सोमवार, 20 दिसंबर 2010

पल्लव का पुंज


सुना मैंने, पल्लव का पुंज 
बनाया था जो मेरे लिये. 
उसे तुमने ही अपने पास 
रख लिया गलने के ही लिये. 

दीप वाले काले तम में 
छिप गये तुम पल्लव के पुंज 
हमारी यादों को तुम त्याग 
चल दिए मिलने को पिक-कुञ्ज. 

वही केवल पल्लव का पुंज 
हमारे लिये बचा अवशेष. 
आप तो रहते हो स्वच्छंद 
हमारे लिये बना परिवेश. 

1] उलझे हुए मनोभावों को व्यक्त करती यह रचना क्या स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखती है? 
2] आप इस कविता से क्या अर्थ लगाते हैं? 

पिछली रचना के कुछ शब्दों के अर्थ :
वंचक — ठगने वाली, चोर, ठगनी 
त्वं — तुम्हारा 
हेली — सहेली, सखी. 

21 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

कवी अपनी रचना में बहुत गूढ़ अर्थों को भरता है। जिसे कोई कवी-ह्रदय ही समझ सकता है। आम इंसान के तो बस की बात नहीं।
सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई।

सुज्ञ ने कहा…

गुरुजी,

कवि तो मनोभावों को स्पष्ठ व्यक्त करता है, लेकिन हम काव्य बिंबो से अनभिज्ञ होकर अर्थ में उलझ जाते है।
यह उलझा हुआ पल्लव पुनः परिवेश कैसे? अर्थ प्रकट करो गुरुजी। और अमित जी भी नहिं दिख रहे?

Avinash Chandra ने कहा…

मनोहर सुगंध है कविता में, पल्लव पुंज बहुत सुन्दर है.

kunwarji's ने कहा…

रोष,सब्र,जलन...

सब संयुक्त कर

पल्लव के पुंज पर थोप,

विचारों की बेल दी रोप..



अद्भुत शब्द-चित्रण...

कुंवर जी,

VICHAAR SHOONYA ने कहा…

अरे यहाँ तो दिव्या जी और सुज्ञ जी परेशान हैं तो अपन किस खेत की मूली हैं?

Amit Sharma ने कहा…

प्रिय! पुंज वह भेंट थी आपकी
पर रख ली स्मृति शेष आपकी

पिक कुञ्ज विहरें अंतस गहरे
ना तुम समझे निःस्वाश मेरे

लगता है जो आपको स्वछंद
पर यही रचवाता स्वच्छ-छंद

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

सबसे पहले तो आपको सादर प्रणाम.....

