शनिवार, 14 मई 2011

सुख की बेटी

दसन-वसन फैला करके 
शयन कर रही थी लेटी. 
शरमा बैठी जब वसन हटे
तन-दंत दिखे कटि की पेटी. 

कर घेर छिपाने को आईं 
दिहली पर खड़ी हुईं चेटी. 
नवसू कहलायेगी जल्दी
होरिल जनकर सुख की बेटी. 

रतनार कपोल भये उसके 
हेरम्ब-कथन निकला कपटी. 
हैं दीप-नयन जलते उसके
रीझेगा फिर से आस बँधी. 
________________
दसन-वसन — दाँतों के कपड़े 
तन-दंत — शरीर रूपी दाँत 
कटि की पेटी — दाँतों की कमर की पेटी अर्थात मसूडे. 
दिहली —  दहलीज
दिहली पर खड़ी हुईं चेटी से तात्पर्य ... मुख पर खड़ी हुई दासियाँ अर्थात मुस्कुराने से कपोलों पर पड़ी रेखाएँ.
नवसू — नवप्रसूता, 'हँसने वाली' से तात्पर्य  
होरिल — नवजात शिशु, 'हँसी' से तात्पर्य 
सुख की बेटी — मुस्कान
हेरम्ब-कथन — धीरोद्धत नायक की भाँति धोखेबाजी, चपलता और लम्पटता गुणों से युक्त कथन [जो मुस्कान को गर्भवती कर छिपकर भाग गया]
छंद-चर्चा के चौथे पाठ की तैयारी में हूँ.... 

32 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

इतनी सुन्दर अलंकारिक रचना पहली बार पढ़ी । मुस्कान का इतना सुना सुन्दर चित्रण मन में एक लम्बे अरसे तक टिका रहेगा।

SANDEEP PANWAR ने कहा…

अगर आप इन शब्दों के अर्थ, साथ में ना दो तो, फ़िर तो आ लिये मारी समझ में,
शुक्र है अर्थ साथ है,

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

अर्थ से ही भाव समझ सका। अद्भुत वर्णन। ..आभार।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

प्रतुल जी

नमन ! आपको और आपकी अद्भुत लेखनी को …
बहुत दिनों बाद आया हूं तो पिछली भी कई प्रविष्टियां पढ़ीं … अधिक कहने की स्थिति नहीं …

पंक्ति-पंक्ति पर वाह वाह वाह और वाह

हृदय से साधुवाद !

शुभकामनाओं सहित
राजेन्द्र स्वर्णकार

मनोज कुमार ने कहा…

अद्भुत लेखन!

Avinash Chandra ने कहा…

अहा! बहुत ही सुन्दर।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बहुत सुंदर काव्य रचना ..... बेहतरीन शाब्दिक अलंकरण

Unknown ने कहा…

गुरू जी,

इस अद्भुत रचना के लिए ढेरों बधाई!!

सुख की बेटी का सौन्दर्य वर्णन?? विस्मयकारी है!!

गजब का प्रतिकात्मक शृंगार!!

न्योच्छावर गुरू!!

सुज्ञ

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

काव्य-रसिको!
इस पूरी कविता में एक अद्भुत अलंकार छिपा है, जिसे पढ़ने के साथ-साथ आँखों से ही ढूँढा जा सकता है।
क्या आप उसे ढूँढ सकते हैं?
संकेत :
— वह अलंकार किसी एक पंक्ति में न होकर सभी पंक्तियों में निहित है।
— वह न तो शब्द अलंकार कोटि का है और न ही अर्थ अलंकार कोटि का है और न उभय अलंकार ही है।
— वह अलंकार आचार्य रुद्रट के 'चित्र अलंकार' से प्रभावित है।

याद रहे .......... उत्तर खोजने वाली आँखें 'कविता का विषय' बनेंगी.

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

सर जी........
सादर अभिवादन!


रचना पर नज़र पढ़ते ही मेरी 'आह' निकल गई कि कैसे समझूं ? रचना के अंत में देखा तो ज्ञात हुआ कि कविता लिखते वक्त आपको मेरे जैसो का भी ख़याल था तभी तो आपने कठिन शब्दों के अर्थ भी लिख दिए.
कविता बेहद अच्छी लगी. इसके लिए आपको आभार.

"कपोल-लली" वाली पोस्ट पर मेरे कमेन्ट के सन्दर्भ में आपने एक बेहद रोचक प्रसंग का जिक्र विस्तार से किया था. वो भी पढ़ लिया. पढ़कर ख़ुशी हुई और काफी कुछ सीखने को भी मिला. उस प्रसंग के लिए भी आपका आभार.

