शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

घटा-संग्राम

घड़घड़ाती हैं घटायें
मनु युद्ध होता है गगन में
रवि-रश्मियों को भी सतायें
जो देखती हैं युद्ध रण में।

वात-रथ पर बैठकर वे दौड़ती फिरतीं
न गिरतीं
स्वयं, गिरता रक्त
उनका, नीर बनकर।

कर रही सौदामिनी भी
घात भू पर
ये समझकर -
कर दिया घायल घटाओं ने धरा को
और पी रही हैं रक्त
उनका, निःसंकोच होकर।

कुछ गिर गईं  रथ से अचेतन,
कुछ पलायन
और कुछ, कर रहीं प्रयाण
तन को छोड़कर।

अब आ रहीं हैं और भी रण में घटायें
स्थान लेने, उनका
कि जिनका
हो गया संहार।

कुछ आ गईं रश्मि निहत्थी
देखने अनजान।
हाय ! वे भी पिस गईं रण में
विरह से डूबता दिनमान !!

माना अभी तक खेल-क्रीड़ा
निर्दोष वध पर छोड़ व्रीडा
अस्त से क्यों पस्त पहले ?
दुष्टता का दमन करने
सर्प-केंचुल विरह त्यागो !
जागो जागो जागो जागो !
- सोचते ही क्रोध का संचार।
और नभ के भाल पर
इंद्र का आयुध चढ़ाकर
करा अघ-संहार।
माननी पड़ी घटाओं को अपनी हार।

युद्ध का अंत हुआ
करने लगीं प्रलाप
रो-रोकर घटायें।
वे स्वेद और रक्त मिलने की
व्यथा किसको बतायें?
वे देखतीं घावों को अपने
फाड़ करके वस्त्र
रक्त भी था स्याह दिखता
शांत बैठे शस्त्र। 

2 टिप्‍पणियां:

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

पूरा सांगरूपक रच डाला आपने तो .

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सटीक अभिव्यक्ति