बुधवार, 4 अगस्त 2010

कूप-सी आँखें


नयन में बन गया है चित्र सीधा देख लो प्यारी.
लिखा उलटा दिखे सीधा चमकती आँख में म्हारी.
रहो विपरीत मुख फेरे न आओ पास में मेरे.
मुझे मुख दीखता फिर भी पियारा, पीठ में तेरे.
हमारी कूप-सी आँखें तुम्हारा बिम्ब पाकर के.
उसे सीधा किया करतीं तुम्ही से दूर रहकर के.

[प्रिय हरदीप सिंह राणा जी 'म्हारी' शब्द से याद आये.]

3 टिप्‍पणियां:

Avinash Chandra ने कहा…

मुझे मुख दीखता फिर भी पियारा, पीठ में तेरे.

पीठ में तेरे..यह बिम्ब बहुत सुन्दर है.

kunwarji's ने कहा…

आदरणीय प्रतुल जी...

मै स्वयं को वास्तविकता में लज्जित सा सा अनुभव कर रहा हूँ!ये मेरा सौभाग्य था की मुझ तुच्छ का आप जैसे प्रतिभा-संपन्न, एक अत्यंत परिपक्व मानसिकता वाले व्यक्तित्व से संपर्क हुआ और वार्तालाप भी चला(कुछ दिन ही सही)!आपने मुझे वो सम्मान दिया जिसके लायक मै सच में नहीं था!आपने मुझसे संपर्क बनाए रखने के प्रयास अपनी ओर से निरन्तर किये....पर मै......?

आपने इस कविता में भी मुझे स्मरण किया,और मै हूँ की आपकी वार्ता का समुचित उत्तर भी मै कभी नहीं दे पाया!असल में आपसे वार्ता करते समय मैंने अनुभव किया की मै जो होता हूँ,वो आपसे वार्ता करते समय अथवा आपको उत्तर देते समय वो नहीं होता हूँ!मेरा मानसिक स्तर स्वतः ही ऊपर उठ चुका होता है!अभी जो समय बीता है जिसमे मै आपसे कोई संपर्क स्थापित नहीं कर पाया हूँ,उसमे मैंने देखा कि मै उस स्तर तक नहीं पहुँच पाया जिसमे आपसे वार्ता की जा सके.....

आपके सन्देश मै पढता और बस पढ़ कर रह जाता....

फिर कुछ घटनाक्रम ऐसा हुआ कि इन्टरनेट से दूरी सी बन गयी,जो अभी भी बनी हुई ही है!

बस कुछ कहते नहीं बन रहा है जी...आशा है कि आप महसूस करोगे जो मै कहना चाह रहा हूँ.....

कुंवर जी,

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

प्रिय कुंवर जी,
आपका ब्लॉग जगत में टहलना, मिलना-जुलना, राम-राम करके कुछ देर उनकी खटिया पर बैठ कर बातें बनाना .......... ग्रामीण परिवेश को सामने ले आता था. आज गाँवों में ही ऐसा प्रेम देखने को मिल पाता है जिसमें सभी परिवार परस्पर एक-दूसरे की खैर-खबर लिया करते हैं.

पिछले दिनों किया वादा पूरा नहीं किया इस कारण लज्जित तो मुझे होना चाहिए लेकिन प्रेम में लज्जित होना मुझे नहीं आता. आपके दर्शन जब मुझे कहीं नहीं हुए तो एक तड़प-सी हुई. राणा जी, मेरे मानस के ब्लॉग-जगत में आपका एक काल्पनिक रूप टिप्पणी-भाला लिये हुए दौड़ता-भागता रहता है.

प्रेम के उत्कर्ष में प्रतिपक्ष की प्रतिकिया की आवश्कता समाप्त हो जाती है. आपके मन की स्थिति ना जानते हुए भी अनुमान से कुछ और बातें किये लेता हूँ.
— चाहे इन्टरनेट से दूरी रखो, लेकिन बने संबंधों से नहीं.
— मैंने तुलसीदास जी की रामचरितमानस पढ़ी लेकिन तुलसीदास जी को इसका पता नहीं, और अगर वे आज होते भी, तो भी वे टिप्पणियों के ना मिलने पर अपनी दोहा-चौपाई रचना कम नहीं कर देते. ........... सो आप भी मन की मौज के घोड़े छोड़ दो.
— 'कुछ न कह पाने वाली' आप जैसी स्थिति मेरी भी हो जाती है. लेकिन ऐसे में तब कुछ और कहना [कुछ भी कहना] शुरू कर दो. जैसे मैंने किया.
— सभी मूलतः इसी धरातल पर रहते हैं. बस कोई थोड़ी देर के लिये सागर की गहराई में जा उतरता है तो कोई पहाड़ की ऊँचाई पर जा बैठता है. स्तर के ऊँचे-नीचे का फरक नहीं मानो. अमित जी की पोस्ट पर धर्म के मंजे खिलाड़ी भी टिप्पणी करते हैं, पुजारी भी टिपण्णी करते हैं और अनाड़ी भी टिप्पणी करते हैं. सभी टिप्पणियों का मूल्य प्रथम दृष्टि में एक ही होता है. मुझे तो कभी-कभी सलीम खान की टिपण्णी भी ठीक लगती है.

चलिए फिर, बात होगी, अभी अन्य गतिविधियों में लगते हैं. राम-राम.