रविवार, 18 सितंबर 2011

छंद चर्चा .... मात्रिक छंद ........... पाठ ७

प्राचीन आचार्यों ने एक मात्रा से लेकर बत्तीस मात्राओं तक के पाद वाले छंदों का वर्णन किया है। सुविधा के लिये इनकी ३२ जातियाँ बना दी गई हैं और प्रस्तार-रीति द्वारा प्रत्येक जाति में जितने छंद बनने संभव हैं, इनकी संख्या का उल्लेख भी कर दिया गया है, जो कि इस प्रकार है — 
मात्रा (प्रतिपाद) ................ जाति ......................... छंद प्रस्तार संख्या 
....... 1 ............................. चान्द्रिक .................... 1
....... 2 ............................. पाक्षिक ..................... 2
....... 3.............................. राम .......................... 3
....... 4 ............................. वैदिक ....................... 5
....... 5 ............................. याज्ञिक ..................... 8
....... 6 ............................. रागी ......................... 13
....... 7 ............................. लौकिक .................... 21
....... 8 ............................. वासव ....................... 34
....... 9 ............................. आँक ......................... 55
....... 10 ........................... दैशिक ....................... 89
....... 11 ........................... रौद्र ........................... 144
....... 12 ........................... आदित्य .................... 233 
....... 13 ........................... भागवत .................... 377
....... 14 ........................... मानव ....................... 610
....... 15 ........................... तैथिक ...................... 987
....... 16 ........................... संस्कारी ................... 1597
....... 17 ........................... महासंस्कारी ............ . 2584
....... 18 ........................... पौराणिक .................. 4181
....... 19 ........................... महापौराणिक ............  6765
....... 20 ........................... महादैशिक .................. 10946
....... 21 ........................... त्रैलोक ........................ 17711
....... 22 ........................... महारौद्र ....................... 28657
....... 23 ........................... रौद्रार्क ........................ 46368
....... 24 ........................... अवतारी ..................... 75025
....... 25 ........................... महावतारी .................. 121393
....... 26 ........................... महाभागवत ................ 196418
....... 27 ........................... नाक्षत्रिक ......................317811
....... 28 ........................... यौगिक ........................514229
....... 29 ........................... महायौगिक ..................832040
....... 30 ........................... महातैथिक ...................1346269
....... 31 ........................... अश्वावतारी ...................2178309
....... 32 ........................... लाक्षणिक ....................3542578

आप सोच रहे होंगे ... इन जातियों के नामकरण का आधार क्या है? कैसे इतनी संख्या में छंद-प्रस्तार हो जाते हैं? ... दरअसल हम जो भी काव्य-रचना करते हैं... वह किसी न किसी वर्ग में आती है... यदि हम इस श्रेणी के वर्गीकरण पर शोध करें तो अवश्य अपनी मात्रिक काव्य-रचना को पहचान पायेंगे कि वह किस जाति के किस प्रस्तार-भेद में आयेगी..... जितना सरल है अपनी किसी काव्य-रचना की जाति पहचानना .. उतना ही कठिन है उसका अनुक्रमांक ढूँढ़ना.... क्योंकि इस क्षेत्र में उपलब्ध साहित्य या तो अलिखित रहा है अथवा संभव है कि यवन व मलेक्ष्यों के आक्रमणों में स्वाहा हुआ हो! ... जो हुआ सो हुआ पर अब नए सिरे से इस क्षेत्र में शोध की आवश्यकता बन पड़ी है... इस विषय पर भी कभी चर्चा करने का मन है. अस्तु, आज के विषय पर लौटता हूँ ...

