तुम धरा धीर धारो बेशक
तुम रहो पपीहे-सी प्यासी
तुम करो स्वयं को रजनीगंध
जीवन-कागज़ कोरा कर लो
चिड़ियों-सा चहको मन-आँगन
[आलोकिता जी के लिए लिखी कविता जो मेरे संग्रह से छिटकी पड़ी थी। आज शामिल कर रहा हूँ ]
बदले में ना कुछ चाह करो.
ये धरा सहिष्णु स्वभावी
केवल स्व-गुण प्रवाह करो.
तुम रहो पपीहे-सी प्यासी
बदले में ना कुछ आह करो.
ये बहुत अधिक स्वाभिमानी
वारिवाह की ना वाह करो.
वारिवाह की ना वाह करो.
तुम करो स्वयं को रजनीगंध
बदले में ना अवगाह करो.
ये गंध देखती नहीं अमा,
राका की अब ना राह करो.
जीवन-कागज़ कोरा कर लो
तो उसको जबरन नहीं भरो.
यदि ज्ञान-बूँद की भाँति बनो
तो एकाधिक मन शुक्ति करो.
चिड़ियों-सा चहको मन-आँगन
आखेटक दृग से नहीं डरो.
यदि निद्रा में लेना सपना,
तो भोर-नींद की चाह करो.
[आलोकिता जी के लिए लिखी कविता जो मेरे संग्रह से छिटकी पड़ी थी। आज शामिल कर रहा हूँ ]
हे आलोकिते,
तुम पुष्प भाँति मुस्कान लिये
तुम पुष्प भाँति मुस्कान लिये
जो काँटों सा दुःख ... दाह करे.
हम ओस बूँद की तरह रहे
जो चाटे भी ना ... तृषा हरे.
*कहते हैं – स्वप्न प्रगाढ़ निद्रा में नहीं आते.
**काव्य-रूढ़ी – भोर-नींद में लिये गये स्वप्न सत्य होते हैं.
अवगाह -अन्तः प्रवेश करना.
7 टिप्पणियां:
कुछ भावार्थ या संकेताक्षर के होने से
समझने में आसानी होती है-
सादर -
धीर धरा सा धारो |
मन-व्यग्र सँभालो यारो |
इक रेखा ऐसी पारो-
जिससे हृदय न हारो ||
निद्रा गहन उबारो |
सपने सरल सँवारो |
मद का बोझ उतारो |
तो नैना मिलते चारो ||
बहुत सुंदर
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
प्रतुल जी , आपके ब्लॉग पर देरी से आने के लिए पहले तो क्षमा चाहता हूँ. कुछ ऐसी व्यस्तताएं रहीं के मुझे ब्लॉग जगत से दूर रहना पड़ा...अब इस हर्जाने की भरपाई आपकी सभी पुरानी रचनाएँ पढ़ कर करूँगा....कमेन्ट भले सब पर न कर पाऊं लेकिन पढूंगा जरूर
जीवन-कागज़ कोरा कर लो
तो उसको जबरन नहीं भरो.
यदि ज्ञान-बूँद की भाँति बनो
तो एकाधिक मन शुक्ति करो.
लाजवाब रचना...बधाई
नीरज
मित्र रविकर जी,
ये तो मानता हूँ कि मैंने संकेताक्षर नहीं दिया..
उपर्युक्त भाव 'उद्गीत की कवयित्री 'आलोकिता' जी की कविता पर व्यक्त हुए थे...
लिंक है : http://alokitajigisha.blogspot.in/2011/02/blog-post_27.html
मुझे उनकी कविता में कोमलतम भावों की सुखद अनुभूति होती है.... उनकी कविता है :
पलक पावढ़े ...बिछा दूंगी
तुम आने का.. वादा तो दो
धरा सा धीर... मैं धारुंगी
गगन बनोगे... कह तो दो
पपीहे सी प्यासी. रह लूँगी
बूंद बन बरसोगे कह तो दो
रात रानी सी ..महक लूँगी
चाँदनी लाओगे कह तो दो
धरा सा धीर... मैं धारुंगी
गगन होने का वादा तो दो
जीवन कागज सा कर लूँगी
हर्फ बन लिखोगे.कह तो दो
बूंद बन कर... बरस जाउंगी
सीप सा धारोगे.. कह तो दो
हर मुश्किल से ...लड़ लूँगी
हिम्मत बनोगे.. कह तो दो
पलक पावढ़े..... बिछा दूंगी
तुम आने का... वादा तो दो
चिड़ियों सी मैं... चहकुंगी
भोर से खिलोगे. कह तो दो
गहन निद्रा में ..सो जाउंगी
स्वप्न बनोगे... कह तो दो
फूलों सी काँटों में हँस लूँगी
ओस बनोगे .....कह तो दो
धरा सा धीर ....मैं धारुंगी
गगन बनोगे.... कह तो दो
@ डॉ. मोनिका जी,
आपकी सहज उपस्थिति से मन निर्भय हो जाता है... और शृंग की समस्त चोटियों से पावन धार स्फुटित होने लगती है.
@ सदा जी,
आपका आगमन ये संकेत करता है कि ... यदि संवाद में सरसता है तो वह कविता मानी जा सकती है.
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