शनिवार, 3 दिसंबर 2011

अन्तर्द्वन्द्व

यह मेरे काव्य-अभ्यास के दिनों की एक कविता है .... "अन्तर्द्वन्द्व". इसकी रचना १९९० के मध्य में हुई, यह अभी तक छिपी हुई थी... मेरे अतिरिक्त शायद ही किसी ने पढ़ा हो!


"दिन नियत कर हम मिलेंगे
चांदनी रात होने पर.
जाने साथ बने कैसा
स्नेहमयी बात होने पर."

"चुनी चांदनी ही क्यूँ?
अंधेरी रात भी होती."
- मेरे मन के विचारों यूँ,
तुम न आवाज दो थोती.

शीतांशु की रश्मियों से
शीत मिलती शील को.
शशि बिन बलते दीयों सा
ताप देता शील को.

"ऐ! आप रातों के चक्कर में
दिवा को भूल गए क्या?"
- ओह हो! फिर आवाज दी,
न मानोगे तुम जिया?

दिवा में देखता समाज
शंका से तिरछी दृष्टि कर.
रवि भी देखता दारुण दृगों से,
दीप्ति देकर सृष्टि पर.

"क्या आप रोक न पाते
मिलन के उर विचारों को?"
- मेरी तरफ से दूर करो,
तुम इन दुर्विचारों को.

मेरे तो आप ही हो मित्र,
बुरा न मानूँ बातों का.
मेरा प्रशस्त करो तुम पंथ
दर्द न होवे घातों का.

बने घट कुम्हार घातों से,
देता उर, सार पाठों का -
"मिलन हो मात्र बातों का,
न बाहों का, न रातों का."


[आज इस कविता को पढ़ा तो महसूस किया कि कि भाव और भाषा की दृष्टि से धीरे-धीरे ही विकास होता है.. जिसे मैं उस समय विशेष में अपनी श्रेष्ठ रचना मानता था  आज उसमें ही कई झोल नज़र आते हैं.... बहरहाल मुझे एक पाठक की दृष्टि से यह भी ठीकठाक लगती है क्योंकि दो-तीन पंक्तियों की वजह से यह कविता याद रखी जा सकती है.]

प्रश्न : वे कौन-सी पंक्तियाँ हो सकती हैं जो कविता में कुछ अधिक उभार लिए हैं?

36 टिप्‍पणियां:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

मेरे तो आप ही हो मित्र,
बुरा न मानूँ बातों का.
मेरा प्रशस्त करो तुम पंथ
दर्द न होवे घातों का.

प्रकृति का हर रूप मित्र ही लगता है ..... कमी निकाल पाने जितनी समझ तो नहीं है...
कविता की ये पंक्तियाँ मुझे बहुत पसंद आई .....

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

हमें तो अद्भुत रचना ही लगी प्रतुल भाई, ऐसी जिसे हम कभी न रच पायें।

Smart Indian ने कहा…

कविता तो मुझे भी अच्छी लगी और आपको पुनः सक्रिय देखना भी अच्छा लगा। थोती का अर्थ क्या है?

Unknown ने कहा…

शब्दों का मोहक बंधन है आपकी कविता

Anupama Tripathi ने कहा…

बहुत बढ़िया अन्तर्द्वन्द्व ... ..मन को राह बताता हुआ ..

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अजब गजब अंतर्द्वंद्व ...

दिवा में देखता समाज
शंका से तिरछी दृष्टि कर.
रवि भी देखता दारुण दृगों से,
दीप्ति देकर सृष्टि पर.

सुन्दर प्रस्तुति ..

Surendra shukla" Bhramar"5 ने कहा…

बहुत सुन्दर लेखन था उस समय भी ..सुन्दर वशिष्ठ जी

भ्रमर ५
बाल झरोखा सत्यम की दुनिया


दिवा में देखता समाज
शंका से तिरछी दृष्टि कर.
रवि भी देखता दारुण दृगों से,
दीप्ति देकर सृष्टि पर.

मेरे तो आप ही हो मित्र,
बुरा न मानूँ बातों का.
मेरा प्रशस्त करो तुम पंथ
दर्द न होवे घातों का.