विभिन्न संख्याओं के प्रतीक रूप में प्रयुक्त होने वाले संज्ञा शब्दों के आधार पर ही उपर्युक्त छंद-जातियों के नाम रखे गये हैं. 
उदाहरण — 
संख्या  ............संख्या सूचक शब्द ....................................................................छंद जाति नाम 
.. 1 ................चन्द्र ......................................................................................... चान्द्रिक 
.. 2 ................पक्ष (कृष्ण, शुक्ल) .................................................................... पाक्षिक 
.. 3.................राम (रामचंद्र, बलराम, परशुराम) ............................................... राम 
.. 4 ................वेद (ऋक्, यजु, साम, अथर्व) ..................................................... वैदिक 
.. 5 ................यज्ञ (ब्रह्म, देव, अतिथि, पितृ, बलिवैश्य) .................................... याज्ञिक
.. 6 ................राग (भैरव, मल्हार, श्री, हिंडौल, मालकोश और दीपक कखेड़ा) ............. रागी 
.. 7 ................लोक ........................................................................................ लौकिक 
.. 8 ................वासु ......................................................................................... वासव
.. 9 ................अंक (१ से ९ तक) ..................................................................... आँक 
...10 ...............दिशाएँ ................................................................................... दैशिक 
...11 ...............रुद्र ........................................................................................ रौद्र 
...12 ................आदित्य (सूर्य, अर्क) ............................................................. आदित्य 
...13 ................भागवत (इसमें १३ स्कंध हैं)  ................................................. भागवत 
...14 ................मन्वंतर ............................................................................... मानव 
...15 ................तिथि (प्रथमा से अमा या पूनो तक) ....................................... तैथिक 
...16 ................संस्कार ............................................................................... संस्कारी 
...18 ................पुराण ................................................................................. पौराणिक 
...24 ................अवतार .............................................................................. अवतारी
...27 .................नक्षत्र ................................................................................ नाक्षत्रिक 
...32 .................लक्षण ............................................................................... लाक्षणिक 

अन्य जातियों के नाम भी इन्हीं संख्यावाचक शब्दों के संयुक्त रूप पर आधारित हैं अथवा किसी विशेषण द्वारा उनका संकेत किया गया है. यथा : 
— १० मात्राओं की जाति = दैशिक ; २० मात्राओं की जाति = महादैशिक 
— २४ मात्राओं की जाति = अवतारी ; ७ संख्यासूचक शब्द = अश्व (सूर्य रथ के घोड़े, जो सात दिनों या वारों या सात रश्मि-रंगों के प्रतीक हैं. इस तरह ३१ मात्राओं की जाति 'अश्वावतारी' का नामकरण किया गया.


इन जातियों के छंदों पर आधारित रचनाओं को आगामी 'कवितापाठ' पोस्टों पर देने का प्रयास रहेगा... तब तक काव्य-रसिक जन कुछ प्रश्नों में उलझकर बौद्धिक व्यायाम करें.

प्रश्न १. 'मन्वंतर' नामकरण का आधार क्या है? 
प्रश्न २. २१ मात्रिक छंदों की जाति का नाम 'त्रैलोक' क्यों रखा गया होगा?
प्रश्न ३. 'रौद्रार्क' नामकरण का सूत्र खोल कर लिखें.
प्रश्न ४. २८ मात्रिक छंदों का 'यौगिक' नामकरण क्यों पड़ा? 

[नोट : पाठशाला में नवीन विद्यार्थियों के लिये प्रवेश खुला है, उन्हीं विद्यार्थियों को अग्रिम पंक्ति में बैठाया जायेगा जो अधिक जिज्ञासु और तार्किक प्रश्नों से उलझाने के स्वभाव वाले होंगे. 'सामान्य प्रवेश' सभी आयुवर्ग के लिये हमेशा खुला रहता है.]

39 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

बहुत सुन्दर --
प्रस्तुति ||
बधाई |

Smart Indian ने कहा…

* मन्वंतर = 14 मन्वंतरों की सृष्टि
* रौद्रिक = 11 रुद्र
* यौगिक = 28 व्यंजन?

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

आखिर इंतजार की घड़ियां समाप्‍त हुई। अगला पाठ शीघ्र ही पढने को मिलेगा, ऐसी आशा है।

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत उपयोगी पाठ. आभार

ZEAL ने कहा…

आपकी इस श्रम-साध्य यात्रा को नमन। बहुत कुछ सीख रहे हैं इस पाठशाला से।

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" ने कहा…

bahut hi utkrist prayas hai..lekin bada kathin lag raha hai..hardik badhayee aaur amantran ke sath

Unknown ने कहा…

गुरूजी इन गूढ़ सन्दर्भों को समझना ही श्रमसाध्य काम है लेकिन आप जैसा गुरु हो तो दुरूह कार्य भी समझ में आने लगता है लेकिन अभी प्रश्नों के उत्तर देने लायक नहीं हो पा रहा हूँ. आपकी पाठशाला में बैठे ही रहना इसका हल है. प्रयास करूगा .प्रणाम

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

प्रतुल जी , हिंदी साहित्य में छंद विधा की अद्भुत जानकारी देकर बहुत ही पवित्र और सराहनीय कार्य कर रहे हैं आप ...

