यह ब्लॉग मूलतः आलंकारिक काव्य को फिर से प्रतिष्ठापित करने को निर्मित किया गया है। इसमें मुख्यतः शृंगार रस के साथी प्रेयान, वात्सल्य, भक्ति, सख्य रसों के उदाहरण भरपूर संख्या में दिए जायेंगे। भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी। सो उसे समय-समय पर व्याख्यायित करने का सोचा है। यह मेरा दीर्घसूत्री कार्यक्रम है।
12 टिप्पणियां:
आपकी मन:स्थिति से अनजान हूँ । क्षमा करें--
गंभीर-हास्य है शायद यह ||
रेंगे वक्षस्थल कीड़ा ।
क्या गैर उठाएगा बीड़ा ?
मजा गुदगुदी जो लेता-
सहे वही दंशी पीड़ा ।
suprabhat guruji....
der se aane ke liye..kshama...
pichle sabhi post padhe....
kavimana hridya bahut komal hote hain....pira ka sanghat, kis hetu
hai....samjhne ka prayatn kar raha
hoon...
haan, is baat ka santosh hai, ke aapke sat-sang aapke pira ko jaroor kam karega....
pranam.
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प्रेम जहाँ झर-झर झरता है
बिन माँगे बहता रहता है
रीति प्रेम की बड़ी अनोखी
प्रतिदान नहीं माँगा करता है
जो भी निधि है तेरी अपनी
तू उसका ही केवल दान करे
मत दे बन्धन शर्तों का कोई
तू श्रद्धा का अपनी मान करे
आपकी मन:स्थिति से अनजान हूँ । क्षमा करें--
गंभीर-हास्य है शायद यह ||
@ रविकर जी,
बकवास भी अपनी हुई अब तो सुवासित
संभावनाएँ भी नहीं करतीं मुझे चित.
वही बोलें जो दिखे पहली नज़र में
सर्वोपरि है प्रिय जनों का सोचना हित.
रेंगे वक्षस्थल कीड़ा ।
क्या गैर उठाएगा बीड़ा ?
मजा गुदगुदी जो लेता-
सहे वही दंशी पीड़ा ।
@ सच है भुक्तभोगी ही जानता है दंश की पीड़ा. ग़ैर तो उससे मज़ा ही लेते हैं.
किसी विद्वान् ने कहा है - 'विरही के लिये जो पीड़ास्पद है वही अन्यों के लिये मनोरंजन का हेतु बनता है.'
@ प्रिय सञ्जय,
सच कहता हूँ, सच कहता हूँ
अकसर तो मैं चुप रहता हूँ.
तन-मन पर पड़ती मारों को
बिला वजह सहता रहता हों... सच कहता हूँ.
पीड़ा का संघात किस हेतु है.... समझने का प्रयत्न कर रहा हूँ.
@ एक ही वाक्य में निश्चित हो जाओ तो मुझे प्रसन्नता होगी. वो ये कि :
"मुझे काव्य-क्रीड़ा हेतु समय-समय पर वास्तविक-सा लगने वाला नाट्य करना रुचने लगा है."
@ आदरणीय डॉ. मयंक जी,
अब तो सार्थक निरर्थक-सा लगता है और निरर्थक सार्थक-सा लगने लगा है.
निरर्थक सृजन में किसी के रथ की प्रतीक्षा रहती है और सार्थक सृजन में थक-सा जाता हूँ.
@ काव्य-मर्मज्ञ कौशलेन्द्र जी,
दग्ध हृदय से निकले उद्गारों का सही-सही अर्थ वही लगा पाता है जो विविध 'कराहों' के एकाधिक अर्थ कर ले.
साधारण अनुमान प्रायः खूँटे के इर्द-गिर्द घुमाया करते हैं. लेकिन सीधी बातों के अकल्पित तात्पर्य निकालने वाले विरले ही होते हैं.
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति भी है,
आज चर्चा मंच पर ||
शुक्रवारीय चर्चा मंच ||
charchamanch.blogspot.com
सर जी....प्रणाम!
सार्थक कविता सर्जन बेहद पसंद आया!
सर जी आपको श्रीरामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
भाई, हमारी उपस्थिति मार्क की जाये।
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