बुधवार, 7 नवंबर 2012

अब्धि-हार

उर्मि लालिमा की लाली से
माँग भर रही है सिन्दूर।
आशा ले उर मिला सकेगी
सागर से, तम में भरपूर।
पर सागर विधु से लड़ने को
सजा रहा है ज्वाला-शूल।
छिपा लिया खुद को उसने पर
नभ की ओर उड़ाकर धूल।
चला चाँद चुपचाप चरण धर
नभ पर, हँसकर धीरे-धीरे।
भेद दिया तम धूल सभी को
चंद बाण से सागर-तीरे।
उद्वेलन हो उठा ह्रदय में
सागर ने कर दिया प्रहार।
था वेश पूर्ण आवेश भरा
पर हुई अंत में अब्धि-हार।
 
___
शब्दार्थ :
उर्मि = लहर, तरंग,
उर = ह्रदय,
विधु = चन्द्रमा,
ज्वाला-शूल = ज्वारों रूपी भाले,
धूल = धुंध,
उद्वेलन = क्रोध से भड़कना,
आवेश = क्रोध,
अब्धि-हार =सागर की पराजय

9 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

उर्मि लालिमा
उर मिला
अलंकारिक प्रयोग ।
आता हूँ थोड़ी देर में ।।
सादर -

रविकर ने कहा…

खींचा-खींची कर रहे, इक दूजे की चीज ।

सोम सँभाले स्वयं सब, भूमि रही है खीज ।

भूमि रही है खीज, सभी को रखे पकड़ के ।

पर वारिधि सुत वारि, लफंगा बढ़ा अकड़ के ।

चाह चाँदनी चूम, हरकतें बेहद नीची ।

रत्नाकर आवेश, रोज हो खींचा खींची ।।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

अति सुंदर

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,


.......
.......

jaise man gunta hai...
ysa shabd bunta hai...


pranam.

Ramakant Singh ने कहा…

बहुत सुन्दर

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

वाह प्रतुल भाई !
प्राकृतिक पात्रों को ले'कर इस तरह रचना करना आपके लिए ही संभव है …

लालिमा की लाली संध्या वेला की है या प्रातःकाल की ?

बहुत सुंदर !
कसावट अच्छी है !

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

पढ़कर बरबस ही आवाज उठती है, ’सुंदर, अति सुंदर’

Alpana Verma ने कहा…

प्रभावी रचना .

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ 'स्वर्णकार' जी की दृष्टि से दोष छिप नहीं सकता ... सच में उक्त पंक्तियों में समय का स्पष्ट वर्णन नहीं किया गया है। अनुमान से अथवा कुछ संकेतों से ही समय को जाना जा सकता है।
- तम होने वाला है।
- चंद्रमा के आगमन से पूर्व 'सागर' अपने अस्त्र-शस्त्र सजा रहा है।