मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

"तुमसे ही तो मेरी चाँदनी"

चाहा मन में बात करूँगी 
भैया से विवाद करूँगी 
चल दी पिकानद में विभावरी 
चन्दा से मैं आज़ लडूँगी. 


"क्यों मगन हो सोते रहते 
बहना से कुछ भी न कहते 
बस देते रहते भाभी की 
चिर नूतन अवदात चाँदनी."


"मैं हारूँगी या वो हारें 
आज़ शुभ्र लगते हैं तारे 
किसकी जीत सुनिश्चित होगी 
मेरी या भैया चंद प्यारे."


"पर पहले की तरह सदा वे 
फिर से हार स्वयं न जावें 
पूरे होकर धीरे-धीरे 
स्वयं नाश अपना न कर लें."


"भय लगता है भूल करूँगी 
भैया से अन्याय करूँगी 
पर फिर भी भैया यही कहेंगे 
'तुमसे ही तो मेरी चाँदनी'."


एक बहिन जिसकी भावुकता उसके लिये बार-बार समस्या बन जाती है. मैं उसके मन की बात जानता हूँ. वह अपने एकांत को भर लेना चाहती है सुखद स्मृतियों से. लेकिन उसके प्रेम को हर बार अपमान ही सहना होता है. उसका तनाव कम हो. इसके लिये मैंने उसके अश्रुत संवादों की कल्पना कर डाली.

12 टिप्‍पणियां:

सुज्ञ ने कहा…

"मैं हारूँगी या वो हारें
आज़ शुभ्र लगते हैं तारे
किसकी जीत सुनिश्चित होगी
मेरी या भैया चंद प्यारे."

सार्थक

सुज्ञ ने कहा…

फ़िर एक बार ग्रह्कार्य अवश्य देखें

VICHAAR SHOONYA ने कहा…

चंदा के साथ बहिना कि बातें भैया दूज पर होनी चाहिए प्रभु आज तो करवा चौथ है आज तो चंदा और सजनी कि बात होनी चाहिए थी. क्या ये miss timing नहीं है.

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

अच्छी रचना है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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इस कविता से पहले कक्षीय-पाठ में बताया गया था कि
"आज की राष्ट्र विषयक रति (देशप्रेम) या प्राचीनकाल से चली आ रही प्रकृति विषयक रति को स्थायी भाव नहीं माना जा सकता क्योंकि एक तो रति का यह स्वरूप सार्वजनिक नहीं है और न ही सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक."
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अब इस कविता में प्राकृतिक पात्रों में परस्पर मानवीय संबंधों की जो खोज की है वह कवि की किसी क्षण-विशेष की मनःस्थिति है. उसमें 'रति' स्थायी भाव नहीं माना जा सकता.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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मित्र दीप,
किसी भाव-विशेष को व्यक्त करने के लिये क्या किसी समय विशेष का बंधन ठीक है? करवा-चौथ का पूर्ण-दिवसीय उपवास किसी पत्नी का अपने पति के लिये प्रतीकात्मक संकल्प है.

ठीक उसी दिन किसी बहिन के तनावों को कम करने की विवशता आन पड़ी हो तो क्या भैया-दूज का इंतज़ार करना ठीक था?

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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सुज्ञ जी,
आपका ब्लॉग मंदिर है. भाव वहाँ पहुँचकर स्वयं अपने हाथों में पूजा का थाल ले लेते हैं.

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सुज्ञ ने कहा…

गुरू जी,

इतनी बडी उपमा न दो, अहंकार बाहर खडा इसी मौके की तलाश में है।

गुणपूजा मंदिर बना रहा हूं, गुणपूजक हूं,अतः आपके साथ हूं

mridula pradhan ने कहा…

bahut rochak.

ZEAL ने कहा…

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@--ठीक उसी दिन किसी बहिन के तनावों को कम करने की विवशता आन पड़ी हो तो क्या भैया-दूज का इंतज़ार करना ठीक था?

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खुशनसीब है वो बहन , जिसके आप भाई हैं। आपकी उपरोक्त पंक्तियाँ आपके विशाल ह्रदय की परिचायक हैं। भाई- बहन का ये प्यार सदैव बना रहे , इसे किसी की नज़र न लगे , यही प्रार्थना है।

आपकी भाई-बहन वाली रचनायें बहुत भावुक कर देती हैं। श्रद्धा से सर नत मस्तक हो जाता है।

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Avinash Chandra ने कहा…

प्रतुल जी, आपके काव्य के बारे में कहना न कहना बराबर है मेरे लिए, सो पढ़ के चुपचाप निकल लेता हूँ, ये आप जानते हैं.
किन्तु इन परम प्रेम की बूंदों पर रूक कर मत्था न टेकूं यह संभव न हुआ...

क्यों मगन हो सोते रहते
बहना से कुछ भी न कहते
बस देते रहते भाभी की
चिर नूतन अवदात चाँदनी

भय लगता है भूल करूँगी
भैया से अन्याय करूँगी
पर फिर भी भैया यही कहेंगे
तुमसे ही तो मेरी चाँदनी

कविता का विश्लेषण कर पाना मेरे सामर्थ्य के बाहर हमेशा से रहा है, पर इस स्नेह्पूरित काव्य के लिए नमन!
इन अतुल्य लाड कि स्वाति बूंदों के लिए असीम धन्यवाद स्वीकारें!

सञ्जय झा ने कहा…

guruji pranam,

yahan to hum sirf padh sakte hain......abhi shayad hame kafi
mehnat karni hai....tabhi kuch
prashn bhi kar paoonga........

yse aap ka abodh balak ko diye gaye
path, balak ko bahut achha laga....

sabhi bandhu-bandhvi ko shubh:kamna