शनिवार, 1 सितंबर 2012

प्रियंवदा-प्रवास पर

तू ही मेरा मधुमेह है
तू ही मेरा अस्थमा
तू ही है पीलिया पियारी
तू ही नज़ला प्रियतमा.
 
तुममें जितनी भी मिठास थी
मैंने पूरी पान करी
हृदय खोलकर सुन्दरता भी
तुमने मुझको दान करी.
 
स्पर्श तुम्हारा मनोवेग को
शनैः शनैः उकसा देता
उस पर शीतल आलिंगन फिर
स्नेह वर्षण करवा लेता.
 
तुम हो नहीं, इसी से अब तो
समय-असमय खाता हूँ
हलक सूखता, श्वास उखड़ता
हृदय-काम ढुलकाता हूँ.
 
जितनी भी शर्करा आपसे
समय-समय पर पान करी
निकल रही निज संवादों में
श्वास तप्त के साथ अरी!
 
 

कभी-कभी शृंगार में हास का अतिरिक्त पुट डालने से संभावित अश्लीलता समाप्त होती है. यह रीति रस-मर्मज्ञों को स्वीकार्य है.
 
पहली चार पंक्तियों में जितने भी रोगों का उल्लेख हुआ है .... काव्य विस्तार में 'कार्य-कारण संबंध' खोजा जा सकता है.

15 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

बहुत संक्रामक कविता है , सारे तरह के जीवाणु और विषाणु हैं इसमें ! मेरा सुझाव है की सभी लाइफ सेविंग ड्रग्स साथ में रखकर ही इस कविता का रस पिया जाये !

Ramakant Singh ने कहा…


स्पर्श तुम्हारा मनोवेग को
शनैः शनैः उकसा देता
उस पर शीतल आलिंगन फिर
स्नेह वर्षण करवा लेता.
शीतल मंद समीर की भांति अद्भुत संवेदना

Rohit Singh ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Rohit Singh ने कहा…

ये कविता पढ़कर दिव्या जी के पास जाना पड़ेगा इलाज के लिए। अब क्या कहूं? प्रयोग करने की इजाजत मर्मज्ञों ने अवश्य दी है.... पर कविवर जी आप हास्य पुट तो सरलता से डालो..

Rohit Singh ने कहा…

इधर भी क्षमाप्रार्थी हूं...

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji....


ye to juban pe anti-ceptic laga kar hi padha.....sankraman ka khatra tha


pranam.

कुमार राधारमण ने कहा…

कहा खूब था करो नियंत्रण,माने मगर नहीं प्यारे
दर्शन में दर्शन भूले,ना मार्ग धरा क्यूं मध्य अरे!

कुमार राधारमण ने कहा…

कविवर,
दर्द के लिए दो उपायः
1. अरण्डी के तेल में धीमी आंच पर लहसुन की कली को जलने दें। फिर उसे छानकर मालिश करें, लाभ होगा।
2.एक साफ बोतल में पुदीनासत्व(आसमान तारा) डालें। उसमें 10 ग्राम अजवायन का सत्व और 10 ग्राम कपूर को पीसकर डालें और ढक्कन बंद कर दें। थोड़ी देर में यह मिलकर द्रव रूप हो जाएगा। इसे ही अमृतधारा कहते हैं। अब 250 ग्राम सरसों का तेल गर्म करें और उसके ठंडा होने पर उसमें लहसुन के छोटे-छोटे टुकड़े करके डालें और तेल को तेज आंच पर तब तक गरमाएं जब तक लहसुन की कलियां जलकर काली न हो जाएं। अब तेल को नीचे उतारकर उसमें 20 ग्राम रतनजोत डालें जिससे तेल का रंग लाल हो जाएगा। इस तेल को ठंडा कर बोतल में भर लें और इसमें अमृतधारा तथा 100 ग्राम तारपीन का तेल मिला ले। इस प्रकार तैयार लाल तेल सभी दर्दों को हरने वाला बताया गया है।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ दिव्या जी, आप सभी आगंतुक पाठकों को संक्रमित कविता से सावधान करके एक सहृदय चिकित्सक का धर्म निभाते हैं. कवि यदि चिकित्सकों की दुकानदारी का भी ध्यान रखे तो क्या बुरा है? इस कविता के रसपान से 'लाइफ सेविंग ड्रग्स' की डिमांड बढ़ेगी. अच्छा तो मेरी भी सभी को एक सलाह है... वैद्य या डॉक्टर्स की सलाह लेकर ही बताये गये 'मेडिकल स्टोर' से ही दवा-दारु करें .... अन्यथा ग़लत परिणाम भोगने पड़ सकते हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रमाकांत जी,
शीतल मंद समीर जिस तरह, त्वक लोम हर्षाता है.
वैसे ही पिय लय में निज मन, वेदन अद्भुत गाता है.

