मंगलवार, 17 मई 2011

छंद चर्चा .............. पाठ ४ ........ प्रत्यय विचार

अब तक आपने 'प्रत्यय' का अर्थ suffix के रूप में ही जाना होगा और मैंने भी व्याकरण अध्ययन के समय उपसर्ग के साथ  इससे पहचान की थी. किन्तु जब छंद-ज्ञान करने को पुस्तकों के बीच घूमा तो इसके एकाधिक अर्थ-रूपों से परिचय हुआ. प्रत्यय अर्थात ज्ञान, बुद्धि, विश्वास, शपथ, प्रमाण, रूप-निश्चय. किन्तु छंदों के भेद और उनकी संख्याएँ जानने की रीति भी प्रत्यय कहलाती है. 

प्रत्यय के अन्य अर्थ हैं : सम्मति, निर्णय, चिह्न, आवश्यकता, व्याख्या, विचार, आचार, प्रसिद्धि, कारण, हेतु, छिद्र, सहायक, स्वाद. 

एक शब्द के इतने सारे अर्थ जानने के बाद मन में प्रश्न उठता है कि एक शब्द के विविध अर्थ कैसे संभव हैं? या, एक शब्द में से अनेक अर्थ कैसे निकल पड़ते हैं? 

प्रत्यय का लक्षण – प्रत्यय का अर्थ है ज्ञान. ज्ञान के साधन को भी प्रत्यय कह सकते हैं. इस दृष्टि से छंद-शास्त्र में प्रत्यय उस  विधा को कहेंगे जो छंद-भेद संख्या आदि का विस्तृत ज्ञान कराये. 

"जिन साधनों से छंदों के भेद, उनकी संख्या तथा उनके पृथक्-पृथक् रूप आदि का बोध हो, उन्हें प्रत्यय कहते हैं." 

छंद-विधा का विशद ज्ञान कराने वाले साधन अर्थात प्रत्यय नौ हैं : 

१] प्रस्तार, २] सूची, ३] नष्ट, ४] उद्दिष्ट, ५] पाताल, ६] मेरु, ७] खंड-मेरु, ८] पताका, और ९] मर्कटी. 

प्रस्तार — शब्दार्थ द्वारा ही प्रस्तार का अभिप्राय स्पष्ट होता है. [विस्तार अथवा फैलाव]

"जिस साधन से यह ज्ञात हो कि किसी जाति के किस छंद का कितनी संख्या तक और किन-किन रूपों में फैलाव हो सकता है, उसे 'प्रस्तार' कहते हैं." 

प्रस्तार का आधार अंकगणित की वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मूल और निर्दिष्ट संख्याओं के आकलन के द्वारा उनके संभाव्य समाहारों का ज्ञान होता है. छंदों का मूल आधार 'वर्ण' एवं 'मात्रा' है, तदनुसार प्रस्तार के दो भेद हैं – 
[१] वर्ण प्रस्तार और [२] मात्रा प्रस्तार 

[१] वर्ण प्रस्तार : 
जिस साधन के द्वारा वार्णिक छंदों की किसी जाति के भेदों का स्वरुप ज्ञात किया जाये, वह वर्ण-प्रस्तार कहलाता है.
उदाहरण : 
(क़) दो वर्णों की (अत्युक्ता) जाति का प्रस्तार — 
संख्या ......................... रूप 
.. 1 .............................. S S
.. 2 .............................. I S
.. 3 .............................. S I
.. 4 .............................. I I                                        
इस प्रकार दो वर्णों की जाति में कुल चार छंद बन सकते हैं. 

पहला छंद : 
[ S S ]
आओ 
बैठो 
खाओ 
लेटो 
सोना 
चाहो 
सो लो 
सेठो! 

