'दो''नो' का है प्रेम यही वे ग्यारह नहीं कभी हो पाये।
'नो''दो' ग्यारह हुआ हास जब उसने उनके मुख पलटाये।
अर्थ हुआ असमर्थ गर्त में गिरा व्यर्थ ही हाय-हाय।
मुहावरे का पहन मुखौटा हास हुआ हास्यास्पद काय।
किया बहुत प्रयास किन्तु कुछ, तुमसे सीधा कह ना पाये।
इसीलिए सब कुछ कहने का करता मन है नये उपाय।
कभी हास के पीछे छिपकर कभी व्यंग्य का गला दबाय।
तरह-तरह की वक्र उक्ति को करता रहता दाएँ-बाएँ।
मन पर बढ़ता बोझ उभरतीं माथे पर चिंता रेखायें।
सरल भाव को तरल पात्र में मेरे प्रियतम पी ना पायें!!
ग्यारह - साथ
ग्यारह - साथ
9 टिप्पणियां:
दो''नो' का है प्रेम यही वे ग्यारह नहीं कभी हो पाये।
'नो''दो' ग्यारह हुआ हास जब उसने उनके मुख पलटाये।
१,२,३,४,५,६,७,८,९, अंको में शायद ९ का उच्चारण और लिपि में भी अक्षरों में * नौ * लिखा होना चाहिए, यदि नो को भी उसके सही उच्चारण और लिपि में रखा गया है तो मेरी शंका दूर करने का कष्ट करियेगा .
suprabhat guruji
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pranam.
@ आदरणीय रमाकांत जी,
यह स्वभाविक है कि जब भी कोई त्रुटि को इंगित करता है, हम उसके प्रति कटुता के भाव ले आते हैं। आपने भी मुझे वैसी ही अनुभूति करायी। :-) फिर सोचा ... होना ये चाहिए कि हम अपनी होने वाली भूल पर विचार करें - 'वह किन कारणों से हुई?'
— मैं मानता हूँ कि मेरी इस भाव-प्रस्तुति में तमाम कमियाँ हैं। छंद की दृष्टि से मात्राओं का हिसाब नहीं रखा। जबरन तुक मिलाने की कोशिश की। उक्ति में वक्रता लाने के फेर में पडा रहा।
एक ही शब्द 'ग्यारह' के दो अर्थ निकालने में पड़ा। साधारण बात से मन के विशेष हेतु को साधने की कोशिश में रहा। मानता हूँ .... ये बड़ी त्रुटियाँ हैं ... फिर भी .. मैं अपने इस 'दोष' को मन के भीतर हो रहे भावों के उत्पाती कोलाहल में अनसुना कर रहा हूँ।
'दो''नो' का है प्रेम यही वे ग्यारह नहीं कभी हो पाये।
@ '2' और '9' में बहुत प्रेम है। वैसे इनका जोड़ ग्यारह ही होता है। लेकिन ये कभी ग्यारह नहीं होते। कारण - जुड़ते समय बीच में कई अंक आकर अड़ते हैं।
पहली बात, 'दो' को 'नो' तक पहुँचने में बहुत से अंकों को मजबूरन अंक लगाना होगा इसलिए वह जुड़ना नहीं चाहता। [यहाँ 'नो'='नौ' है।]
दूसरी बात, 'नो' को 'दो' से आकर मिलना स्वीकार नहीं। वह सभी में वरिष्ठ जो है। [यहाँ भी 'नो'='नौ' है।]
तीसरी बात, यहाँ 'दो' का अर्थ 'देने' से और 'नो' का अर्थ 'मना' करने से भी लेना चाहता था। [यहाँ 'नो'= NO है।]
कवि मन काव्य-प्रेरणा से 'प्रेम' को देने की चाहना रखता है। लेकिन 'काव्य-प्रेरणा' कवि की उक्ति वक्रता से रुष्ट होकर उसकी मनाही किया करती है।
चौथी बात, देने और मना करने के संवादों के बीच दोनों ही कभी साथ [आमने-सामने, ग्यारह, 11] नहीं हो पाये। [यहाँ 'दो''नो'=दोनों है।]
'नो''दो' ग्यारह हुआ हास जब उसने उनके मुख पलटाये।
@ '9' और '2' अक्सर ही ग्यारह हो जाते हैं। देखा गया है ... प्रायः 'वरिष्ठ' स्वार्थ निमित्त कनिष्ठों की सहायता से ही बढ़त बनाते हैं और 'कनिष्ठ' वरिष्ठ के संधि प्रस्तावों को कभी नकारते नहीं।
[पहली बार में 'नो' 'दो से आकर नहीं मिलता क्योंकि वह 'दो' को दहाई के स्थान पर पाता है। 'इकाई' स्थान वाला 'दहाई' स्थान वाले अंक से क्योंकर मिले? - इस कारण वह नहीं मिलता। लेकिन वही जब अपनी स्थिति 'दहाई' में देखता है वह स्वार्थ साधता है।]
— 'हास' ने जब 'दो' का उत्तर 'नो' रूप में पाया तो वह हवा [ग्यारह, 11, रफू चक्कर] हो गया। या यूँ कहें ... हास ने 'दो' और 'नो' के घूमे हुए मुखों को पलटाकर 'नो' और 'दो' किया तो अर्थ का अनर्थ हो गया।
