुकुलित
किये मैंने, लाल था नभ।
14 टिप्पणियां:
फिर एकबार शब्दों के मायाजाल में एक बेहतरीन कविता ...वास्तविक कविता .. बधाई
श्याम अंबर चीर देखा
दीपिका ने क्रोध से तब
निशा भागी, निमिष मुकुलित
किये मैंने, लाल था नभ।
प्रकृति का अनुपम श्रृंगारिक वर्णन
श्वास में मिलती मलय-सी
अनिल, तन से फूटती है
कर रही मदमत्त मुझको
प्यार पाकर झूमती है।
....बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति...
मैं विमर्ष से निशीथ में
निस्पंद, नीरव नेह को
किस तरह कर दूँ निराहत?
विदग्ध तृषित देह को...बहुत बढ़िया्..अच्छा लगा यहां आना
बेहतरीन कविता ,सुन्दर भावाभिव्यक्ति***** निशा आधी नग्न होकर
मेरी शैया के किनारे
आई सुधा-मग्न होकर
लिए नयनों में नज़ारे।
आप की ये खूबसूरत रचना शुकरवार यानी 1 फरवरी की नई पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है...
आप भी इस हलचल में आकर इस की शोभा पढ़ाएं।
भूलना मत
htp://www.nayi-purani-halchal.blogspot.com
इस संदर्भ में आप के सुझावों का स्वागत है।
सूचनार्थ।
बहुत खूबसूरती से लिखा है. बहुत पसंद आई आपकी कविता.
@ प्रदीप साहनी जी, पिछले दिनों विश्व पुस्तक मेले में व्यस्त रहा। आपके लगाए 'चर्चा मंच' पर न आ सका। क्षमा चाहूँगा। आभारी हूँ मेरे दुःस्वप्न को उत्कृष्ट कहकर मंच पर बैठाने के लिए।
@कुश्वंश जी, धन्यवाद ....... आपने इस बार खिंचाई के बदले बधाई दी। मैं आपके आस्वादन (काव्य-स्वाद) को पहचान गया हूँ। फिर भी आपको यहाँ यदा-कदा भावशून्य और अलंकारविहीन अंगनाओं का दर्शन होगा ... हमेशा तो सरस्वती नहीं बैठी होती मानस हंस पर। और हंस भी जब छुट्टी पर जाता है तो उसके स्थान पर बगुला ड्राइवरी करने आ जाता है।
@ रमाकांत जी, मुझे लग रहा था शायद इन पंक्तियों में छिपे शृंगार को कोई पकड़ न पाए .... पर आप प्रकृति के चितेरे जो ठहरे ... सब समझ गए।
@ आदरणीय कैलाश जी, जिस रचना को प्रशंसा यदि आपसे प्राप्त हो तो वह रचना खुद को भी अच्छी लगने लगती है।
@ रश्मि जी और मधु जी, आपकी ब्लॉग पर प्रशंसक के रूप में उपस्थिति आनंद का संचार करती है .... आभारी हूँ।
@ कुलदीप जी, एक साथ दो बातें कहना चाह रहा हूँ .... आभार और क्षमा।
@ निहार जी, आपने मेरे दुःस्वप्न को निहारा और रंजन कर सराहा .... दूसरी 'दुःस्वप्न निर्माण योजना' के बारे में सोच रहा हूँ।
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