अश्रुओं से जब मैं दिन-रात
स्वयं को करुणामय संगीत
सुनाया करता अब वो बात
नहीं वैसी होती परतीत.
आपका है मुझ पर अधिकार
किया क्योंकि तुमने उपकार.
आपका मिलना बारंबार
कल्पना में आ देना प्यार.
अहा! तुम ही हो मेरे मीत
नहीं भूलूँगा तेरी प्रीत
मृतमय है मेरा तन-साज
अमरता का हो तुम संगीत.
वियोगी होगा पहला कवि/ आह से उपजा होगा गान / निकलकर आँखों से चुपचाप/ बही होगी कविता अनजान.
काव्य का एक प्रकार ऐसा है जो अश्रुवत बहता नहीं. हृत-घावों पर मरहम या भस्म बनकर लेपित हो जाता है. जो वियोगी हृदयों के लिये औषधि का कार्य करता है. वासना-विकारों का संक्रमण होने से रोकता है.
एक प्रसिद्ध उक्ति है 'विरह अग्नि में जल गये मन के मैल-विकार'.
"अश्रु-भस्म" — विरह में जब अभीष्ट की कामना भी समाप्त हो जाये तब कोमलतम भावों की समस्त पीड़ा 'अश्रु-भस्म' में रूपांतरित हो जाती है.
किसी एक प्रश्न का उत्तर दें, दोनों के अंक समान हैं.
- अश्रुपात करने वाले व्यक्ति ह्रदय से कमज़ोर क्यों माने जाते हैं? इस बात में कितनी सच्चाई है? अथवा
- जघन्य और वीभत्स दृश्यों [वीडिओ क्लिप्स] के पूर्व दी हुई चेतावनी "कमज़ोर दिल वाले इसे न देखें" में कितनी सच्चाई है ? क्या क्रूरतम दृश्यों को देख सकने वाले ह्रदय ताकतवर होते हैं?
19 टिप्पणियां:
सुन्दर शब्दों की बेहतरीन शैली ।
भावाव्यक्ति का अनूठा अन्दाज ।
बेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
"अमरता का हो तुम संगीत"
अमरता का यह संगीत शाश्वत है
सुन्दर भावमयी रचना
ह्रदय तंत्री पर आज अनोखी तान छेड़ी
यूँ ही तो ना कटा करती स्नेह की बेडी
निज जन काजे साज संजोये पग पग
कण कण में सिक्त करें आशीष ये दृग
चाहे कौन प्रियजन अपने को भूलजाना
समय अमित प्रबल सिखलाता भूलजाना
प्रश्न पढ़ कर ही परीक्षा वाली घबराहट होने लगी.
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अमित जी,
बेशक हृत की वीणा पर स्वर निकल रहे हैं आले.
सचमुच सच्चा स्नेह मिले तो बंधन सभी संभाले.
कैसे छोडूँ राह, बजाऊँ क्यों ना संचित बाजे.
आत्ममुग्ध हो रूठ गया जो उसपर सबकुछ साजे.
समय बड़ा बलवान सिखा देता विस्मृत कर पाना.
फिर भी इच्छा सदा रही है दर्शन-प्राशन नाना.
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राहुल जी,
प्रश्न पढ़कर घबराने का नाट्य न करें. आपका आशीर्वाद बना रहे.
केवल यही जानने की इच्छा थी कि ह्रदय की मजबूती का आधार क्या घिनौने और क्रूरतम दृश्यों का देख पाना है?
उत्तर साक्ष्यों के साथ देने का सोचा था लेकिन कोई उत्तर देने का साहस ही नहीं कर रहा. इस विषय पर कोई बातचीत करना ही नहीं चाहता. आप भी इसे बाल-प्रश्न जान उपेक्षा कर रहे हैं. चलिए मैं इस तरह के प्रश्न करना ही छोड़ दूँगा. बालकों की भाँति केवल छिपा-छिपी का खेल ही खेलूँगा.