रविकर ने कहा…

मिलन हो मात्र बातों का ||
इतने में ही संतुष्ट है एक पक्ष ||
वासना रहित निश्छल प्रेम --

या फिर

छल करने को उद्दत --
दाना डालने की प्रक्रिया ||

पुरानी कविता--
इसलिए पहला भाग ही परम सत्य ||

आज के युग में शायद वन्चिका ही हो यह भाव --
पहले आ तो जाओ --
फिर निकाल लेंगे दिल के अरमान |

क्षमा सहित--
आपके इन्तजार में आपका एक प्रियपात्र ||


सुन्दर प्रस्तुति ||

बधाई ||

http://terahsatrah.blogspot.com

प्रेम सरोवर ने कहा…

आपके मन से निकले उदगार बहुत ही सुंदर हैं । मेरी कामना है कि आप निरंतर लिखते रहें । मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है । धन्यवाद ।

सञ्जय झा ने कहा…

sundar suprabhat guruji,

purane tarane bahut achhe lage......
apne manah:sthiti pe adbhut niyantran
..........................jari rahen.


pranam.

सदा ने कहा…

मेरे तो आप ही हो मित्र,
बुरा न मानूँ बातों का.
मेरा प्रशस्त करो तुम पंथ
दर्द न होवे घातों का.
बहुत ही सुन्‍दर भावमय करते शब्‍दों का संगम ।

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" ने कहा…

ptatul jee..biyogi hoga pagla kavi aah se nikla hoga gaan..jo nikal jaaye wahi kavita hai..jo phoot pade pahadon se jharna hai..jo bhav jaruri tha wo hai..acche acche shabd hain..sandesh hai..bahav hai..makan koi bhee rajgeer banaye ..makan apne uddeshya kee poorti jarur karta hai..haan sundarta . sahitya me parmarjit, parishkrit, bhasha shaili ye sab abhoosha hain..abhooshan sundarta badhate hain..wo sundarta jo najar bhram hai..aapka prayas accha tha..mujhe accha laga..sadar badhayee aaur amantran ke sath

Anupama Tripathi ने कहा…

आपकी किसी पोस्ट की चर्चा है नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार 10-12-11. को। कृपया अवश्य पधारें और अपने अमूल्य विचार ज़रूर दें ..!!आभार.

Amrita Tanmay ने कहा…

समग्र रूप से सुन्दर रचना..

Prakash Jain ने कहा…

sir, bahut sundar

Adbhut shabd chayan evam prayog kiye hain....

दिवा में देखता समाज
शंका से तिरछी दृष्टि कर.
रवि भी देखता दारुण दृगों से,
दीप्ति देकर सृष्टि पर.
upyukt panktiyan khas pasand aayi


www.poeticprakash.com

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

sunder gehan abhivyakti.

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

थोती से क्या आपका मतलब 'थोथी'(कोरी,खाली)से है ?
*
बने घट कुम्हार घातों से,
देता उर, सार पाठों का -
"मिलन हो मात्र बातों का,
न बाहों का, न रातों का.
- इतने साल पहले की !अच्छा लगा पढ़ कर .

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

प्रकृति का हर रूप मित्र ही लगता है ..... कमी निकाल पाने जितनी समझ तो नहीं है...
@ डॉ. मोनिका जी, आपकी उक्ति आपके स्वभाव को दर्शाती है... आपकी उपस्थिति से पोस्ट की गरिमा बढ़ती है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ भ्राता श्री सञ्जय अनेजा जी, आप ब्लॉग जगत में जो रच चुके हैं... वह कमाल का है... जरूरी नहीं सभी एक जैसा ही रचें.... तब के रचे में आज मुझे कई दोष नज़र आते हैं...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ अनुराग जी,
कहते हैं सीखने का एक तरीका गलतियों से होकर निकलता है. कुछ लोग नक़ल से सीखते हैं तो कुछ अभ्यास से सीखते हैं.. तो कुछ गलतियाँ कर-करके सीखते हैं.
तुकांत के मोह में 'थोथी' को थोती कह बैठा.. पुरानी रचना को ज्यों का त्यों रखकर अपनी अल्पज्ञता छिपाना नहीं चाहता था.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ कुश्वंश जी,
भावों में बहकर सराहना करना कोई आपसे सीखे... :)

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ संगीता जी,

जिन कविताओं से मैंने शब्दकोश को अपनी भाषा में उड़ेलना शुरू किया था... उसके भाव तो अजब-गजब मुझे भी लगते थे लेकिन छंद कमजोर था..

और जिनका न कोई पाठक हो सका और न ही कोई श्रोता... उसमें कमियाँ होने की संभावना ज्यादा होती हैं.... गुरु से मार्गदर्शन तो तभी मिलता है जब छिपा सृजन सामने रखा जाये.

आपकी सराहना से आज मैंने अपनी अतीत की पीठ थपथपायी है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुरेन्द्र शुक्ल जी,

मुझे भी उस समय भ्रम था कि यह मेरा सुन्दर लेखन था....

