द्वार पर शुक बैठा-बैठा
राम का नाम लिया करता.
दिया था जो तुमने उपहार
वही है उसका कारागार
बद्ध करना उसका विस्तार
कहाँ तक किया उचित व्यवहार.
द्वार पर शुक बैठा-बैठा
काल की बाट जुहा करता.
रूठता प्राणों से पवमान
देह जाने को है श्मसान
आपका बहुत किया सम्मान
नेह का होता है अवसान.
द्वार पर शुक बैठा-बैठा
आपको कोसा है करता.
किया जब मैंने उसको मुक्त
जगा जैसे युग से हो सुप्त
किया मेरा उसने जयनाद
द्वार पर स्वयं हुआ नियुक्त.
द्वार पर शुक बैठा-बैठा
आपका नाम लिया करता.
'स्वतंत्रता' मतलब जो 'बंधन' स्वयं चुने जाएँ
25 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर...स्वतन्त्रतादिवस की पूर्व संध्या पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
स्वतंत्रता को आपने परिभाषित कर दिया जीवन मूल्यों से . अदभुत
सुन्दर
हृदयस्पर्शी उत्कृष्ट
'स्वतंत्रता' मतलब जो 'बंधन' स्वयं चुने जाएँ
कितने सटीक शब्द......
पर हम तो स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंद हो रहे हैं.... सुंदर पंक्तियाँ
suprabhat guruji
.......
.......
pranam
suprabhat guruji
.......
.......
pranam
एक स्वतंत्रता वो भी होती है , जब कोई प्रेम से अपने बंधनों में बाँध ले और हम ख़ुशी-ख़ुशी उस प्रेम-पाश में बांध जाएँ और शुक की भाँती ही उसका नाम जपते रहे।
nice presentation....
Aabhar!
Mere blog pr padhare.
है खुला,मगर है बंद-बंद,
क्यों मानुस बद्ध किया करता,
कविता कैसी,जब बना हंत,
शुक द्वार बैठ सोचा करता !
@ डॉ. मयंक जी,
आज 'स्वतंत्रता' को हम कुछ प्रतीकों से ही समझते हैं... हायरी, बुद्धि की संकीर्णता! जो केवल लालकिले पर झंडारोहण, प्रधानमंत्री का उपलब्धिगान, खूब सारे गुब्बारों की आकाश में उड़ान, दिनभर रेडिओ पर बजने वाले देशभक्ति नगमे, टीवी पर आने वाली लगातार भारत-पाक युद्ध में सहादत वाली फ़िल्में, न्यूज़ चैनल्स का तीन रंगों में पुता होना.
देश के पहले नागरिक से लेकर न जाने कितनी संख्या वाले नागरिक तक केवल कठपुतलियाँ ही विराजमान हैं...
नंबर एक पर फौज मौशाय, दूसरे पर कोयलाखाय, तीसरे पर मीरा बिठाय, चौथे को शुक्ला धमकाय, पाँचवे ...., छठे.....
अब तो बस वास्तविक स्वतंत्रता की प्रतीक्षा है... देखें कब मिलती है.
@ रमाकांत जी,
आपने जीवनमूल्यों से भूषित 'स्वतंत्रता' को सराहा.. लगा कि हमारे मन मिल गये.
@ सुज्ञ जी, इस बार आप वचनों में मितव्ययिता के लिये स्वतंत्र हैं. पर आगे से ऐसा न हो...क्या उपदेश करते-करते हृदय शुष्क हो गया जो रसीले वचन प्रसाद रूप में देते हो...'सुन्दर' से तो आत्मा तृप्त नहीं होती.
"प्रसाद वही जो गले से नीचे न जाये, दाड़ में फँस जाये."
क्या आप भी 'प्रसाद' की इस परिभाषा से सहमत हैं?
@ सञ्जय भास्कर जी,
'आपका नाम' तब से जानता हूँ... जबसे ब्लॉग का आरम्भ किया है... मेरे ब्लॉग पर पाठक रूप में उदित होने वालों में आप प्रथम थे... इस ब्लोगमंच पर उत्साह बढ़ाने वालों को भूल जाना सहज नहीं.
@ डॉ. मोनिका जी,
जिन बन्धनों को चयन करने की छूट हो, उन बंधनों से जुड़ी आचारसंहिता भी ज्ञात होनी जरूरी है. इसके अभाव में ही 'हम स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंद हो रहे हैं.'
प्रिय संजय जी,
??? ???
??? ???
नमस्ते.
@ दिव्या जी, स्वतंत्रता की नवल परिभाषा अनुभवगम्य है... यह अनुभव मुझे आपसे हुआ है.
@ वैद्यराज राधारमण जी,
गंभीर प्रश्न करती इस प्रतिक्रिया ने काव्य-विषयवस्तु को ही घेर लिया ... क्या इस प्रश्न ने बद्ध करने का काम नहीं किया.... वैद्यराज की इस हन्तीय चिकित्सा (कष्टदायक) ने शुक-हृदय को सोचने को बाध्य कर दिया.
आपकी प्रतिक्रिया उच्च कोटि की होती है. एक-एक शब्द रमणीय साँचे में कसा हुआ है.
अनुपम !
गहन और सार्थक चिंतन.
संजू जी,
प्रस्तुति की सराहना में 'बुलउआ-द्वार' पाकर मैं आपके ब्लॉग पर घूम आया.
आपके छोटे-छोटे संदेशों में समसामयिक प्रभाव झलकता है और शुभ कामनाएँ होती हैं.
एक अच्छे सामाजिक के लिये ये दोनों चीज़ें बहुत जरूरी हैं.
@ प्रिय अमित,
'आपका नाम' अनुपम है या 'अमिट'?.
@ कुश्वंश जी,
'आपका नाम' गहन है 'कुश'वंश बढ़ जाने पर सारी थकान चिंतायें उसमें विलुप्त हो जाती हैं. इसलिये आपको मैं बहुत पसंद करता हूँ.
@ दिव्या जी,
उत्तर-प्रतिउत्तर और फिर उत्तरोत्तर संवाद का छोर छोड़े रखना चाहे शिष्टाचारवश हो अथवा आवेगवश .... बतरस लोभियों को आनंद देता है.
Bahut bahut shukriya sir
एक टिप्पणी भेजें