गुरुवार, 14 जून 2012

सुदृश्य

पलकें मेरी लपक लेतीं
प्रत्येक मोहक चित्र को
पल में लपकतीं पलक गिरते
स्वप्न के सुदृश्य को.
हैं बहुत से सुदृश्य ऐसे,
नित आते नयन पट पर.
पट खोलते दर्शन कराते
लौट जाते उसी पथ पर.
वे जब न आते, छोड़ जाते
राह में पलकें बिछाना
कठिन हो जाता तब मेरी
पलक से पल का मिलाना.

[मेरे विद्यार्थी जीवन की पहली शृंगारिक रचना, मार्च 1989]

16 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

पहला श्रृंगार

आभार महोदय ।।



पलक लपक मन मथ परख, झपक करत रति कैद ।

नयन शयन कर न सकत, चतुर बुलावें बैद ।।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

हे आर्य पुत्र! ये पलक देवी कौन हैं जिन्होंने आपको इतना मोहित कर लिया है ?
और आदरणीय रविकर जी ने तो सुहागे में सोना डाल दिया है। क्या बात है ...क्या बात है ....थोड़ा सा इसमें ताँबा और मिला देते हैं -
थकत पलक नहिं मन अली, पलट-पलट कर निरख कली। शयन बिना देखत सपन, नयन कहत लागत भली।

Ramakant Singh ने कहा…

कठिन हो जाता तब मेरी
पलक से पल का मिलाना.

BEST EXA.ARTHA ALANKAR

रश्मि प्रभा... ने कहा…

bahut hi badhiyaa

ZEAL ने कहा…

ह्रदय में उठते भावों को बखूबी अभिव्यक्त करती मनमोहक पंक्तियाँ..

कुमार राधारमण ने कहा…

पलक हैं सुदृश्य के ही वास्ते, फिर भी कभी
है प्रेम पलकों में पला,अव्यक्त भी अदृश्य भी

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

विद्यार्थी जीवन में ही इतना अच्छा लिखने लगे थे आप..! सर जी क्या बात है।

आपका पहली रचना भी बेहद बढ़िया रही।

आप मेरे ब्लॉग पर बड़ा जबरदस्त कमेंट लिखकर आए हैं। उसके लिए भी आपका आभार!

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

कठिन हो जाता तब मेरी
पलक से पल का मिलाना.

भावनाओं का बहुत सुंदर चित्रण .

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ पलक लपक मन मथ परख, झपक करत रति कैद । नयन शयन कर न सकत, चतुर बुलावें बैद ।।

रविकर जी, सुन्दर प्रतिक्रिया दी है आपने.

आता देखकर 'मन्मथ' अपनी पलकों से झपककर 'रति' को कैद कर लेता है.

यदि पलकें पहली ही मुंदी होतीं तो 'रति' को कैसे पकड़ (कैच कर) पातीं? स्पष्ट है नयन इसीलिए ही शयन नहीं कर पाते कि वह 'रति' को पकड़ने (पलकों को खोले) तैयार रहते हैं.

किसी भी कुशल बैद को बुलाना निरर्थक है... क्योंकि जब पकड़ने को उतावलापन स्वयं में हो तो दवाइयों (ड्रग्स) की और वैद्य (कोच) की जरूरत नहीं रह जाती.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ थकत पलक नहिं मन अली,

पलट-पलट कर निरख कली।

शयन बिना देखत सपन,

नयन कहत लागत भली।

कौशलेन्द्र जी,

ये पलक देवी यौवन के द्वार पर खड़ा मेरा सौन्दर्य बोध ही था. काव्य प्रतिक्रिया में आपने रविकर जी को सही चुनौती दी हुई है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रमाकांत जी, आप हमेशा छिपे रत्नों (अलंकारों) की खोज में रहते हैं... स्वभाव-स्वभाव की बात है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रश्मि जी, आप भी अब मेरे ब्लॉग पर अपनी प्रभा बिखरने लगे हैं... मुझे लगता है आने वाले समय में इसका आगुन्तकों पर विशेष प्रभाव पड़ेगा.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ दिव्या जी, संतुलित सराहना.... जानता हूँ...'संबंधों की गरिमा' को समझने की अपनी सीमा है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ कुमार राधारमण जी, आपकी काव्य प्रतिक्रिया इस बार सर्वश्रेष्ठ लगी... यह रचना के नहले पर 'दहला' है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ विरेन्द्र जी, :) बैंगन की सब्जी मुझे सबसे प्रिय है.... लेकिन जब अधकच्चा रह जाता है तब वह मुख में एलर्जी कर देता है.

आप मेरी कटु प्रतिक्रियाओं को भी प्रेमभाव से स्वीकार करते हैं... यही मुझे आपसे घनिष्ठ संबंध बनाने को उत्साहित करता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. शरद जी,

पाठक की दृष्टि से मुझे जिन पंक्तियों ने मोहित किया वो भी वही हैं जो आपने पसंद कीं.