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

प्रतुल भाई इस महत्कर्म के लिए विशेष रूप से साधुवाद स्वीकार करें

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

बहुत मेहनत हो रही है। छंदों पर भी अन्तर्जाल पर कमी नहीं होगी, जानकारी की। धन्यवाद।

सुज्ञ ने कहा…

गुरूजी,

छंद मात्रा को सहज बोध और स्मरण रखने के लिए संख्या आधारित संज्ञा के प्रयोग की अद्भुत जानकारी॥
प्रश्न १. 'मन्वंतर' नामकरण का आधार क्या है?
उत्तर - चौदह मनु हुए
प्रश्न २. २१ मात्रिक छंदों की जाति का नाम 'त्रैलोक' क्यों रखा गया होगा?
उत्तर - उधर्वलोक और अधोलोक 2 और 1 मनुष्यलोक(तीर्च्छा लोक)
प्रश्न ३. 'रौद्रार्क' नामकरण का सूत्र खोल कर लिखें.
उत्तर - ग्यारह रूद्र
प्रश्न ४. २८ मात्रिक छंदों का 'यौगिक' नामकरण क्यों पड़ा?
उत्तर - शायद मनसा वाचा कर्मणा रूप योग की संख्या का संयोजन है।

गुरूजी यह अध्ययन लेते हुए अतीव आनंद आया।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रविकर जी, आप की काव्य-प्रतिभा ने ऐसा प्रभा-मंडल तैयार कर लिया है कि हमें अब उसके इर्द-गिर्द घूमने में ही आनंद आता है. आशु कविता का नया सूर्य अस्तित्व में आया है. इसलिये अब ग्रह-उपग्रह बनना भी गौरव की बात है. अब तक मैंने इस दशा को बहुत कम समय के लिये जिया था. आपको देखकर फिर से प्रेरणा जगती है. किन्तु शोध-कार्यों में उलझा रहने के कारण रुचिकर कार्यों में कम समय दे पाता हूँ. आपके बुलावे पर भी 'चर्चामंच' पर न आ सका. आपकी कविताई पर मुग्ध हो जाता हूँ अकसर... अन्य जरूरी कार्य स्थगित करने पड़ जाते हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ अनुराग जी, आपके तीनों ही उत्तर सही हैं... कैसे?----
स्पष्टीकरण देना जरूरी है :
१. मनु संख्या में चौदह हैं :
1] स्वायंभव
2] स्वारोचिष
3] उत्तम
4] तामस
5] रैवत
6] चाक्षुष
7] वैवस्वत
8] सावर्णि
9] दक्षसावर्णि
10] ब्रह्मासावर्णि
11] रुद्रसावर्णि
12] देवसावर्णि
13] धर्मसावर्णि
14] इन्द्रसावर्णि

२- रुद्र : एक प्रकार के गणदेवता जो संख्या में ग्यारह हैं :
1] अजैकपाद
2] अहिब्रघ्न
3] पिनाकी
4] अपराजित
5] त्र्यम्बक
6] महेश्वर
7] वृषाकपि
8] शम्भु
9] कपर्दी
10] रैवत
11] बहुरूप

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

* यौगिक = 28 व्यंजन?
३- यौगिक .... कुछ अधिक सोचने पर प्रतीत होता है कि ...
स्पर्श के २४ व्यंजन... जिनमें नासिक्य व्यंजन छोड़ दें तो २० व्यंजन बचते हैं... और ४ अन्तस्थ और ४ ऊष्म व्यंजन ... कुल हुए २८ व्यंजन....क्योंकि हमें अब २८ व्यंजन पूरे करने हैं तो ... कैसे न कैसे २८ तो करेंगे ही..
___________________
क् वर्ग के चार स्पर्श व्यंजन = क् , ख् , ग् , घ् = 4
च् वर्ग के चार स्पर्श व्यंजन = च् , छ , ज् , झ् = 4
ट् वर्ग के चार स्पर्श व्यंजन = ट् , ठ , ड् , ढ = 4
त् वर्ग के चार स्पर्श व्यंजन = त् , थ् , द् , ध् = 4
प् वर्ग के चार स्पर्श व्यंजन = प् , फ़् , ब् , भ् = 4

अंतस्थ व्यंजन = य् , र् , ल् , व् = 4
ऊष्म व्यंजन = श् , ष , स् , ह् = 4
____________________
अब कुछ प्रश्न उठते हैं?
— इन व्यंजनों में नासिक्य व्यंजन क्यों नहीं जोड़े जायेंगे ? [ नासिक्य व्यंजन हैं : ङ् , ञ , ण , न् , म् ]
— इस योग में संयुक्त व्यंजन क्यों नहीं जुड़ेंगे? [ संयुक्त व्यञ्जन = क्ष् , त्र् , ज्ञ , श्र ]
— २८ के योग में शेष व्यंजन क्यों दूर रहेंगे? [ लुण्ठित और आगत व्यञ्जन सभी ]