बाकी अपना हाल भी ऐसा ही....कि कुछ-2 ही समझ आवत है।

अब तो आपसे ही जानेगें।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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अर्थ द्रुतम :
जब मैंने सुना 'जो पल्लव का पुंज आपने मेरे लिये बनाया था उसे आपने अपने ही पास सड़ने के लिये छोड़ दिया. मुझे दिया नहीं.
जब घुप्प अन्धेरा था केवल एक आशा दीपक टिमटिमाता था. इस कारण आपकी आभासी छवि ही नज़र आती थी.
उस पल्लव-पुंज की आड़ लेकर आप न केवल छिपे अपितु मेरी किञ्चित मधुर स्मृति की भी उपेक्षा कर कोयल के कूकने वाले बगीचे में चले गये.
मेरे लिये तो अब केवल पल्लव का पुंज ही दर्शन निमित बचा रह गया है जिसे देखकर ही तृप्त हो लेते हैं.
आप तो मनमाने स्थानों पर घूमते फिरते हैं लेकिन मेरे लिये तो प्रतिबद्धताओं का परिवेश बना हुआ है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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विलंबित व्याख्या :
जब मैंने सुना कि प्रिय ने मेरे लिये एक पल्लव-पुंज [नये पत्तों का झुरमुट] बनाया है जिसमें मैं अपने निराश्रित ह्रदय को ठहरा सकूँ. लेकिन प्रिय ने उसे मुझे हस्तगत नहीं किया. उसे खंडहर [जर्जर] होने के लिये अपने पास ही रहने दिया. घोर अन्धेरा था बस एक दीप ही तो था जो जलता था. इस स्वार्थी संसार में एक आशा ही तो थी जो बची थी लेकिन उसकी भी उपेक्षा हुई. उस आशा के कारण ही प्रिय की स्मृति में मधुरता महसूस होती थी. लेकिन प्रिय ने एकनिष्ठ प्रेम की उपेक्षा करके कोकिल-स्वभाव वालों से मिलना ज़ारी रखा.
मेरे लिये तो वह काल्पनिक पल्लव का पुंज ही स्मृति में शेष है. आप बेशक मनमानी जगह घूमते फिरें लेकिन मेरे लिये यह परिवेश ही मात्र पर्यटक स्थल बना हुआ है.
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पल्लव-पुंज मतलब ... जिसमें अपने कोमल भावों को संजोकर रखने का सोच पाते हैं. मतलब ये कि फूल पत्तों में ही शोभा पाते हैं.
कोकिल-स्वभाव मतलब .. जो अपने वैचारिक अण्डों को दूसरे के घोंसले में छोड़ आते हैं.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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उसे तुमने ही अपने पास रख लिया गलने के ही लिये
@ 'ही' के प्रयोग में पुनरुक्ति दोष प्रतीत होता है. लेकिन यह जरूरी सा लग रहा था मुख-सुविधा के अलावा कारण थे
— तुमने ही ...... में 'ही' का प्रयोग मेरी अनिच्छा को भी व्यंजित करता है.
— गलने के ही .... में 'ही' का प्रयोग अन्य प्रयोग से मुख फेरने को व्यंजित करता है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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आम इंसान के तो बस की बात नहीं।
@ सच है. तभी अमित जी समझ जाते हैं और आम इंसान रह जाते हैं...
कहा अनकहा समझने वाले जब अपनी असमर्थता बतायें तो आश्चर्य होता है...

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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सुज्ञ जी
व्यस्तता के कारण कभी अमित गायब हो जाते हैं तो कभी मैं. यह तो चलता रहता है. व्यस्तता के कारण तो सभी के साथ लगे रहते हैं.
इस बार वे हमारे साथ हैं.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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अविनाश जी आपने सुगंध शब्द देकर उचित समीक्षा कर दी भाव-रचना की.
आप न केवल सुन्दर रचते ही हैं अपितु उन जैसे भावों को पहचानते भी हैं.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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कुँवर जी आपने
पिछली रचनाओं के
निहित अतीत से
वर्तमान का अनुमान लगाकर
मेरी भाव लतिका की
जड़ों की गहराई का
आखिर पता लगा ही लिया.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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अपन किस खेत की मूली हैं?
@ मित्र, जब मैं विचार शून्य होता हूँ तब निरर्थक चित्रों से भी अर्थ का अनुमान लगा लेता हूँ. लेकिन जब भाव-शून्य होता हूँ तब शब्द-चित्रों से भी अर्थ का अनुमान नहीं लगा पाता. यह मेरी कैसी विवशता है?

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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अमित जी,
आपके 'स्मृति-शेष' और 'स्वच्छंद' शब्दों ने भाव-रचना की अच्छी काव्य-समीक्षा कर दी.
सच है ... निःश्वास का स्वर सुनने के कान सभी के पास नहीं.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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कुछ-2 ही समझ आवत है।
@ यह जो भय है कि 'कहीं ग़लत न समझ जाएँ.' 'कहीं उलटा अर्थ या अन्य अर्थ न लगा लें.'इस कारण ही कई प्रेमीजन यह कहकर अपना प्रेम बनाए रखते हैं.

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सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji....

aapki byakhya padhakar 'pallav punj'
ka aanand liya .....

pranam.

Rohit Singh ने कहा…

प्रतुल जी सदैव की तरह खूबसूरत है रचना।

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

बहुत ही सुंदर प्रस्तुति. भावार्थ भी बताकर आपने इसे समझना आसान कर दिया .........

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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संजय जी, रोहित जी और उपेन्द्र जी
आपका आभारी हूँ जो आपने मुझे सराहा.
जटिलता में से सरलता ढूँढ़ना मुझते रुचता है.
इस कारण मन के जटिल भाव ज्यूँ के त्यूँ रखता रहा हूँ.
हम कई बार अपनी अनुभूतियों को शब्द नहीं दे पाते, लेकिन शब्द-चित्र जरूर दे सकते हैं - मुझे ऐसा लगता है.
इस कारण ही ऐसे शब्द-चित्रों का निर्माण हो जाता है.

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