तुम पर मेरी राखी उधार...
लूँगा जीवन के अंत समय,
होगा जब यादों को बुखार.
इस पल तो है संकोच मुझे,
दूँ क्या दूँ क्या अनमोल तुम्हें?
वर्षों से किया नेह संचय
मन में मेरे है बेशुमार...
तुम पर मेरी राखी उधार...
निर्मल तो है पर है चंचल
मन, याद करे हर बार तुम्हें
अब भी हैं नन्हें पाप निरे,
आवेगा जब उनमें सुधार
मैं आऊँगा लेने, उधार
राखी, तुम पर जो शेष रही.
भादों में आवेगी बयार...
तुम पर मेरी राखी उधार...
[ये है कोमल भावों का 'तुकांत' साँचा... गीति शैली में]
23 टिप्पणियां:
मन के भावों का सुंदर वर्णन.....!!
शुभकामनायें.
राखी को क्यों रखो उधार
यह तो है बस निर्मल धार
प्रेम नहीं दूजा कोई ऐसा
थामो जहाँ हो ऐसा प्यार।
मन को छूती बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति ....
निर्मल मन कैसे हो चंचल,
गुंथित है जब स्नेह के तार।
परवाह किसे रेशम धागों की
मन-बसा जब प्यार अपार।
संशय मन संकोच धरे क्यों,
है नेह संचित हृदय उपहार।
पाने की कहाँ बची है तृष्णा,
अब कहाँ रही राखी उधार।
बहुत सुन्दर भाव संजोये हैं।
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बहनों पर राखियाँ उधार नहीं होतीं ! बहन हर पल अपने भाई के लिए मंगल कामना करती है !
जब प्यार ही प्यार हो बेशुमार ,
तो क्या रह जाता --है उधार ?
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भाई अपने को कविता के नीति नियम तो पता नही पर बात आपकी दिल को छू गयी
हृदयस्पर्शी....
वाह प्रतुल जी उत्तम एवं उत्क्रस्ट काव्य कहूगा मैं . 'तुकांत सांचा गीत शैली' जानकारी के लिए धन्यवाद .
suprabhat guruji,
samyik parv par bhai-bahan ke prem
se gunthi hue sundar rachna ke liye
abhar.....
pranam.
बहुत सुन्दर सारगर्भित रचना , सुन्दर भावाभिव्यक्ति , आभार
रक्षाबंधन एवं स्वाधीनता दिवस के पावन पर्वों की हार्दिक मंगल कामनाएं.
@ अनुपमा जी,
कपटरहित 'मन के भाव' स्यात सुन्दर दिखते ही हैं. यदि ये बात सही है तो कुछ और मन के भाव अगली पोस्ट में शीघ्र रखने की हिम्मत करता हूँ.
@ आदरणीया अजित जी,
हमेशा एक भय बना रहता है कि कहीं किसी के प्रेम की 'मधुरता' समीप आकर 'लवणीय' न हो जाये!
"थामूँ सबका निर्मल प्यार
जैसे 'नदियाँ' पारावार.
'मधुर प्रेम' खारा हो जाये
इस डर से मैं रखूँ उधार."
@ आदरणीय कैलाश जी,
स्वयं भी इसे गुनगुनाता रहता हूँ... लेकिन मन के इस स्वर को कभी जोर से उच्चारा नहीं.
@ सुज्ञ जी,
आपने मन के भावों को श्रेष्ट 'तुकांत साँचे' में ढाला... मेरे मन के अस्फुट भावों को आपने श्रेष्ठतम उत्तर दिया...
आज महसूस हो रहा है कि 'परिवार' क्या होता है... छोटे बच्चों की तुतलाहट में बड़े परिवारी जन भी सुर-से-सुर मिलाने लगें तो आनंद की वर्षा ही होने लगती है.
प्रसन्नता के अश्रु मेरे नयनों में स्वतः आ गये....
@ वंदना जी,
परिवार तब ही खूबसूरत बनता है जब भरा-पूरा हो... आपकी उपस्थिति मुझे आह्लादित कर रही है.
@ आदरणीय कुश्वंश जी,
राष्ट्रीय-धारा के प्रवाह में आपने कोमल-धारा से भेंट की... तो याद आया कि कभी रक्षाबंधन का त्यौहार ..... राष्ट्रीय पर्व के रूप में ही मनाया जाता था... और आज केवल हमारे घर-परिवार तक सिमट कर रह गया है.
युद्ध में जाने से पूर्व इंद्रानी का इंद्र को 'रक्षा-सूत्र' बाँधना हो अथवा देश-रक्षा में जाने से पूर्व पति को पत्नी का 'संकल्प-सूत्र' बाँधना हो अथवा बहिन द्वारा स्व-शील-रक्षा के लिये भाई को 'राखी' बाँधना हो
जब-जब राष्ट्र पर संकट आया तब-तब मज़बूत युवक योद्धाओं को उनकी बहिनों ने, पत्नियों ने, प्रेयसियों ने, माताओं ने संकल्प दिलाया ... कभी उसे संकल्प-सूत्र नाम दिया, तो कभी उसे 'रक्षा-सूत्र' कहा तो कभी 'राखी' कहा.
बहरहाल आज यह 'राखी' पर्व एक संबंध विशेष तक सिमट कर रह गया है ... प्रायः विवाहित बहिन जो अपने परिवार से महीनों दूर रहती है इस दिन अपने बाल्यकाल के परिवार में लौटकर तनावरहित हो जाना चाहती है कुछ मधुर यादों के साथ.
सुंदर राखी की बयार
स्वीकार हो मेरा भी आभार।
बहनों पर राखियाँ उधार नहीं होतीं ! बहन हर पल अपने भाई के लिए मंगल कामना करती है !
@ सच कहा ब.हि.न!
आपकी 'राखी' हाथ पर बाँध ली है... मन बहुत प्रसन्न है.
@ सञ्जय प्रिय,
अब तो मेरी कलाई पर भी दिव्य राखी बँधी है... तमाम नमकीन पकवान खाकर भी मुख मीठा-मीठा सा है. सच है मन प्रसन्न तो सब मधुरम-मधुरम.
@ आदरणीय शुक्ला जी,
आपको भी स्वाधीनता दिवस की मंगल कामनाएँ.
मुझे लगता है... स्वाधीनता की रक्षा करने को प्रेम-वितरित करते रहने के कार्यक्रम करते रहने होंगे... देश के सभी दूरस्थ लोग परस्पर भाई-बहिन की तरह व्यवहार करेंगे तो इस एकजुटता से शैतान आत्माओं को भय लगेगा.... आज सत्ता की दुष्टता और धूर्तता से निपटने को हिम्मत भी मिलेगी....
@ प्रिय देवेन्द्र जी,
हाँ अब तो मेरे घर पर भी सुबह से वो बयार बह रही है जो बहिनों वाले घरों में बहा करती है... मुझे आकाशवाणी से वो स्वर सुनाई दिये जिनकी इच्छा बहुत समय से कान कर रहे थे.आपकी शुभकामनाएँ जब मेरे पास आयीं .. तब मैं मुग्धावस्था में गृह कार्यों में व्यस्त था... जैसे ही सुध आयी कि 'प्रतिउत्तर देने की शिष्टता निभाओ' .. तो देखा बहुतों के शुभ-सन्देश मोबाइल पर ई-मेल पर पटे पड़े हैं.
सामान्य भाषा में कहा गया एक खूबसूरत गीत ! बेहतरीन अभिव्यक्ति ....
शुभकामनायें आचार्य !
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