सच कहता हूँ, सच कहता हूँ
अकसर तो मैं चुप रहता हूँ
तन मन पर पड़ती मारों को
बिला वजह सहता रहता हूँ .... सच कहता हूँ।
वर्षों से जो जमा हुआ था
जो प्रवाह हृत थमा हुआ था
आज नियंत्रित करके उसको
धार साथ में खुद बहता हूँ ... सच कहता हूँ।
इस दृष्टि में दोष नहीं था
भावुकता में होश नहीं था
खुद को दण्डित करने को अब
धूर्तराज खुद को कहता हूँ ... सच कहता हूँ।
___________________
कंठ शीत ने बिगाड़ दिया है। अन्यथा सस्वर प्रायश्चित करता!!
___________________
कंठ शीत ने बिगाड़ दिया है। अन्यथा सस्वर प्रायश्चित करता!!
28 टिप्पणियां:
लिंक-प्रयोजन |
सादर
शायद सार्थकता से दूर है यह कुंडली -
जैसा मैं समझा -
रोवै प्रस्तर पर पटक, जब भी अपना माथ |
व्यर्थ लहू से लाल हो, कुछ नहिं आवे हाथ |
कुछ नहिं आवे हाथ, नाथ-नथुनी तड़पावे |
दास ढूँढ़ता पाथ, किन्तु वो मुड़ी हिलावे |
होय दुसह परिणाम, अंत दोउ दीदा खोवै |
रविकर बारम्बार, कहे क्यों कोई रोवै ||
वाह!
बहुत कठिन है नैया अपनी
धारा के विपरीत चलाना
.............
जीवन के सब सार बह गये
हम नदिया की धार बह गये।
पूरा याद नहीं आ रहा..कभी लिखा था कुछ ऐसा ही।
व्याकरण की दृष्टि से इसे देखिएगा-
कोई चूक है तो बताइये-
जली दिमागी बत्तियां, किन्तु हुईं कुछ फ्यूज ।
बरबस बस के हादसे, बनते प्राइम न्यूज ।
बनते प्राइम न्यूज, व्यूज एक्सपर्ट आ रहे ।
शब्द यूज कन्फ्यूज, गालियाँ साथ खा रहे ।
सड़ी-गली सी सीख, मिटाना चाहें खुजली ।
स्वयंसिद्ध *सक सृज्य, गिरे बन उनपर बिजली ।।
*शक्ति
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति सोमवार के चर्चा मंच पर ।। मंगल मंगल मकरसंक्रांति ।।
प्रतुल जी आप तो सच ही कहते है.. फिर घोषणा करने की जरूरत क्यों ? एक बेहद प्रभावशाली रचना के लिए साधुवाद
प्रभावी....
✿♥❀♥❁•*¨✿❀❁•*¨✫♥
♥सादर वंदे मातरम् !♥
♥✫¨*•❁❀✿¨*•❁♥❀♥✿
प्रिय बंधुवर प्रतुल वशिष्ठ जी
एक और सुंदर गीत के लिए बधाई और आभार !
वर्षों से जो जमा हुआ था
जो प्रवाह हृत थमा हुआ था
आज नियंत्रित करके उसको
धार साथ में खुद बहता हूँ ...
सच कहता हूँ
बहुत ख़ूब !
कंठ को सुधारिए भाई !
इस शीत की तो ... ... !
:))
शीत की विदाई अब हो तो रही है ...
सस्वर प्रस्तुति अगली बार ही सही , कर लेंगे प्रतीक्षा ... और क्या !
:)
हार्दिक मंगलकामनाएं …
लोहड़ी एवं मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर !
राजेन्द्र स्वर्णकार
✿◥◤✿✿◥◤✿◥◤✿✿◥◤✿◥◤✿✿◥◤✿◥◤✿✿◥◤✿
इस दृष्टि में दोष नहीं था
भावुकता में होश नहीं था
खुद को दण्डित करने को अब
धूर्तराज खुद को कहता हूँ ... सच कहता हूँ।
- 'धूर्तराज' यह तो सच नहीं रहा !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
मकर संक्रान्ति के अवसर पर
उत्तरायणी की बहुत-बहुत बधाई!
SUPRABHAT GURUJI,
...........
...........
PRANAM.
खुद को दण्डित कर दिया, यह प्रायश्चित खूब
किंतु सत्य का सूर्य कब , गया तमस में डूब
गया तमस में डूब , निराशा में आशा है
नहीं अश्रु की सदा , एक - सी परिभाषा है
भावुकता को नहीं , कीजिये महिमा मण्डित
निर्णायक नहिं आप,न कीजे खुद को दण्डित ||
suprabhat guruji,
adarniya arun bhaiji ke agrah pe vichar karen.....
pranam.