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राजीव जी और वर्मा जी,
आपने प्रशंसा की, कानों को अच्छा लगा. आभारी हूँ.
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अमरता का संगीत तो मित्र बड़ा ही अच्छा है। कुछ नई कविता की तरह। वैसे एक बात बताएं, नई कविता की तरह आपने चौथी पंक्ति में “”परतीत’’’’शब्द को आम बोलचाल की भाषा से उठा कर प्रयोग किया है या टंकण की गलती से ऐसा हुआ है। क्योंकि आपके ब्लॉग की घोषणा से ये शब्द मेल नहीं खाता। मौन रहने से बात बिगड़ गई..मानता हूं मैं..इसलिए लिख डाला....। वैसे इस कविता की अंतिम चार लाइनों में दिनकर की झलक है। पंक्तियां रात भर से जागा हूं सो याद नहीं आ रहीं। पर सचमुच आपकी कविता अच्छी चल रही है। मित्र सुकुमार कहे जाने वाले पंत जी की तरह एक लंबी छायावादी कविता का इंतजार है आपसे............।
सुंदर रचना।
गुरूजी,
पहले तो इस अनूठे काव्य प्रसाद का आभार!!
अब प्रश्नोत्तर्……॥
* अश्रुपात करने वाले व्यक्ति ह्रदय से कमज़ोर क्यों माने जाते हैं? इस बात में कितनी सच्चाई है? अथवा
>>इस में कोई सच्चाई नहीं,अश्रुपात का सम्बंध सम्वेदनाओ से है, और सम्वेदनाओ से प्रतिकार स्वरूप दृढता भी उत्पन्न होती है।
* जघन्य और वीभत्स दृश्यों [वीडिओ क्लिप्स] के पूर्व दी हुई चेतावनी "कमज़ोर दिल वाले इसे न देखें" में कितनी सच्चाई है ? क्या क्रूरतम दृश्यों को देख सकने वाले ह्रदय ताकतवर होते हैं?
>> क्रूरतम दृश्यों को देख सकने वाले ह्रदय ताकतवर नहीं, बल्कि क्रूर व कठोर बनने की सम्भावनाएं होती है, यहाँ कहना चाहिए कि यह आपके दिमागों को प्रभावित कर सकते है, सहज-सरल दिमाग ऐसे दृष्यों का चिंतन कर नाकारात्मक प्रभावित हो सकते है।
प्रतुल जी आज आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ...आपकी लेखन शैली ने बहुत प्रभावित किया है..शब्द और भाव का अद्भुत मिश्रण दिखाई दिया है आपकी रचनाओं में...मेरी बधाई स्वीकार करें...
नीरज
suprabhat guruji,
bandhu sugyaji evam amitji ke hote hue 'prashotar' ki kya kami.......
jami rahe pathshala.....jurte rahen
naye adhyapak aur kshtra...........
pranam.
बहुत सुन्दर और भानप्रणव रचना!
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नई कविता की तरह आपने चौथी पंक्ति में “परतीत’’ शब्द को आम बोलचाल की भाषा से उठा कर प्रयोग किया है या टंकण की गलती से ऐसा हुआ है। क्योंकि आपके ब्लॉग की घोषणा से ये शब्द मेल नहीं खाता।
@ टंकण की गलती नहीं है. मैं जब अपने गीति भावों को गुनगुनाता हूँ तो मुखसुख को प्राथमिकता देता हूँ. ब्लॉग की घोषणा में भावों में जटिलता तो आ सकती है. लेकिन मैं हमेशा शब्दों को भावों को व्यक्त करने में छूट देता रहा हूँ. जो भाव जिस शब्द से बेहतर व्यक्त हो सके वही श्रेष्ठ. लेकिन आपने आलोचना का अंकुश तो लिया मुझे यही नहीं मिलता. लोग प्रेम वश मुझे बक्शते रहे हैं.
