मंगलवार, 4 मई 2010

श्रोतानुराग

कब बीता कविता का वितान
ना तृप्त हुए मन और कान.
था कैसा कविता का विमौन
मैं देख रहा चुपचाप कौन
आया उर में श्रोतानुराग
जो छीन रहा मेरा विराग
करपाश बाँध रंजित विशाल
भावों का करता है शृंगार
तुर चीर अमा का अन्धकार
लाया उर में जो प्रेमधार...
[अमित जी के प्रति पनपा श्रोतानुराग]

3 टिप्‍पणियां:

honesty project democracy ने कहा…

बहुत ही सार्थक विचारणीय प्रस्तुती /

दिलीप ने कहा…

bahut sundar likha sir..lagta hai Amit ji ke bhakt ho gaye aap...

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत सुन्दर। शुभकामनायें