— 'मनाही' के बाद भी हास के साथ 'देने का आग्रह' दोनों के मुख फेरने का कारण बना।
......... कुलमिलाकर ये 'प्रस्तुति' काव्य-क्रीड़ा रूप में मेरे आनंद का कारण बनी। अक्षरों के बाद अंकों से खेलना भी मुझे अच्छा लगा।
मित्र संजय,
आपके नियमित आने के लिए आभार।
आप ही हैं जो सुख और दुःख, कमज़ोर और मज़बूत अभिव्यक्ति में साथ रहते हैं। अन्यथा ... यहाँ तो ऐसे प्रेमीजन हैं जो कंठरुद्ध होने पर मुख फेरते हैं और वीणापाणि के कंठस्थ होने पर जमावड़ा लगाते हैं। :)
मित्र ये नौ या नो...दोनो में जो भी लिखे कवि के लिए इसपर कोई रोक नहीं है.इसमें पूरी तरह से कवि की चलती है..औऱ श्रोता उसमें छुपे भाव को देखता है....भाषाई शुद्धता कवि के लिए आवशयक होता होगा पर कभी भी बाध्यकारी नहीं है...अगर ऐसा होता तो न तो कबीर अभी तक लोगो को याद रहते न ही गुरुदेव रविद्रंनाथ टैगोर के खुद किए हुए गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद को नोबेल पुरस्कार मिलता।
किस्सा ये है कि जब गीतांजलि का अनुवाद अंग्रेजी में गुरुदेव टेगौर ने किया तो उसे जांचने के लिए दीनबंधु एंड्रूज के पास भेजा जो अंग्रेजी के प्रकांड पंडित थे..दीनबंधु ने टैगोर के अनुवाद में चार जगह बदलाव किया...उस बदलाव सहित टैगोर ने अंग्रेजी में अनुवाद की हुई गीतांजलि एक मशूहर अंग्रेज कवि को भेज दी..जिनका नाम में भूल रहा हूं...। उन कवि महोदय ने दीनबंधु एंड्रूज के जोड़े शब्दों को काट कर चार शब्द दुबारा लिखे...ये वो ही शब्द थे जो टैगोर ने आरंभिक अनुवाद में लिखे थे....आश्चर्यचकित गुरुदेव ने उन कवि से पूछा कि ये शब्द तो दीनबंधु ने जोड़े थे....इस पर उन अंग्रेज कवि ने कहा कि दीनबंधु भाषा के प्रोफेसर हैं कवि नहीं है....कवि की अपनी भाषा होती है अपने भाव होते हैं...जिसे कोई कवि ही समझ सकता है। इसलिए आपके और मेरे शब्द एक जैसे हैं....। फिर इसी अनुवाद पर टेगौर को नोबेल पुरुस्कार मिला.।
इसलिए शब्दों के साथ आपके प्रयोग मुझे कभी अखरते नहीं..बस समझ न आने पर या किसी तरह की अड़चन कविता में दिखाई देती है तो हम उस पर अपनी प्रतिक्रिया जताते हैं....औऱ ये आपका काम है कि आफ उसे समझाएं....पर कटुता से नहीं।
वैसे मित्र आप किन प्रेमी जनों की बात कर रहे हैं अगर मै भी उनमें हूं तो कहिएगा....।
@ प्रखर आलोचक यदि अपने पाले में खड़ा दिखे तो यह सबसे बड़ी उपलब्धि ही मानी जायेगी। रोहित जी, आपने जिन दृष्टान्तों से कविताई के जिस अधिकार क्षेत्र की पैरवी की है वह पाठकों के लिए ही नहीं उन कवि बंधुओं के लिए भी पठनीय है जो भाषा का अच्छा प्रयोग तो जानते हैं लेकिन उसके साथ मनमाने रूप से खेलना उन्हें रुचता नहीं।
रमाकांत जी जैसे प्रबुद्ध पाठक मेरे ब्लॉग की उपलब्धि हैं। उनका कहा अपने लिखे पर पुनः ध्यान केन्द्रित करवा देता है। मुझे अपने लिखे में दोष-दर्शन करने में भी आनंद आता है। मुझे काव्यशास्त्र के दोष वाले अध्याय को समझने और समझाने के लिए ऐसा करना रुचने लगा है।
रोहित जी, मैं हमेशा से चाहता रहा कि कोई तो ऐसा पाठक हो जो मेरे लिखे का उद्गम पूछे, उसका प्रेरक बिंदु पूछे, उसके लिए बनी स्थितियों के बारे में चर्चा करे। कई बार तो मुझे बड़ा संतोष हुआ है कि जब किसी भी पाठक ने संभावित प्रश्नों को नहीं किया और इस प्रकार एक बड़े आत्मघाती कदम से खुद ही बच निकला। बातों के जाल में फँसाने वाले अब यहाँ उपस्थित होते ही नहीं। केवल आप से कुछ प्रेमीजन ही हैं जो इस लघुतम गोष्ठियों में साहित्यिक सुख ले पाते हैं। आपके लिए एक रूपक सूझ रहा है, "कुछ ही भ्रमर होते हैं जो बाँस के फूल से भी रस ग्रहण कर लेते हैं।"
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