दूसरा छंद : 
[ I S ] 
जु ड़ा
हुआ 
गवाँ
दिया.... ..............मतलब  पूँजी 
जु ड़ा 
हुआ 
विदा 
किया. ................ मतलब सम्बन्ध.
जु ड़ा 
हुआ
तु ड़ा 
लिया. .................. मतलब बँटवारा पैत्रिक संपत्ति का. 

जु ड़ा
हुआ.
जु ड़ा 
दिखा. ................ मतलब जो भी एक बार टूट कर जुड़ता है तो उसमें गाँठ पड़ी दिखायी देती ही है. 

तीसरा छंद : 
[ S I ]
राम 
नाम 
सत्य 
होत. 
सत्य  
नाम 
गत्य 
होत. 

राम 
नाम 
बीज 
बोत.
राम 
नाम 
खेत 
जोत.

या फिर 
दोस्त 
दोस्त 
ना र 
हा पि 
यार
प्यार 
ना र 
हा.......... ये पंक्ति भी अतियुक्ता जाति के छंद की ध्वनि लिए है.  

चौथा छंद : 
[ I I ]
तन
मन 
धन 
सब 
ऋण 
कर. 

तिल 
भर 
सुख 
दुःख  
तृण
कर. 

... इस अजीबोगरीब कविताई से मैंने केवल यह बताना चाहा है कि छंद केवल कुछ शब्दों का समुच्चय मात्र नहीं है वह किसी इकलौते शब्द में भी निहित हो सकता है. बस उस शब्द में यदि कहने वाला आनंद प्रविष्ट कर दे तो वह छंद हो जाता है. एक सरल उदाहरण से कहता हूँ : 
कभी-कभी कवि या गीतकार कोई रचना करता है... पढ़ने में बिलकुल नीरस होती है.. किन्तु संगीत की समझ वाला गायक उसे गाता है तो वह गेय हो  जाता है. लता जी ने ऎसी कई रचनाओं को गाकर गीत की श्रेणी में ला दिया जो पढ़ने पर नीरसता लिये थे. 

कुछ रचनाओं का द्रुतम पाठ उन्हें गेयता दे देता है तो कुछ रचनाओं का विलंबित/ अति विलंबित पाठ उन्हें मधुरम गीत की श्रेणी में ला देता है. और कुछ का पाठ वाकयंत्र के विविध आयामी प्रयोग से उत्कृष्ट हो जाता है. 
मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि छंद की सभी जातियों का परिचय अति साधारण तरीके से करा सकूँ. इस बार प्रत्यय के केवल वर्ण-प्रस्तार में अत्युक्ति जाति के छंद को बताने की कोशिश की है.


प्रश्न : कोई विषय या कोई रचना कठिन क्यों लगती है? कब तक लगती है? 

17 टिप्‍पणियां:

सुज्ञ ने कहा…

प्रश्न : कोई विषय या कोई रचना कठिन क्यों लगती है? कब तक लगती है?

गुरूजी,

जब रचना में किलिष्ट शब्दों का अत्यधिक प्रयोग होता है तो रचना कठिन लगती है।

वह तब तक कठिन लगती है जब तक लेखक स्वयं भावार्थ प्रस्तुत नहीं कर देते। :)

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

प्रश्न : कोई विषय या कोई रचना कठिन क्यों लगती है? कब तक लगती है?
सुज्ञ जी से सहमत। किलष्‍ट शब्‍दों के कारण भावार्थ समझ नहीं आता। तथा पहली कक्षा के विद्यार्थी को दसवीं का ज्ञान देने पर कठिन लगता है।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

जब तक विषय या रचना में प्रयुक्त शब्दों का ज्ञान न हो, वह कठिन लगती है।

कुमार राधारमण ने कहा…

बहुत श्रमसाध्य और मौलिक विश्लेषण। व्याकरण में इतने अपवादों का उल्लेख रहता है,मगर भाई लोग प्रत्यय के बारे में एकदम निश्चिन्त रहे हैं।