संवेदना वही सच्ची जो, सीधे हो पर-हृदय तरे.
जैसी तब थी हुई प्रतीति, वैसी ही अब हुई अरे!

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…


@ रोहित जी,
आप चिकित्सा के लिये डॉ. दिव्या जी के पास जाएँ... इससे अच्छी क्या बात है... मैं भी अकसर चिकित्सा हेतु वहाँ आता-जाता हूँ.

हम जीवन में जिनसे जूझ रहे होते हैं.... प्रायः वही अपने लेखन की विषयवस्तु बनाते हैं. गंभीर विषयवस्तु जब तनाव देने वाली हो तब उसकी गंभीरता की पीड़क वायु 'हास्य' पुट की चुभन से निकालने की सोचता हूँ.

आप शायद इसे फिल्मी अंदाज़ में जल्दी समझें : 'हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया' .... कुछ ऐसा ही है गंभीर उपमाओं के प्रयोग के माध्यम से अपनी दो वृत्तियों का एक साथ उदघाटन - हृदय में स्थायी 'काम' और उसे समझ पाने की 'चेतना'.

जिस भृतर्हरि ने शृङ्गारशतक लिखा उसी ने बाद में 'नीति' और 'वैराग्य'शतक भी लिखे. जिस मैथिल कोकिल 'विद्यापति' ने अपने इष्टों का शृंगार-वर्णन किया उसी ने उनकी अनुपम वंदना भी की.

आपको एक बात विदित ही होगी कि 'शृंगार' का जनक रस 'हास्य' ही है. जब हम कोई शृंगार रचना करते हैं उसमें 'रति' के अलावा सबसे अधिक मिलावट 'हास' की ही कर सकते हैं.

जैसा की ब्लॉग के उद्देश्य में उद्घोषित भी है कि ''भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी।"

अतः इस जटिलता पर क्षमा माँगने के अलावा मुझपर कोई अन्य उपाय नहीं है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…


@ प्रिय सञ्जय जी,

अपने आप चिकित्सीय उपाय करने से हानि होगी.... आपको भी पहले डॉक्टरी सलाह लेनी चाहिए थी :)

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…


@ कुमार जी,
मार्ग मध्य चुनकर ही मैंने, गृहस्थ धर्म अपनाया है.
सुख के साथ मिलेंगे दुःख भी, ये दर्शन हो पाया है.
छूट नियंत्रण दोनों को ही, एक साथ विकसाया है.
दर्शन का है लाभ तभी जब होती सुन्दर काया है. :)

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…




डॉ. रमण जी,

आपके बताये उपायों को अवकाश वाले दिन क्रियान्वित करूँगा.
आभार.

Rohit Singh ने कहा…

मित्रवर आपकी बात एकदम दुरुस्त है।
दो बातें
एक-मिलना कहीं भी हो हम लोगो का ..अपन तो काव्य रस से भिंगेंगे....पर डॉक्टर के यहां मरीज बनकर भगवान कभी न मिलाए....
दो-हास्य की कोई भी शैली सभी को पसंद आती है। मेरा आग्रह बस ये था कि कभी कभी काका हाथरसी जैसी छंद मुक्त भी मिल जाए तो बुरा नहीं।

दो बात तो हो गई..एक बात औऱ (भई एक-दो बात करके पेट नहीं भरता अपनों से) जब कभी आफके प्रवाह में कोई रुकावट लगेगी तो कुछ कहते रहेंगे हम.....आखिर श्रोता हैं हम।