प्रेम में त्रुटियाँ नज़र नहीं आतीं.... शुक्ल प्रभा में मासूम धुँधले दोष छिप जाते हैं अक्सर.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रविकर जी,
आपने दोनों संभावनाओं को बताकर प्रेम में 'छल' और प्रेम में 'निश्छलता' की स्थितियाँ उजागर कर दीं.

मुझे 'दाना डालने की प्रक्रिया' एक जबरदस्त कटाक्ष लगी... लेकिन उसकी चुभन उसीको होगी जिसने सन्त के आवरण में छल किया हो...

आपके आगे की उक्तियों को समाचारों में चरितार्थ होते देखा है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रेम सागर जी,
आपके हृदय से निकले उदगार एक साधारण से प्रेम-सोते को प्रेम-सरोवर से मिलने को बाध्य करते हैं...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रिय सञ्जय जी, सुप्रभात.
आपका सूर्य कभी अस्त नहीं होता.... आपका प्रेम-साम्राज्य पूरी धरा पर है..
हम तो आपके उपनिवेश हैं... जारी रहूँ मेरा भी मन करता है...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सदा जी,
आज आपकी सराहना का 'दास' हो गया..

सच में ... कभी-कभी विपरीत बोलने में भी कितना आनंद आता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. आशुतोष जी,
आपने प्रशंसासिक्त उक्तियों से मुझे भिगो दिया.... आपके घर जरूर आऊँगा... बातों की मिठाई लेकर.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ अनुपमा जी,
आपके आने के बाद ही एक भयंकर 'हालाडोला' आया और मेरी सीमित छिपी पहचान को बाहर निकाल गया...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ अमृता तन्मय जी,

आपको पूरी की पूरी रचना में सौन्दर्य बिखरा दिखायी पड़ा.. इसी से लगता है कि आपने कितनी तन्मयता से इसे पढ़ा...

हम जब किसी रचना को अपने मनोभावों से जोड़ लेते हैं तब अनुकूल अर्थों को पाकर उसे सुन्दर कह देते हैं...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ मोनिका जैन जी,
आरम्भ में यह सही है कि हम प्रतिटिप्पणियों के लिये सराहना करें... लेकिन इसे आदत में नहीं लाइयेगा नहीं तो आगे बेतुकी खराब रचना पर भी मजबूरी में प्रशंसा का पिटारा खोलना पड़ेगा.

यही बड़े भाई का मार्गदर्शन है...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रकाश जी,
आपके ब्लॉग का सफ़र किया ... आनंददायी रहा... द्वार खोलकर रखा करें.. तब और भी अच्छा रहेगा.. कपाट वही लगाते हैं जो आलोचना से भय खाते हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ अनामिका जी,
मन को भायें....आपकी सदायें.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रतिभा जी,
आपने अध्यापन धर्म निभाया.
प्रश्न ने समुचित उत्तर पाया.
सुना तो होगा ही सबने
चने थोथे ने शोर मचाया.

Amit Sharma ने कहा…

"ऐ! आप रातों के चक्कर में
दिवा को भूल गए क्या?"
- ओह हो! फिर आवाज दी,
न मानोगे तुम जिया?

यह स्थल मुझे कवी के भावों का मर्म लगा, बाकी सारी कविता इसी का अनुपम विस्तार है. जय हो गुरुदेव !! सिर्फ इसी अंश पर आप एक महाकाव्य भी लिख सकतें है.

नमन है आपकी गरिमामय लेखनी को !

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ अमित जी,
आपकी टिप्पणी की भाषा में एक साथ कई भावों का समावेश है.
— यह प्रशंसा है?
— यह आलोचना है, नहीं-नहीं यह तो चुटकी है... वह भी शरारतपूर्ण?
— यह शिष्य का शालीनता से किया गया कटाक्ष है?

— यह अनुरागी दृष्टि की एकनिष्ठता है जिसमें केवल वही दिखायी देता है जो दृष्टि देखना चाहती है?
— या फिर यह सराहना में लिपटा हुआ संशय ही है???
प्रिय अमित जी,
बूँद-बूँद से भरता है घड़ा.... क्या किसी के निरंतर स्मरण से उत्पन्न हुआ छुट-पुट काव्यांश 'महाकाव्य' का रूप नहीं ले लेगा? क्या जरूरी है किसी कहानी का होना?
आप सभी उस कथा को नहीं जानते जो मेरे 'दर्शन प्राशन' का अनायास कारण बन चुकी है?