मित्र ! आज आपको काव्य-जगत में घुमाने से पहले भाषा की एक संकरी गली में घुमाने का मन हो आया है. आप जानते ही हैं कि भाषा मानव के व्यवहार का प्रमुख साधन है. मनुष्य स्वयं परिवर्तनशील है इसलिये उसका प्रमुख व्यवहार 'भाषा' कैसे स्थिर [अपरिवर्तित] रह सकता है.
भाषा में परिवर्तन की यह प्रक्रिया उसके अंगों [शब्द और अर्थ] को प्रभावित करती है.
मित्र, गली ज़रा संकरी है इसलिये थोड़ा ध्यान से और संभलकर बढ़ते हैं. जो 'नौसिखिया' विद्वता के घमंड में अंधाधुंध आगे बढ़ता है उसे केवल भाषा के अनर्थ [खरोंचे] ही हाथ लगते हैं. अतः संभलकर. ....
अर्थ-परिवर्तन या विकास की तीन दिशाएँ मानी जाती हैं :
१] अर्थ-विस्तार [Expansion of Meaning]
२] अर्थ-संकोच [Contraction of Meaning]
३] अर्थ-आदेश [Transference of Meaning]
[1] अर्थ-विस्तार : अर्थ-परिवर्तन का ऐसा प्रकार है जिसमें एक शब्द सीमित अर्थ से निकलकर अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होने लगता है.
— 'प्रवीण' ............ का अर्थ पहले (केवल) .......... वीणा बजाने में Expert होता था, किन्तु धीरे-धीरे इस शब्द के अर्थ का विस्तार हुआ और आज हर प्रकार के वाद्य-यंत्रों को बजाने में Expert, हर प्रकार के अच्छे-बुरे कार्यों के करने में Expert (दक्ष) व्यक्ति को 'प्रवीण' कहा जाता है. भले ही वह कलम चलाने की बजाय माउस की-बोर्ड चलाने में Expert हो. या फिर चाकू बन्दूक चलाने में Expert हो.
— 'कुशल' ............. का अर्थ पहले (केवल) ......... कुश के चयन में चतुर एवं निष्णात व्यक्ति के लिये प्रयुक्त होता था. किन्तु आज़ इस शब्द का प्रयोग हर प्रकार के अच्छे-बुरे कार्य में चतुर व्यक्ति के लिये होने लगा है.
— 'साहसी' .......... का अर्थ पहले (केवल) .......... डकैतों के लिये प्रयुक्त होता था, पर आज़ यह शब्द हर कार्यों में साहस प्रदर्शित करने वाले के लिये होता है.
— 'स्याही' .......... का अर्थ पहले (केवल) .......... काले रंग की ink के लिये होता था, पर आज यह लेखन में आने वाली काले, नीले, हरे, लाल, आदि रंग की हर प्रकार की ink को स्याही कहा जाता है.
— 'तैल' ............ का अर्थ पहले (केवल) .......... तिल के तैल के लिये प्रयुक्त होता था, पर आज़ यह हर प्रकार के तैल (तेल) चाहे वह सरसों का हो या आँवले का हो या फिर मिट्टी के तेल के लिये प्रयुक्त होता है.
— 'अभ्यास' ....... का अर्थ पहले (केवल) ........ धनुष-बाण चलाने के लिये होता था पर आज यह हर प्रकार की दोहरावट (पुनरावृत्ति) के लिये होता है. चाहे वह कक्षा का पाठ हो, या उसे याद करने की प्रक्रिया हो.
— 'गवेषणा' ........ का मूल अर्थ पहले (केवल) ..... 'गाय की खोज करना' था परन्तु अब किसी भी प्रकार की खोज का वाचक बन गया है.
जयचंद, विभीषण, नारद जैसी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का भी अर्थ-विस्तार हो चुका है.
आज कन्नौज के राजा के अतिरिक्त हर विश्वासघाती व्यक्ति को जयचंद की संज्ञा से अभिहित किया जाता है.
रावण का भाई विभीषण आज़ घर के भेदी के रूप में व्याप्त है और
देवर्षि नारद आज़ उन व्यक्तियों के पर्याय बन गये हैं जो इधर की बात क्षण भर के अंतराल में दूसरी तरफ पहुँचाकर संघर्ष की स्थिति पैदा कर देते हैं.
कुछ अन्य शब्द जो अपना अर्थ-विस्तार बनाने की फिराक में हैं :
'नेता' ............. भई वह वादा निभाने में 'नेता' है. उससे कोई उम्मीद मत रखना. ......... मतलब ....... अविश्वसनीय/ ग़ैर-भरोसेमंद
'मुसलमान' ....... महिलाओं पर बंदिशें लगाने में मैं 'मुसलमान' हूँ. ................ मतलब ............ कट्टर / क्रूर
[2] अर्थ-संकोच : अर्थ-परिवर्तन का ऐसा प्रकार है जिसमें कोई शब्द पहले विस्तृत अर्थ का वाचक था किन्तु बाद में वह सीमित अर्थ में प्रयुक्त होने लगता है.