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीया अजित जी, पाठशाला में कम समय देने को विवश हूँ... व्यक्तिगत शोध कार्य में व्यस्त हूँ... इसलिये रुचिकर कार्य धीमी गति लिये है.... अगला पाठ नवीनता लिये हो .. इसलिये जल्दबाजी करना अखरता है. आपकी ही तरह मैं भी इंतज़ार करता हूँ पाठ बनने की प्रक्रिया का.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय कैलाश जी, मेरे मन में एक विषय है शोध करने का ... "छंद-अलंकार की पुरानी तुला पर नयी कविता की तुलाई कितनी प्रासंगिक"... जब इस दिशा में बढ़ चलूँगा तो मुझे भी इस पाठ को उपयोगी कहने में संकोच नहीं होगा. आपका आभार जो हर बार मुझे आकर प्रोत्साहित करते हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ दिव्या जी, आपके नमन में अब मुझे 'न मन' के दर्शन होने लगे हैं... कविता सीधी-सपाट बयानी नहीं... इसलिये सरल मन वालों को समझने में कुछ कठिनाई होती ही है... दुविधा में रहने लगा हूँ .... कभी सोचता हूँ कि पाठशाला में कविताई कम सपाट बयानी अधिक करने लगूँ, तो कभी सोचता हूँ कि हर विधा का अपना महत्व होता है इसलिये 'अरण्य रोदन' जारी रखूँ. ......'सच बात है....प्रिय विद्यार्थियों से या प्रिय मित्रों से उस ही विधा में बात करनी चाहिए जिसमें वह सबसे अधिक समझने में सक्षम हो.".............. मुझे प्रतीत होता है कि आपने शिष्टतावश कहा कि 'बहुत कुछ सीख रहे हैं इस पाठशाला से' ... मेरा मानना है कि 'कविता वह विधा है जिसमें संकोचवश मन में रह गये अनकहे भाव भी व्यक्त हो जाते हैं. पर यह भी सच है कि यह अभिव्यक्ति सर्वग्राह्य साधारण माध्यम को नहीं चुनती, असाधारण को चुनती है.'

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. आशुतोष मिश्रा जी, मैं हमेशा सोचता रहता हूँ कि कैसे कठिन विषय सरल और सहजग्राह्य हो जाये... पाठशाला से निकलते ही आपके ब्लॉग पर भी आऊँगा.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय कुश्वंश जी, आपकी विनम्रता है जो आकर नासमझी का नाट्य करते हैं.
कक्षा के छात्रों ने चुप्पी लगा ली है या फिर रुचि घट गयी है इन बोर विषयों से... न जाने क्या पसंद आता है छात्र पाठकों को? .......... या तो रोजमर्रा के जीवन से जुड़े विषय (चटपटे ढंग से परसे हुए) पसंद आने लगे हैं, या फिर अपनी बौद्धिक क्षमता का तमाशा दिखाते हुए किसी की टांग-खिंचाई करना रास आने लगा है, ... या फिर हल्की-फुल्की रचना से मन बहलाने लगे हैं.... कुछ तो बात है!

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ झंझट जी, अमिट [Amit] जी थमा कर गये थे इस छंद विषयक चर्चा की बागडोर ... लेकिन जब से डोर थमाकर गये हैं... वे खुद ही मिट (गायब हो) गये हैं..
"जब शिक्षक को वैचारिक तकरार करने वाले छात्र नहीं मिलते अध्यापन का आनंद ही नहीं आता."

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय नवीन जी, इस समस्त जानकारी का मैं मात्र संकलनकर्ता और प्रस्तोता हूँ... यदा-कदा ही अपनी शब्दावली में ढालकर काव्यशास्त्रियों की बातें कहता हूँ और कभी-कबाह ही पूर्णतया मौलिक बातें रखता हूँ.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ चन्दन जी, अच्छे आलोचकों से अपेक्षा रहती है कि वे कमियों पर ध्यान दिलायें... जानता हूँ कि इनकी प्रशंसा काफी संतुलित होती है. विषयवस्तु की सराहना सीधे-सीधे नहीं करते ................ नारियल-पानी पीकर कहते हैं - "नारियल की गिरी काफी सफ़ेद होती है... एकदम दूध सी सफ़ेद."