@ रविकर जी,
आपके कवि-ह्रदय ने अनुमान सही-सही लगाए।
रह रह कर आते रहे, मन में दुष्ट विचार।
कर लूँ ह्त्या स्वयं की, या अतीत संहार।।
या अतीत संहार, पुराना लिखा हुआ सब।
टीका-टिप्पणि बंद, दिखाना भावुक करतब।
गुरुओं को ना कभी, शिष्य उपदेश सुनाते।
दुर्वचनों में बदल, लौट रह रह कर आते।
@ देवेन्द्र जी,
जानता हूँ ... मेरे शब्दकोश में 'मूर्ख' 'दुष्ट' और 'धूर्त' बढ़ते क्रम में अपशब्द हैं। बहुत कठिन होता है अपने लिए सुपरलेटिव डिग्री का चुनना।
आपकी कविता प्रभावी है ... उसे पूरा याद करें। सुनने की प्रतीक्षा रहेगी।
जली दिमागी बत्तियां, किन्तु हुईं कुछ फ्यूज ।
बरबस बस के हादसे, बनते प्राइम न्यूज ।
बनते प्राइम न्यूज, व्यूज एक्सपर्ट आ रहे ।
शब्द यूज कन्फ्यूज, गालियाँ साथ खा रहे ।
सड़ी-गली सी सीख, मिटाना चाहें खुजली ।
स्वयंसिद्ध सक सृज्य, गिरे बन उनपर बिजली ।।
@ रविकर जी, बेहतर रचना ... त्रुटि रहित। :)
@ कुश्वंश जी, घोषणा इसलिए क्योंकि किसी ने कहा था -- एकांत में माँगी गयी माफी का कोई औचित्य नहीं। चुपचाप किये प्रायश्चित मन को संतुष्ट तो अवश्य कर लेते हैं किन्तु आदरणीयों को विश्वास दिलाने के लिए तरह-तरह उद्घोष और संकल्प करने ही पड़ते हैं।
@ डॉ. मोनिका जी ,
आप इस प्रायश्चित के गवाह बने .... मन को वैसे ही अच्छा लगा जैसे कोई अनजाने में हुए गौवध पर गौ-पुच्छ लेकर घुमते हुए को अपने द्वार पर हिकारत से न देखकर सहानुभूति से पानी पिला दे।
@ आदरणीय स्वर्णकार जी,
आपने रचना में हुई त्रुटियों को नज़र अंदाज़ किया और अपने प्रेम में फिर डुबो दिया ... कंठ में कफ जमा हो गया है ... आवाज़ शायराना हो गई है। शायद आपके कंठ को सुनकर ईर्ष्यावश मेरा कंठ हड़ताल पर बैठ गया है। :)
@ आदरणीया प्रतिभा जी,
'धूर्तराज' संबोधन तो दंडस्वरूप बोला गया है। जरूरी नहीं वह सच ही हो ... दंड तो सही होते हैं अथवा गलत। उनका सच और झूठ से लेना-देना नहीं।
प्रायश्चित स्वरूप स्वीकार किया गया दंड ... सच है। और सच है 'दृष्टि में दोष का न होना', 'भावुकता में होश का न होना'।
@ डॉ . शास्त्री जी,
मकर संक्रांति .... 'उत्तरायणी' पर आपके आशीर्वचन मेरा हित करेंगे - ऐसा मेरा विश्वास है।
@ आदरणीय अरुण जी, नमन। मेरे इस प्रायश्चित पर आपका आगमन मेरा मनोबल लौटाने वाला सिद्ध हुआ। रविकर जी जानते थे प्रश्न रूप में यदि टिप्पणी होगी तो मुझसे रहा नहीं जाएगा और मैं प्रतिक्रिया को तुरंत प्रस्तुत (उतावला) होऊँगा इसलिए वे तीसरी बार में प्रश्न रूप लेकर आये। :) किन्तु आपने आकर मेरे साधारण से रुदन को अपने छंद से सँवार दिया। आभारी हूँ।
पंडित 'टीका-टिप्पणी' को नित ही ललचाय।
लेकिन उलटी आ पड़े, जब वह नेकु न भाय।
जब वह नेकु न भाय, पंडिता हो यदि नारी।
प्रवचन भी अपशब्द, दीखते भरकम-भारी।
होकर के निरुपाय किया है खुद को दण्डित।
नव भाषा दरकार मुझे, अये गुरुवर पंडित।
@ प्रिय संजय जी, सुप्रभात !
आपका स्नेह संबल है मेरा, आपका सुझाव मेरे मन का स्वर ही होता है।
bahut achcha
bahut badhia..
बाहर गयी हुई थी इसलिए इस उत्तम पोस्ट को देर से पढ सकी।
सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
श्री टी. बी. सिंह जी, अजित गुप्ता जी, प्रसन्न वदन चतुर्वेदी जी आप सभी मेरे प्रायश्चित में शामिल होकर मुझे उबारने में सहायक रहे ... आभारी हूँ।
प्रिय अयोध्या प्रसाद जी,
आप क्योंकि मेरे पिता के नाम वाले हैं इसलिए मेरा आदर आपके प्रति स्वतः उत्पन्न हो जाता है। मेरे इस प्रायश्चित से मेरे पिता तो अनजान रहे लेकिन आपका नाम इस सूची में शामिल हुआ तो बहुत राहत मिली। दुःख के क्षणों में आत्मीय जन किसी भी रूप में साथ रहें तो शीघ्र उबरने में मदद होती है।
एक टिप्पणी भेजें