— 'गो' ............. शब्द का प्रारम्भिक अर्थ था ............... चलने वाला, ............ किन्तु आज़ सभी चलने वाले जीवों को 'गो' न कहकर केवल 'गाय' को ही 'गो' कहा जाता है.
— 'जगत' ......... शब्द का प्रारम्भिक अर्थ था ............. खूब चलने वाला ....... किन्तु आज़ यह रेलगाड़ी; हवाई जहाज; बस का प्रतीकार्थक न होकर केवल संसार का अर्थ देता है.
— 'मृग' ........... शब्द का प्रारम्भिक अर्थ था ............. जंगली जानवर ......... किन्तु आज़ यह केवल एक प्राणी विशेष (हिरन) के लिये रूढ़ हो गया है.
— 'सभ्य' .......... का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है सभा में बैठने वाला पर आज़ सभा में बैठने वाला हर व्यक्ति सभ्य नहीं होता.
— 'जलज' ........ आज जल से निष्पन्न सभी चीजों को नहीं कहा जाता. केवल कमल के लिये रूढ़ हो गया है.
...................... 'धान्य' और 'दुहिता' शब्द इसी कोटि के हैं.
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इस वर्गीकरण का अधिक विस्तार बाद में कभी किया जाएगा.
[3] अर्थादेश : आदेश का अर्थ है परिवर्तन. अर्थादेश में अर्थ का विस्तार या संकोच नहीं होता, अपितु वह पूर्णतया बदल जाता है. मतलब पहले किसी अर्थ में प्रयुक्त होता था, या कसी वस्तु का वाचक (नाम) था; बाद में किसी दूसरे अर्थ अथवा दूसरी वस्तु का वाचक बन गया. यथा
— 'असुर' शब्द वेद में देवता का वाचक था, किन्तु बाद में यह राक्षस या दैत्य का वाचक बन गया.
अर्थादेश की दो स्थितियाँ होती हैं — (१) अर्थोत्कर्ष [अर्थ का उत्कर्ष], (२) अर्थापकर्ष [अर्थ का अपकर्ष]
कुछ शब्दों का अर्थ पहले बुरा रहता है बाद में अच्छा हो जाता है, परिवर्तन की यह प्रक्रिया अर्थ का उत्कर्ष कहलाती है. जैसे .......... साहसी, मुग्ध.
— साहसी पहले डकैतों के लिये और मुग्ध मूढों के लिये प्रयुक्त होता था किन्तु अब यह क्रमशः अच्छे कार्यों में हिम्मत का प्रदर्शन करने वाले तथा मोहित हो जाने के अर्थ में प्रयुक्त होता है.
कुछ शब्द पहले अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, पर बाद में बुरे अर्थों में प्रयुक्त होने लगते हैं. अर्थ परिवर्तन की यह स्थिति अर्थ का अपकर्ष कहलाती है. जैसे ............ भद्दा, महाराज पंडित आदि.
— 'भद्दा' शब्द भद्र से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ भला होना चाहिए;
— 'महाराज' राजाओं के लिये प्रयुक्त होता था पर आज़ भंडारी, भोजन बनाने वाले का वाचक है.
— 'पंडित' शब्द पहले विद्वान् का वाचक था पर आज मूर्ख ब्राहमण का भी वाचक है.
— 'पाखंड' ........ इस नाम का मूलतः संन्यासी सम्प्रदाय था, लेकिन अब इसका अर्थ अपकर्ष हो गया. इसी तरह 'जमादार', 'जयचंद', 'विभीषण' आदि के अर्थ भी हीनतायुक्त हो गये हैं.
—'व्यवहारिका' .... मतलब दासी, किन्तु कुमाऊँनी में इसका अपभ्रंश शब्द ब्वारी है, जो अब 'पुत्रवधू' के लिये प्रयुक्त होता है.
इस पाठ को काफी छोटा बनाने की कोशिश की गयी लेकिन फिर भी यह लंबा हो गया. इस पाठ में सम्मिलित जानकारियों का स्रोत फिलहाल मुझे मालुम नहीं है. क्योंकि इस पाठ की तैयारी मैंने अपने विद्यार्थी जीवन की कॉपी {पंजिका} से की है.
'असुर' शब्द के अर्थ-अपकर्ष से पाठक विद्यार्थियों के मन में शायद प्रश्न उठे हों. वे अपने-अपने मंतव्य इस संबंध में दे सकते हैं, और यदि किसी प्रश्न को उत्तर नहीं मिले तो हम परस्पर बातचीत से सुलझेंगे भी.
12 टिप्पणियां:
शऽऽऽऽ....ज़रा आहिस्ता से आना, बिल्कुल शोर न हो...शऽऽऽऽ...! बोला न मैंनेऽऽऽ...शोर न हो...! यहाँ ज़बरदस्त तन्मयता के साथ बहुत उपयोगी विषय पर क्लास चल रही है...! गुरु जी का ध्यान भंग हो सकता है। शिष्यों का काफी नुकसान होगा... नुकसान...? क्या मतलब...? अरेऽऽऽ मूर्ख... फिर शिष्यों को वह सब शायद न मिल सके, जो गुरु जी तन्मयता के इस पल में दे रहे हैं...!