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

अलंकार!
यहां तो मानव के अंगों, हाव-भाव का मानवीकरण हुआ है!.. शेष आप ही बतायें।

सुज्ञ ने कहा…

गुरू जी,

पूरी कविता पर सुक्षम दृष्टिपात करने पर शब्दो के स्पेस से निर्मित एक रेखाचित्र सा नजर आता है, बालिका का रेखाचितर। शायद यही हो आपका विशेष अलंकार, यही हो आपकी 'सुख की बेटी' मुस्कान।

सुज्ञ ने कहा…

सुधार…
रेखाचितर = रेखचित्र

Asha Joglekar ने कहा…

Bapre !itani kathin kawita, shabdarth na hote to sochate hee rah jate .... Par aap ki kalpana shakti ko pranam .

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

प्रतुल जी,
प्रश्न पूछकर दुविधा में डाल दिया है।
अभी रसास्वादन करने दें, जवाब फ़िर बतायेंगे:)

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सञ्जय जी,
प्रश्न तो पाठों को अधिक पठनीय बना देते हैं इसलिये पूछते हैं. अपने मन की बात कहता हूँ -
जब कोई लेख या अध्याय मुझे नीरस लगता है तब मैं उसमें उन प्रश्नों की तलाश करता हूँ जिनका हल पाठ्य सामग्री में निहित है. ऐसा करके आसानी से उस पाठ को समझ पाता हूँ.

जैसे.. आपकी प्रायः आदत है कि आप ब्लोगरों की पोस्टों को अंत से पढ़ते हैं. आपकी इस आदत में आपकी एक मनोवृत्ति के दर्शन होते हैं. अधिकतर लेख के अंत में लेख का उपसंहार होता है.
... आप विषय का सार पाकर समय की बचत चाहते हैं. और उस समय की बचत में कुछ अन्य सारगर्भित तत्व खोज लेना चाहते हैं...

... रसास्वादन करते रहें .... जवाब का इंतज़ार परीक्षा परिणाम के बाद नहीं किया जाता.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीया आशा जी,
जहाँ शब्द होते हैं वहाँ अर्थ उनके पीछे ही होते हैं. यदि उनके अर्थ सुपरिचित न हों तो वे अनजान लगते हैं. इसलिये हर शब्द को उसके अर्थ के बराबर में लाकर परिचित कराना पड़ता ही है. नहीं तो काव्य-कर्म के निरर्थक होने का भय बना रहता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुज्ञ जी,
जब आपने ये उत्तर दिया तो मैं खुद ही उस कविता में शब्दों के रिक्त स्थानों में बालिका का रेखाचित्र ढूँढने लगा काफी मशक्कत हो गयी लेकिन मुझे बालिका की छवि नज़र नहीं आयी ... आपने ऐसा उत्तर देकर अवश्य सुख की बेटी 'मुस्कान' को अपने अधरों पर स्थान दिया होगा.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ देवन्द्र जी,
शब्द और अर्थ अलंकारों को तो आप पहचानते ही हैं... मानवीकरण अलंकार है ही. किन्तु आचार्य रुद्रट ने जिस चित्र अलंकार की स्थापना की थी वे वर्तमान में अप्रचलित है... चित्र अलंकार में हम तरह-तरह के चित्र बनते देखते हैं... आने वाले पाठों में (छंद-चर्चा के उपरान्त) कविता के द्वारा चित्रों को कैसे बनाया जाता है इसका अभ्यास करेंगे.

संक्षेप में कहता हूँ...

चित्र अलंकार उसे कहते हैं जहाँ तरह-तरह की वस्तुओं के रूप अपने चिह्न के साथ इस प्रकार रचे जाते हैं कि इनमें इनका वर्ण-क्रम [रचना-विन्यास] एक विशेष व्यवस्था से करने पर चक्र, खड्ग, पद्म, दंड, कवच, ढाल आदि निर्मित हो जाते हैं. इसका सम्पूर्ण वर्णन भविष्य की कक्षाओं में करने का सोचा है... आपके पाठशाला में आते रहने से साहित्यिक चर्चा का अच्छा वातावरण बनेगा. इसलिये अपने सुभीते से अवश्य इस पाठशाला में आते रहें.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ मित्र विरेन्द्र जी, नमस्ते.
आपसे मन की एक बात कहता हूँ. "आपकी मित्रता जिसे मिलेगी वह स्वयं को भाग्यशाली मानता होगा." जैसे कि मैं...जबरन आपकी आभासी मित्रता को लेकर जीता हूँ. मित्र, समझने का स्तर सभी का लगभग एक-सा ही होता है. अंतर होता भी है तो उन्नीस-बीस का, अधिक नहीं. हम तो शब्दकोश लिये बैठे हैं, फिर भी सुनने वाले लोग समझते हैं कि बड़े प्रतिभाशाली हैं.

