जिसके अर्चन में दिवस रात
रहती थीं निज आँखें सनाथ
जिसके आँचल में बैठ मुझे
मिलता था ईहित प्यार-मात।
जिसके दर्शन से नयन धन्य
समझा करता खोले कपाट
जिसके चलने पर ऊंच-नीच
पथ को करता था मैं सपाट।
जिसके नर्तन पर कभी-कभी
कवि उर में आ जाता भुचाल*
कविता बेचारी इधर-उधर
मारी फिरती जिह्वा संभाल।
खोखली धारणा थी मेरी
कुछ ही पल का था प्रिय मिलाप
जब से मिलकर वे दूर हुए
आँखें करती रहतीं विलाप।
रहती थीं निज आँखें सनाथ
जिसके आँचल में बैठ मुझे
मिलता था ईहित प्यार-मात।
जिसके दर्शन से नयन धन्य
समझा करता खोले कपाट
जिसके चलने पर ऊंच-नीच
पथ को करता था मैं सपाट।
जिसके नर्तन पर कभी-कभी
कवि उर में आ जाता भुचाल*
कविता बेचारी इधर-उधर
मारी फिरती जिह्वा संभाल।
खोखली धारणा थी मेरी
कुछ ही पल का था प्रिय मिलाप
जब से मिलकर वे दूर हुए
आँखें करती रहतीं विलाप।
* भूचाल
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