वाह... वाह प्रतुल जी...वाह! चूँकि मैं भाषा-विज्ञान (अँग्रेज़ी) का विद्यार्थी रहा हूँ...और आज भी हूँ, अतः समझ सकता हूँ कि आप यहाँ तमाम ब्लॉग्ज़ पर Every Jack and Peter की तरह सिर्फ़ वेब-पन्नों को ‘काला’ नहीं कर रहे हैं...प्रत्युत् भाषा-विज्ञान की ‘कला’ का अद्भुत नज़ारा पेश कर रहे हैं।
यक़ीनन...मैं आपकी बहुत क़द्र करता हूँ! आपकी अध्यवसायी वृत्ति को ललाम सलाम!
suprabhat guruji....
sundar evam sankshipt path.....
pranam.
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बहुत सुन्दर जानकारी दी है आपने। आपकी लेखनी को नमन। हम तो बिना ज्यादा शब्द ज्ञान के , बस यूँ ही लिखे जाते हैं।
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आदरणीय जितेन्द्र जी,
आपने आगामी पाठों की तैयारी के लिये निराले अंदाज़ में मुझे प्रोत्साहित ही नहीं किया अपितु अपनी शुभेच्छा भी दर्शा ही दी. आपका आशीर्वाद हमारी पाठशाला के लिये अमूल्य है. कहीं भी त्रुटि पायें तो कृपया साधिकार पूर्वक इंगित भी करें.
कभी-कभी प्रेम के वशीभूत हम अपने आत्मीयों के दोषों को नज़रंदाज़ करने लगते हैं.
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संजय जी,
शुभ रात्रि.
इस पाठशाला में यही एक अजीब बात है कि आप सुप्रभात कहते हैं और वह मुझ तक आते आते 'शुभरात्रि' में बदल जाता है. वेतन वाली नौकरी ने मुझे मन-पसंद व्यवसाय से दूर किया हुआ है. क्या करूँ? आपने शायद व्यंग्य में इस पाठ को संक्षिप्त बताया है. हाँ सुन्दर है इस बात से सहमत हूँ क्योंकि मैं स्वयं इस पाठ को पाठक और विद्यार्थी की दृष्टि से पढ़ता हूँ तो मेरा स्वयं का लाभ ही होता है.
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दिव्या जी
ब्लोगरों का परस्पर एक विचित्र अन्योन्याश्रित संबंध है कि वे एक-दूसरे से काफी-कुछ सीख रहे हैं.
आपने मुझे इस ब्लॉग पर गुरु का मान दिया और मैं आपके चिकित्सालय पर आकर चुपचाप अनूठी और उपयोगी जानकारियों का लाभ लेता रहता हूँ. मुझे वहाँ आप गुरु प्रतीत होते हैं.
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प्रतुल जी,
चुपचाप लाभ लेने वाले भी अच्छे और कुछ लिखकर मान देने वाले भी अच्छे। अपेक्षाएं दुःख का कारण होती हैं। इसलिए मैं किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखती।
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उपयोग सहित आपके इस पाठ स्वाध्याय किया।
सदुपयोगी जानकारी मिली, आभार, ग़ुरुवर!!
शब्द अधिष्ठायक गुरुवर, हमारे शब्द भंडार को समृद्ध करे।
आपने नोटिस लिया, धन्यवाद... भाई!
आपने सही कहा कि-
"कभी-कभी प्रेम के वशीभूत हम अपने आत्मीयों के दोषों को नज़रंदाज़ करने लगते हैं."
मैं सचमुच आपके आदेश का पालन करते हुए इंगित करता रहूँगा, लेकिन आपके ब्लॉग पर ऐसी गुंजाइश रहती ही कहाँ है?
मेरा मानना है कि सिर्फ़ दोष निकालने के लिए दोष नहीं निकालना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘दोष’ निकालना स्वयं ‘दोषपूर्ण’ हो जाता है। है कि नहीं...?
अभी कल-परसों में ‘मनु’ नामक ब्लॉग पर मैंने एक ख़ास टिप्पणी दर्ज की है। यदि आप उसे पढ़ सकें, तो मुझे ख़ुशी होगी।
संवाद की कड़ियों को जोड़ने में मुझे वक्त लग रहा है परन्तु जानकारी उपयोगी भी है और सरलता से समझ भी आती है, अन्य विषयों के पाठ क्रम भी चलता रहे इसका अनुरोध है
जगदीश शर्मा
प्रिय जगदीश जी, मैं प्रयास करूँगा कि भाषा विज्ञान के लिए मेरी अध्यवसायी वृत्ति पुनः जाग्रत हो … काफी समय हुआ भाषा और काव्य की रुचि को पठन तक सीमित कर दिया है। लगता है संकलित जानकारियों का घड़ा खाली हो गया है। आपके अनुरोध के प्रति मन में अपार आभार मानकर फिर से स्वाध्यायशील होने में जुटता हूँ।
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