कविता करना तो मेरी कमज़ोरी है. लोगों का भ्रम ये है कि लोगों ने मेरी कमज़ोरी को कला समझ लिया है. मैं शुरू से अपने मन में छिपे सौन्दर्यबोध को कविता में छिपाने की कोशिश करता रहा और आज़ उसे प्रकट करने की हिम्मत भी इसलिये कर पाता हूँ कि पाठक और श्रोता साक्षात नहीं, बस एक ज़रिया है उनसे वार्तालाप करने का... 'इंटरनेट'.. मेरे चेहरे के भाव यहाँ लक्षित नहीं होते.. मैं यहाँ अपनी लज्जा को सरलता से मोड़-तोड़ लेता हूँ, मतलब अपनी आभासी छवि को बिगड़ने नहीं देता...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. मोनिका जी,
आप जिसकी प्रशंसा करते हैं ... वह तो आपके मुखमंडल पर सर्वदा विद्यमान रहती है.

स्माइलिंग फेस पाना गोड-गिफ्ट होता है.

'मुस्कान' एक ऐसा अलंकार है जो सभी चेहरों पर सुन्दर लगता है... बस.. 'मुस्कान' कुटिल नहीं होनी चाहिए... जो किसी का नुकसान करके अधरों पर आ बैठे.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ मेरे प्रिय कवि अविनाश जी, चरण-वंदन.

आप जैसी प्रतिभा पाना जन्म-जन्मान्तर के पुण्यों का फ़ल होता है. फिर भी आपकी कविताओं में एक तलाश रहती है जो बामुश्किल सफल होती है... छिद्रान्वेषी का स्वभाव छोड़ने का सोचता हूँ लेकिन इससे मुझे लाभ ये होता है कि मैं सर्वश्रेष्ठ को पाने में समर्थ हो पाता हूँ. वर्तमान में ब्लॉग जगत की दूसरी पीढी में यदि किसी को प्रांजल भाषा और भाव की उच्चावस्था का सवर्श्रेष्ठ स्थान दिया जा सकता है तो वे आप ही हैं... जब अपनी तुलना आपसे करता हूँ तो एक वाक्य निःसंकोच कह सकता हूँ :

तुम पर शब्द का भण्डार...
मेरी एक शब्द झंकार...
शब्द गढ़ना तुक मिलाना..
मम काव्य का व्यापार..

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ मनोज जी,
कुछ लोग प्रेरणा का कार्य करते हैं. मैं चुपचाप प्रेरणा लेने वालों में से हूँ. अपने प्रेरकों को अब स्पष्ट नहीं करता... कृतघ्न जो हूँ.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय राजेन्द्र जी, चरण-वंदन.

हो सरल हृदय...इस कारण ही... अपनी इस सरलता में आप सब कुछ भुला देते हैं... अपनी वरिष्ठता और मेरी कनिष्ठता भी..

आपकी हर वाह में मुझे आशीर्वाद का वर्षण होता दिखायी दिया... भीग गया हूँ... जाट देवता से तौलिया लेने जाता हूँ.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ संदीप जी,
आपका परिचय मुझे मिल गया है... आप पक्के घुमक्कड़ हैं इसलिये घूमते हुए आपका इधर आना हुआ है... चलिए शुक्र है कि कोई देवता हमारी पाठशाला में तो आया. आभार.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ दिव्या जी,
कुछ रचनाएँ कालजयी होती हैं तो कुछ लोगों की स्मृतियाँ भी कालजयी होती हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ काव्य रसिको!
इस कविता में एक वाक्य लम्बवत लिखा है : "दश शतक दिन हो रहे हैं री" .

किसी से परिचय हुए जब एक हजार दिन व्यतीत हो गये तब मैंने इस काव्य-सन्देश को प्रेषित किया था.

इस कविता में 'दंड' चित्र अलंकार है ... इस 'दंड' के पार्श्व में कूट-कथन छिपा है. यदि आप ध्यान से प्रत्येक पंक्ति का पहला-पहला वर्ण जोड़कर पड़ेंगे तो आपको इस सन्देश के दर्शन होंगे.

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

gyan-kuti me 3 din se bhraman kar raha hoon.....lekin kamjor balak
ko koi jawaw nahi soojh raha....
kaksha me baithne ka poorv-vat..
antim pankti aarakshit ho.......

pranam.

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

इतनी सुंदर कक्षा में आना जहां प्रश्नों के इतने अच्छे उत्तर मिलते हों, सौभाग्य है।

गिरधारी खंकरियाल ने कहा…

चित्रालंकार से अनभिज्ञ है कही नहीं पढ़ा किन्तु रुचिकर लगा .

सुज्ञ ने कहा…

गुरूजी,

आपने चित्रालंकार कहा,और देखने से पता चलने की बात कि तो उपर-नीचे दाए बाएं से देखा कुछ बालिका सी झलक दिखी तो वही तुक्का मार दिया।
हां वह सुख की बेटी मुस्कान ही थी, व्यंग्य की बेटी कुटिलता नहीं। ;)

कुमार राधारमण ने कहा…

गाने का मन करता है।