पिता-पुत्री का प्रेम कैसा हो?.... इस कविता में एक रूपक के माध्यम से बताना चाहा है.
जाने क्या फिर सोच घटा के पास चला मारुत आया.
केशों में अंगुलियाँ डाल फिर धीरे-धीरे सहलाया.
सुप्त घटा थी जगने वाली दूज पहर होने आया.
कोस रहा मारुत अपने को क्यूँ कल वो अंधड़ लाया.
थकी पड़ी थी आज़ घटा-तनया तन-मुख था कुम्हलाया.
करनी पर अपनी मारुत तब देख उसे था पछताया.
खुला प्राचि का द्वार जगाने था बालक सूरज आया.
'जागो-जागो हुआ सवेरा' पीछे से कलरव आया.
उठी घटा तब मारुत ने चूमा छाती से चिपकाया.
'क्षमा करो बेटी मुझको मैंने तुमको कल दौड़ाया.
'नहीं पिताजी नहीं, आप तो दौड़ रहे थे नीचे ही.
मैं तो ऊपर थी, पाने को साथ तुम्हारा दौड़ रही.' [गीत]
[बेटी 'अमृता' के लिए]
मेरी समझ से....
पिता से फटकार खाकर भी बेटी पिता को शर्मिन्दा नहीं होने दे .... उसे सकारात्मक ले.
और पिता में अनुशासन की कठोरता अवश्य हो लेकिन इसके साथ ही समय-समय पर उसे कोमल मन के द्वार भी खोलते रहने चाहिए.
12 टिप्पणियां:
सादर नमन |
गहन वात्सल्य |
व्यवहारिक सन्देश ||
अद्भुत पिता पुत्री प्रेम नमन
अद्भुत प्रस्तुति...
अति सुंदर।
adbhut pita putri prem
पिता हो , अथवा पुत्री, अथवा अन्य कोई रिश्ता...अपनों को शर्मिंदा क्यों कर करना ? रिश्तों में अगर मिठास न हो तो फिर रिश्ता कैसा ?
@ रविकर जी आपके लिये आपकी समस्त रचनाएँ 'पुत्रीवत' ही हैं... इस कारण आपको कविता में छिपा सन्देश व्यवहारिक लगा...
पिता के अधिक लगाव पर संदेह-स्वभावी लोग कभी-कभी 'वात्सल्य' की नाम-पट्टिका की बजाय 'वासना' की पट्टिका लगा देते हैं.
@ रमाकांत जी,
पिता और पुत्री का प्रेम भावनात्मक ही नहीं आध्यात्मिक भी है... मुझे लगता है जैसे जीवात्मा परमात्मा से प्रेम करती है और परमात्मा जीवात्मा की गति का मार्ग सुगम बनाता रहता है. इसलिये ऐसा प्रेम वन्दनीय है.
@ कैलाश जी, आपने तो पुत्री-प्रेम को अनुभूत किया होगा... बहुत से ऐसे भी हैं जो केवल उसे कल्पना में ही महसूस करते हैं. शायद ऐसा!... शायद वैसा!!
@ देवेन्द्र जी,
'पुत्री-प्रेम' परिवार के लिये प्रसाद है... पिता के लिये 'चरणामृत'.
@ डॉ. आशुतोष जी,
मुझे लगता है... 'पुत्री-प्रेम' पिता के मन में उगे उस तुलसी के पौधे की तरह है जो मन में सहसा उठती समस्त कलुषताओं की तरंगों को सोख लेती है.
@ दिव्या जी, जब भी रिश्तों के बीच कहीं प्रतिस्पर्धा होती है और कोई उसे जीत लेता है... तब मन में एक हूक भी उठती है कि किसी का जीतना किसी का हारना भी तो है.
इसलिये 'जीते' हुए व्यक्ति को अत्यंत विनम्रता से 'हार महसूस किये' व्यक्ति से क्षमा मांगनी चाहिए... ये बात केवल पारिवारिक या भावनात्मक संबंधों के स्तर पर कह रहा हूँ.
सच है 'रिश्तों की मिठास' एक-दूसरे की चिंता करने से बढ़ती है.
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