ZEAL ने कहा…

कोई भी विषय कठिन तब तक लगता है , जब तक हम उसमें रुचि नहीं पैदा कर लेते। एक बार interest develope हो जाए , तो कुछ भी मुश्किल नहीं होता । बचपन में मुझे बहुत से विषयों में , बातों में , खेल में , नया कुछ करने का और सीखने का शौक था। लेकिन बुढापे की तरफ अग्रसर होते हुए इस मन-मस्तिष्क की रुचियाँ अब बहुत सीमित हो गयी हैं, जिसके कारण दिमाग पर जोर डालने की इच्छा नहीं होती । यही अनिच्छा विषय को जटिल बना देती है कभी कभी।

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

path...pathak...aur pathshala, sab kuch kavyamai hoti ja rahi hai....

prashn ke uttar prathm tip me diya gaya hai....se sahmati hai........

pranam.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

प्रतुल जी ,

पिछले पाठ पढ़े थे मैंने ... पर बस पढ़े थे ..समझना बाकी था ..इस लिए कोई टिप्पणी नहीं की थी ...

समयाभाव के चलते आपकी पाठशाला से बंक मार दिया था :) हर विद्यार्थी कभी न कभी ये काम करता ही है ... लेकिन अपने हिट को भी नहीं भूलता ..तो फिर कक्षा में तो आना ही था ..

प्रत्यय के विषय में विस्तृत और नयी जानकारी मिली ..इस जानकारी से अभी तक वंचित थी ...

वर्ण प्रस्तार अच्छे से समझ आ गया है ..

प्रश्न : कोई विषय या कोई रचना कठिन क्यों लगती है? कब तक लगती है?

कोई विषय या रचना अपनी क्लिष्टता की वजह से कठिन लगती है ..और तब तक लगती है जब तक वो समझ नहीं आ जाती ..

गिरधारी खंकरियाल ने कहा…

१.पाठ्यक्रम में निरंतर बदलाव से विद्यार्थी को परेशानी होती है कभी अलंकार तो कभी छंद !

२ छंद का पाठ्यक्रम भी भारी बना दिया है हमारी तो कमर झुक जाती है पड़ते, पढ़ते !

३. विषय जब तक रुचिकर न बन जाये, विद्यार्थी के स्तर का न हो, पाठ्यक्रम से बाहर का हो, तब तक तो कठिन ही कठिन यानि कालाअक्षर भैंस बराबर .

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुज्ञ जी, कल मैंने बस में बस-पास बनवाने के लिये कंडक्टर को अपना नाम बताया... प्रतुल... बराबर का एक व्यक्ति बोला .. अरे भई कोई छोटा-सा नाम रख लेते आसान-सा.

मैंने कहा भाईसाहब इससे भी कुछ छोटा होगा क्या? .......... हम इतना भी सरल न हो जाएँ कि भाषा ही समाप्त हो जाये... कहकर मैं अपनी सीटपर बैठ गया... और चिंतन करने लगा...

लोग आखिर चाहते क्या हैं? कितना सरल होना चाहते हैं? क्या उनका सरल होने की ओर अग्रसर होना आलस्य और प्रमादी होना तो नहीं? .. हम शरीर के श्रम में शोर्टकर्ट ढूँढते हैं... हम भाषा की क्लिष्टता से घबराकर उसका अपभ्रंश करते चलते हैं.... कितनी उचित है यह वृत्ति? ... जबकि होना यह चाहिए कि जो कठिन हो उसे सुलझा लिया जाये... मैं भी एक बार डॉ. अरविन्द मिश्रा जी के ब्लॉग के नाम उच्चारण को लेकर जबड़े के व्यायाम से परेशान हो गया था... किन्तु उन्होंने मुझे महसूस कराया कि सरलता और क्लिष्टता मन की रुचि के वशीभूत हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीया अजित जी,

सामान्यतः यह बात सही है कि ... जब किसी बात का भावार्थ समझ ही ना आये तो ... 'बात' जिन वाक्यों से निर्मित होती हैं उसमें निहित शब्द दोषी करार दे दिये जाते हैं...