मौन रहने से बात बिगड़ गई..मानता हूं मैं..इसलिए लिख डाला....।
@ आपने बड़ी खूबसूरती से काव्य पंक्ति का अपने पक्ष में प्रयोग किया है.
वैसे इस कविता की अंतिम चार लाइनों में दिनकर की झलक है। पंक्तियां रात भर से जागा हूं सो याद नहीं आ रहीं।
@ मुझे प्रतीक्षा रहेगी दिनकर जी की उन पक्तियों को जानने की. वैसे मुझे स्वयं भी दिनकर जी बेहद पसंद हैं.
यदि भाव चोरी किया होता तो अवश्य मुझे स्वीकारने में संकोच न होता. यदि कभी भी छंद या भाव चोरी का एहसास हो तो अवश्य बतायें.
हाँ मैंने काव्य प्रारम्भ के समय में आक्रोश की कविताओं में निराला और दिनकर जी के छंद की चोरी अवश्य की है.
हाँ, और कोमल भावों की अभ्व्यक्ति में मुझे प्रसाद जी का झरना और लहर बेहद आते रहे हैं.
किन्तु भाव खालिस मेरे अपने हैं.
मित्र सुकुमार कहे जाने वाले पंत जी की तरह एक लंबी छायावादी कविता का इंतजार है आपसे............।
@ भावों का जमावड़ा होगा तो अवश्य इस तरह का कार्य हो जाने की संभावना मैं स्वयं अपने से करता हूँ.
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प्रिय सुज्ञ ही,
आपने मेरे मन की बात की.
एक सत्य बात कहता हूँ जो मुझे एक परिचित से पता चली.
इलाहाबाद की घटना है
एक कसाई रोजाना तरह-तरह के जीवों को काटता था.
दिसंबर, १९९२ में दंगों के भय से उसने अपने पूरे परिवार को पाकिस्तान भेज दिया.
तमाम जीवों को काटने के बाद भी उसका दिल अपने परिवार के लिये कमज़ोर था. उसमें खौफ था. दहशत थी.
परिचित का मानना है कि एक कमज़ोर दिल भी क्रूर हो सकता है.
सच है, संवेदनहीनता ही व्यक्ति से जघन्य और घिनौने कृत्य करवाती है.
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ब्लॉग पर अब बड़ी हस्तियों के दर्शन से मुझे अपार प्रसन्नता हो रही है.
लेकिन अब 'परतीत' भी हो रहा है कि मुझे यह शायद आलोच्य रुचि का प्रसाद मिल रहा है.
वर्मा जी, गोस्वामी जी और डॉ. मयंक जी यदि इस खुलती बंद होती पाठशाला में आते रहे तो हम रस-छंद-अलंकारों का अभ्यास फिर से शुरू कर ही देंगे.
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मनोज कुमार जी से मेरा परिचय 'आचार्य परशुराम जी' के काव्य-सिद्धांतीय लेखों के कारण और व्याकरण संबंधी चर्चा के कारण हुआ है.
हर व्यक्ति की चाह होती है कि उसे एक श्रेष्ठ और सम्पूर्ण गुरु मिले. मुझे ऐसा लगता है कि आचार्य परशुराम जी को मन से गुरु माना जा सकता है.
मनोज जी से मैंने मन की बात आखिर कह ही दी.
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संजय जी,
आपके प्रेम ने पाठशाला का द्वार फिर से खोलने को बाध्य किया. सुज्ञ जी और अमित जी द्वारा ही मनोबल मिलता रहता है इसलिये मुझे भी कुछ लोग इस ब्लॉगजगत में पहचान पा रहे हैं अन्यथा अँधेरे में तीर चलाना और लट्ठ घुमाना व्यर्थ जा रहा था.
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आपके इस अपनत्व भरे प्रतिभाव के लिये आभार, बंधु!!
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