रविवार, 1 अगस्त 2010

स्मृति-सोना

चोरी हुई
मेरे जीवन की
बीती यादें चली गईं.
पास मेरे अब फिर आयी हैं
छलने, यादें और नयी.

चोर वही
जिसको देनी थीं
सारी प्रिय यादें अपनी.
पर वह संयम न कर पायी.
यादें मेरी छीन ले गयी.

शोर नहीं
मैं कर पाया था
रो भी न पाया रोना.
मैंने वापस लिया उसे जो
छीना था स्मृति-सोना.

और कहीं
कैसे मैं दे दूँ?
यादों का अपना संग्रह.
नहीं चाहता मैं औरों के
गृह में कर दूँ तम-विग्रह.

भोर गई
संध्या हो आयी
पाने फिर स्मृति-सोना.
वह आयी मेरे पास बोल —
"भैया! मुझको दिखला दो ना!"

एक यही
बस कमज़ोरी है
जो कह देता है 'भैया!'
रुक न पाता हाथ मेरा
देते में, बनकर के भैया.

[स्मृति-सोना — सुखद मूल्यवान चमचमाती स्मृतियाँ]

1 टिप्पणी:

Avinash Chandra ने कहा…

शोर नहीं
मैं कर पाया था
रो भी न पाया रोना.
मैंने वापस लिया उसे जो
छीना था स्मृति-सोना.

झंकृत करता हैं इन पंक्तियों का सौंदर्य