लेकिन कभी-कभी रुचि यदि अमुक विषय में होती है..तो उसमें निहित जटिलता अधिक समय तक मुँह ढककर नहीं रह पाती. जिज्ञासु को अपने मुख-अर्थ का दर्शन शीघ्र करा देती है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ देवेन्द्र जी,
आप भी सही कहते हैं... एक बात कहना चाहता हूँ... शब्दों का प्रयोगकर्ता भी जिन क्लिष्ट शब्दों का अपनी रचना में प्रयोग कर रहा है उसको को भी वे शब्द तब तक अपने अर्थ से दूर रखते हैं जब तक वह उनका प्रयोग नहीं करने लगता. .. यदि हमारी बात लम्बे वाक्यों की हो जाती है तब भी अर्थ कहीं खो सा जाता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ कुमार राधारमण जी,
छंद सम्बन्धी समग्र सामग्री सनातन है, मौलिक नहीं है .. किन्तु प्रस्तुतीकरण विश्लेषण अवश्य मौलिक है... यथासंभव उदाहरण सरल रखने की चाह भी मौलिकता लिये है.
..... इस पाठशाला में शिष्य उपसर्ग हैं... तो गणमान्य विद्वतजन प्रत्यय हैं... शिष्य पाठ शुरू होते ही उपस्थिति की दस्तक देते हैं, तो गणमान्य लोग प्रत्यय की भाँति बाद में दर्शन देते हैं...

जब भी हमारी 'हिंदी साहित्य कला प्रतिष्ठान' संस्था कोई साहित्यिक कार्यक्रम करवाती है तब हम तो उसमें उपसर्ग की भाँति पहले से जुटे रहते हैं... लेकिन मान्य अतिथिगण प्रत्यय की भाँति तय समय के बाद ही अकसर आते हैं.

मुख्यतः मैं यही कहना चाहता हूँ कि जब कोई बात क्लिष्ट लगती हो तो उसका मानवीकरण करके उसे सरलता से समझा जा सकता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ दिव्या जी,
आपने मेरे मुँह की बात छीन ली. सच है ... अनिच्छा ही विषय को जटिल बना देती है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुप्रभात सञ्जय जी,

संतुलित वक्ता का अच्छा परिचय देते हैं आप.

"यदि 'हाँ और ना' 'सहमती और असहमती' से काम चल जाता हो तो क्यों कक्षा में विद्वता का हल्ला मचाया जाये" :) - क्या इसी सूत्र को आपने आत्मसात तो नहीं क्या हुआ?

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीया संगीता जी,

जिस हेतु के लिये कार्य किया गया हो, वह सिद्ध ही माना जाता है जब उसका मुख्य उद्देश्य पूरा होता हो... इस पाठशाला का प्रथम और मुख्य उद्देश्य ही यही है कि कुछ बतरस का आनंद लिया जाये और उसमें भाषा और साहित्यिक गुणों की खोज की जाये, उसका रसपान किया जाये. आपकी उपस्थिति से कक्षा गरिमायुक्त हो जाती है. आपने सवाल का जवाब कुछ इस तरह दिया कि मुझे एक लघु कथा में 'पगडंडी' और 'कच्ची सड़क' का परस्पर संवाद याद आ गया :

एक गाँव में एक पगडंडी का जन्म हुआ.

पगडंडी बचपन से ही जिज्ञासु प्रवृत्ति की थी. वह रोज़ आते-जाते लोगों को अपने ऊपर से निकलते देखती थी. ...

एक बार पगडंडी बेटी ने गाँव की 'कच्ची सड़क' चाची से पूछा कि - "चाची, चाची ! लोग चलते हुए अपने हाथ क्यों हिलाते हैं?"