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुज्ञ जी, आपके दूसरे प्रश्न के उत्तर का स्पष्टीकरण किये देता हूँ :
लोक २१ हैं, कैसे? ...
वास्तविक लोक तो सात ही हैं इस कारण सात मात्रिक वाले छंद का नाम 'लौकिक' रखा गया. किन्तु त्रय-लोक (तीन × सात) इक्कीस हो जाते हैं।
सात स्वर्गलोक हैं जिसे आप ऊर्ध्व लोक बता रहे हैं : भूः , भुवः , स्व: , मह: , जनः , तपः , सत्य
सात पाताल लोक हैं जिसे आपने अधोलोक बताया है : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल
सात मनुष्य लोक हैं : मनुष्य के रहने योग्य सात माहाद्वीप ... ???.......कोई भी उन महाद्वीपों के नाम बताकर हमारी सहायता करे।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

सुज्ञ जी, आपके चौथे प्रश्न को विस्तार नहीं दे पा रहा हूँ.. संभव तो कुछ संकेत करें... मनसा वाचा और कर्मणा से 'योग' को जोड़कर कैसे संख्या २८ तक पहुँचायी जा सकती है?

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

* यौगिक = 28 व्यंजन?
....
मैंने अभी तक इन २८ व्यंजनों के यौगिक होने के सूत्र नहीं जोड़े...
ये २८ व्यंजन ही क्यों यौगिक हैं.. अन्य क्यों नहीं ?
सभी जानते हैं कि व्यंजनों का उच्चारण स्वर के योग से हुआ करता है..
इन ध्वनियों के उच्चारण में कंठ, नासिका अवयवों के साथ जिह्वा और ओष्ठ भी सहयोग करते हैं.

इन २८ मूल व्यंजनों को द्विगुणित कर दिया जाये तो ५६ प्रकार के खाद्य व्यंजन बन जाया करते हैं. सबके सब रसों के मिश्रण (योग) का ही परिणाम होते हैं ... हुए न यौगिक व्यंजन.
२८ व्यंजनों में :
स्थान के आधार पर
— कवर्ग के प्रथम चार कंठ और जिह्वा के योग से निःसृत हैं. इस कारण कंठ्य कहलाते हैं.
— चवर्ग के प्रथम चार तालु और जिह्वा के योग से निःसृत ध्वनियाँ हैं. इस कारण तालव्य कहलाते हैं.
— टवर्ग के प्रथम चार मूर्धा और जिह्वा एक सहयोग से निःसृत ध्वनियाँ हैं. इस कारण मूर्धन्य कहलाते हैं.
— तवर्ग के प्रथम चार दाँत और जिह्वा की भागीदारी से बाहर आते हैं. इस कारण दन्त्य कहे जाते हैं.
[......... एक बात स्पष्ट होती है कि जिसका सबसे अधिक और सबके साथ सहयोग रहता है .. उसे क्रेडिट नहीं मिलता ... नामकरण अल्प सहयोगियों का होता है.
जैसे जीभ सबके साथ सहयोग करती है फिर भी उसका कहीं कोई नाम नहीं... ]
— पवर्ग के प्रथम चार दोनों ओठों के मिलने से उत्पन्न होते हैं. इस कारण ओष्ठ्य कहे जाते हैं.
— शेष व्यंजन भी मुख अवयवों के परस्पर योग से निःसृत होते हैं... किन्तु मूल व्यंजन (नासिक्य को छोड़कर) केवल २८ ही हैं.
..............
काफी माथापच्ची के बाद यही खोज कर पाया हूँ. यदि कोई अन्य सत्य है तो विद्वानों को आमंत्रण हैं... कृपया मार्गदर्शन करें.

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" ने कहा…

pratul ji..aapka blog hind ke utthan ke liye samarpit blogs me ek hai jo sahitya sarjako ko jo hindi sahitya bahut jyada sampark nahi bana paate hain per apni bhawnaon ke umadte ghumdate badalon se satat hi hindi sahitya ke utthan ki kamna apne jehan mein sangoye praytansheel hain..ke liye aapka blog bardaan hai..aapke blog per main ek chatra ki tarah juda hoon..aap jin bishayon per baat karte hain ..main purntaya anbhigya hoon..isliye ek chatra ki tarah padhkar nikla jaata hoon..shayad kabhi samay mujhe yah ijjat de ki main aapke is sarahniy utkrist prayas per koi pratikriya karne layak ho sakoon.. aap mere blog per aaye ..bade hi sargarbhit tarike se bibidh aayamon ko sparsh karte hue apni pratikriya roopi chintak beezo ko mere man mastisk me naye soch ke sath ankurit kiya aaur mera hausla afjayee kee iske liye main aapko hardik dhanyawad..aap mere blog per eun hi aate rahen..aisi meri akanksha hai...sadar naman ke sath

