एक राह में
बार-बार मिलने से
मैं परच गया उससे।
चाहा बात करूँ उससे
परिचय से
स्नेह हुआ जिससे।
एक बार मैं
असमंजस में था
कि क्या बात करूँ मिलने पर।
सहसा वह
बोल पड़ी मुझसे - 'भैया'
'कहाँ खोये रहते हो, शरम से कुछ न कहते हो।'
चाल रोक कर
उन शब्दों का
जिनमें मिला हुआ था स्नेह सुधा-सा
- श्रवण कर लिया
- 'भैया' शब्द स्वीकार कर लिया
सहसा मुख से शब्द निकल गया 'बहना !'
बार-बार फिर
जब भी मिलते
हँसते, फिर भी बात न करते
वह थोड़ा रुकती चलते-चलते
शरम से कर देती झुक कर 'नमस्ते ...भैया!'
मेरी पहली भावपरक मुक्तछंद की रचना।
यह विद्यार्थी जीवन का काल्पनिक स्वगतालाप भी है।
जिसके बहिन न हो, उसे यह 'शब्द', यह 'संबोधन' बहुत रोमांचित करता है।
लेकिन जब बहिन होती है या मुँहबोली बन जाए तब मन में उसके प्रति सहसा उपज आये कुविचार इतनी शर्मिंदगी से भर देते हैं कि डूबने को पानी खोजते हैं। अपनी नज़रों में गिरा देते हैं।
सबके मस्तक बहिनों के तिलक से शोभित नहीं हुआ करते। ... यह ईश्वरीय सुख है जो विरलों को मिलता है।
13 टिप्पणियां:
बहुत खूब । बहुत 'भाइयों" के साथ अक्सर ऐसा होता रहता है । हा हा ।
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ब्लॉग जगत में नया "दीप"
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नमस्ते भैया!
नमस्ते भैया !
:)
सबके मस्तक बहिनों के तिलक से शोभित नहीं हुआ करते …
भाई दूज के अवसर पर आपकी यह कविता विशिष्ट बन गई है प्रतुल जी !
सुंदर भाव और सुंदर शब्द…
खूबसूरत रचना !
कुछ रिश्ते सहज ही बन जाते हैं।
कविता से भी ज्यादा अच्छी पंक्ति ये लगी - ’सबके मस्तक बहिनों के तिलक से शोभित नहीं हुआ करते। ... यह ईश्वरीय सुख है जो विरलों को मिलता है।’ - सहमत
शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन,पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने.बहुत खूब.
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
suprabhat guruji
aisi baton ka hum gila nahi karenge
eek-duje ko tilak laga ye kami poora karenge....
pranam.
बहुत सुन्दर ..
@ ई. प्रदीप जी, हाँ ये बात सही होगी कि बहुत भाइयों के साथ ये हुआ हो, होता हो।
रचना काल में 'विषय' का साधारण होना मेरे ध्यान में नहीं था। और न ही इसका सामान्यीकरण करना मेरा मकसद रहा। मन की उस अनुभूति को मैं शब्द देना चाहता था जो मेरे राह चलते उपजे प्रथम स्नेह का कारण थे। इसका आस्वादन वही कर पाते हैं जिसकी कल्पना में मधुर स्वर में 'भैया' शब्द सुनने की चाहना रही हो। :)
ई. प्र. कु. सा. जी,
वास्तव में इस जैसी न ही कोई घटना मेरे साथ घटी और न ही राह चलते किसी ने मुझसे उक्त संवाद किया। स्कूली जीवन में एक छात्र पढ़ाई के साथ-साथ किस काल्पनिक दुनिया में विचरता है यह इस रचना से मुझे आज महसूस होता है।
ब्लॉग जगत में आप एक 'नया दीप' लेकर आये। स्वागत है। 'आपका दीप' इस दृष्टि से महत्वपूर्ण बन पड़ा है कि आपने बुझे या कम प्रकाश दे रहे दीपों को अपने 'दीप' से प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया है। शुभकामना।
@ डॉ. रूपचंद्र जी,
'नमस्ते भैया ' कहकर अपने उच्चारण को आपने परखा। इसी से होती है आनंद की बरखा।
@ आदरणीय बंधु स्वर्णकार जी,
आपकी सराहना अब तो 'पर्व' बन जाती है।
@ मदन मोहन जी, सब पाठक आप जैसी तन्मयता से पढ़ने वाले नहीं होते। क्या खूब सराहना की है .. एक लेखक को एक अच्छा पाठक मिल जाए, उसे और क्या चाहिए। :)
@ प्रिय संजय झा जी ,
सुप्रभात।
प्रेमी स्वभाव हैं आप। :)
अभाव पर एक कदम खुद आगे बढ़ाकर दिलासा दिलाते हैं।
सच है ... परस्पर का तिलक लगाना ही दोनों को अभाव महसूस नहीं होने देगा। किसी से कोई गिला नहीं।
@ ए. प्रसाद !
आपके आगमन पर वैसा ही शिष्टाचारी हो जाता हूँ जैसा कि एक उद्दंड बालक पिता के आने की खबर से। आप और मेरे पिता समनामी जो हैं।
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