तब कच्ची सड़क अपने जीवन में पहली बार प्रश्न सुनकर चौंक गयी और बोली - "बेटी, हमका का मालुम... वे अपना-अपना हाथ हिलाते हैं तो हाथ हिलते होंगे" फिर भी शायद पंचायत को जाता रास्ता सही उत्तर बता पाये. पूछती हूँ जाकर."

पंचायती रास्ता कच्ची सड़क की फटकार लगाता है, "बेटी से कहो कि वह फालतू की बातों में दिमाग न लगाए." फिर भी शहरी रास्ते से उत्तर जानने की कोशिश करता है.. शहरी रास्ता राष्ट्रीय राजमार्गों से पूछता है.. राष्ट्रीय राजमार्ग संसद मार्ग से पूछते हैं. लेकिन सभी दुखी होते हैं ... इस तरह के प्रश्न को सुनकर. संसद मार्ग सभी राष्ट्रीय राजमार्गों से इस प्रश्न का उत्तर पता करने का आदेश देता है... कथा के अंत में एक राष्ट्रीय राजमार्ग .. पाठशाला को जाते एक मार्ग से पूछता है कि 'लोग चलते हुए हाथ क्यों हिलाते हैं?" तब वह उत्तर दे देता है - "............" उत्तर सुनकर राजमार्ग बड़ी तेज़ी से जाकर संसद मार्ग को सटीक उत्तर बताता है. उत्तर सुनकर संसद मार्ग बहुत खुश होता है और कहता है "अच्छा sss ....जो विद्यालय जाता, वही बता पाता"

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ गिरधारी जी,
विद्यार्थी अपने विद्यार्थी जीवन में ही यदि आने वाली परेशानियों का सामना करने का अभ्यस्त हो जाये तो जीवन में आने वाली और भी जटिल समस्याओं में अपना धीरज नहीं गँवाएगा, उनका डटकर मुकाबला करेगा.. वर्तमान में टीवी पर एक धारावाहिक आ रहा है.. 'चन्द्रगुप्त मौर्य' .....उसमें भी चाणक्य अपने शिष्य को एक मज़बूत योद्धा और एक कुशल प्रशासक बनाने के लिये उसकी कई तरह से परीक्षा लेता है... किन्तु उसके मुक़ाबिल यहाँ तो केवल शब्दों की जटिलता से ही वास्ता पड़ रहा है... इस पाठशाला में अभी केवल कला-विशेष 'काव्य' के माध्यम से अपनी 'रस, छंद और अलंकार' जैसी पुरानी विरासत के प्रति मोह पैदा करने की कोशिश की जा रही है. वर्तमान में विद्यार्थियों की मनोरंजन की सामग्री बदलती जा रही है. उसे उचित या अनुचित बताने की बजाय यदि हम सभी भाषा और काव्य में सुख लेने लगे तो रुचियाँ विकृति को प्राप्त नहीं होने पायेंगी.

स्तर के पैमाने का निर्धारण, पाठ्यक्रम के अन्दर-बाहर की धारणा, सरल और कठिन की मानसिकता में बदलाव आ ही जायेगा.. जब विद्यार्थी काले अक्षरों को देखकर उनका दोहन करने को उत्सुक होगा. ... यदि उसकी दोहन की इच्छा एक बार बन गयी तो उसे हर काला अक्षर भैंस भी लगने लगे तो कोई बुरी बात नहीं.

Unknown ने कहा…

प्रतुल जी अद्भुत है आपकी पाठशाला, और मै इससे वंचित क्यों रहा , इस पाठशाला में देर से क्यों प्रवेश लिया, शायद अज्ञानतावश या फिर समयाभाववश, आपकी जानकारी का कायल, आप भी इसे हमारी आनेवाली पोस्टों में महसूस करेंगे , साधुवाद सहित धन्यवाद

सरलता और क्लिष्टता मन की बात हैं.