Smart Indian ने कहा…

इन विसतृत टिप्पणियों को भी बाद में पोस्ट में ही समाहित कर दें तो भविष्य के पाठकों के लिये प्रविष्टि और भी उपयोगी हो जायेगी और यदि कभी प्रकाशन आदि की सम्भावना बनी तो काम कुछ सरल हो जायेगा। फिर से आऊंगा। धन्यवाद!

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji.....

aap ye na samjhen ke balak kaksha me baithna chor diya......hum saath-saath hain.......

pranam

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आशुतोष जी, आपकी सराहना से गुणवत्ता बनाए रखने के लिये प्रेरणा मिलती है. और आपकी विनम्रता से मौलिक सृजन करने को बल मिलता है...

विलम्ब से उत्तर दिया... इसका कारण है आपके कहे को प्रतिदिन पढ़ा और पूर्णतया रस लिया... मुझे आगंतुक प्रियजनों के कहे दो शब्द भी इतना रसपूर्ण लगते हैं कि उन्हें कई बार पढ़ता हूँ... और उत्तर देने में जल्दबाजी नहीं करना चाहता... इसलिये भी विलम्ब हो जाता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ अनुराग जी, मुझे आपके सुझाव से यह भी पता चल गया कि पोस्ट में बातें जुड़कर अधिक उपयोगी होकर विस्तार ले लेती हैं... आपने प्रकाशन के समय मेरी सुविधा का ध्यान रखा.. इसके लिये भी आपने मार्गदर्शन किया... आभार.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रिय सञ्जय जी,

नमस्ते.

... आपकी अनुपस्थिति के ही कारण तो पाठशाला के बाहर नये प्रवेश के लिये विज्ञापन चिपकाया हूँ.



"प्रवेश खुला है"

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय राजेन्द्र जी,

आपकी शुभकामनाओं का प्रभाव ही है कि कुछ अच्छा होना शुरू हो गया है...जैसे ही शुभ आसार शुभ लक्ष्य पर बैठ जायेंगे ... सूचना सार्वजनिक करूँगा..

चरण वंदना करता हूँ... आशीर्वाद के लिये.

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

हे गुरु श्रेष्ट ! सादर अभिनन्दन!

आपकी ये पोस्ट मेरे काम आने वाली है! लिंक संभाल कर रख लिया!
आपको दुर्गोत्सव के शुभ अवसर पर शुभकानाएं!

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

आ. प्रतुल जी, अनुराग भाई [स्मार्ट इंडियन जी] की बात बहुत सही है| आप की यह पोस्ट भविष्य की थाती बन चुकी है| लिहाज़ा इसे एडिट कर देना बहुत ज़रूरी है|

कुमार राधारमण ने कहा…

जब अपनी बात पूरी अथवा पर्याप्त हो जाए,तमाम पोस्टों को पुस्तकाकार देने का प्रयास करें। साहित्य की बड़ी सेवा होगी।

Satish Saxena ने कहा…

इस दुष्कर कार्य के लिए आभार आपका ! बेहद लोक उपयोगी कार्य कर रहे हैं आप !
शुभकामनायें !

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

abhi ret-ke-mahal pe urte-bhai sugyaji yaad aaye.....aur phir
unke saath hi yaad aaye aap...

'naye pravesh' ka naya kaksha lagaya
jai....

pranam

Amit Sharma ने कहा…

पञ्च दिवसीय दीपोत्सव पर आप को हार्दिक शुभकामनाएं ! ईश्वर आपको और आपके कुटुंब को संपन्न व स्वस्थ रखें !
***************************************************

"आइये प्रदुषण मुक्त दिवाली मनाएं, पटाखे ना चलायें"

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

पाठशाला में सभी विद्वतजनों के आने का आभारी हूँ... मेरे प्रिय मुझे शिक्षक सा महत्व देते हैं यह बात मेरे लिये अविस्मरणीय है... कुछ घरेलू मसलों में उलझा था... शायद कुछ दिनों में साहित्यिक गतिविधियाँ सामान्य हो पायें... इसलिये तब तक केवल छुटपुट कविताई ....