पहली बार जब आईं तुम
मेरी जिह्वा अपरिचित थी.
ना बैठाया मैंने तुमको
ना जाना था तुम जीवन हो.
पय पीकर भी तरसते थे
पीने को स्नेह-नीर अधर.
तुम अधरों तक आईं किन्तु
मैंने अज्ञ बन विदा किया.
तुम मेरे सह हँसी खेली
मुझको निज मीत बनाकर
लोय-लोर शैशव के तुमने
सुखा दिये लोरी गाकर.
वय-संधि में अचानक ही
तुम भूल गईं लोरी गाना.
चंचल बन तुमने शुरू किया
मुझे प्रेम-गीत सुनाना.
31 टिप्पणियां:
वेदना अधिक मिली इस गीत में.
अति सुन्दर रचना .
.
प्रतुल भाई ,
कुछ अंतराल पश्चात दस्तक दे रहा हूं ... लेकिन बिना आहट किए आता अवश्य रहा हूं
:)
सुंदर रचनाओं का आनंद और ज्ञान का प्रसाद पाता रहा हूं ...
आपके सुंदर सृजन के लिए आभार !
मंगलकामनाओं सहित ...
बहुत मासूम भाव प्रतुल जी!!
शैशव से युवा होती कविता!! बहुत खूब!!
अब तो दृष्टि कमजोर हुई
थरथर कांप रहीं बाहें
ना मंजिल की चाह रही
ना मिलती हैं मुझसे राहें
कविता!
तू न गई मेरे मन से।
काफी दिन बाद आना हुआ आपके ब्लाग पर मित्र....लगता है कविताओं का रुप बदल रहा है...इसे नई कविता कहूं या कुछ और, पता नहीं....शब्दों का खेल बदल गया है....अपनी-अपनी शैली है....पर शायद में कुछेक ही कविता पढ़ पाया हूं इसलिए मुझे शैली अलग नहीं लग सकी हो......हो सके तो समझाने का कष्ट करें..अलंकृत भाषा का प्रयोग कम किया है क्या?
कविता कुछ समझा तो रही है , लेकिन मेरा अज्ञान मुझे कुछ समझने नहीं दे रहा !
@ अल्पना जी,
संवेदनाओं से भरा हृदय ही सूंघ पाता है कि किस आह-कराह में वेदना छिपी है. इस रचना के गीति तत्व को पहचानना आपके लिये संभव हो सका.... मेरी आरंभिक कविता धन्य हो गयी.
@ आदरणीय राजेन्द्र जी, आप संवाद समेत जब चाहे यहाँ उपस्थित हों... किन्तु आपके बिना आहट किये आने से अपरिचित नहीं हूँ. आपके आशीर्वचनों से ब्लॉगजगत की विद्वतमंडली को पहचानने लगा हूँ और सत्संग का लाभ भी लेने लगा हूँ.
@ सुज्ञ जी, भावों की मासूमियत संभव है... 'मैंने कविता के छोटे रूप 'लोरी' को बेशक बड़े होकर पहचाना.. लेकिन उस (कविता की छोरी) के साथ बचपन से खेला हूँ. प्राथमिक पाठशाला में 'पहाड़ों' के याद करने में भी कविता का गीति रूप साथ रहा. धीरे-धीरे उसके रूप ने अपनी पहचान 'प्रेम-गीत' में बदल ली. आगे क्या कहूँ... उसके मोह-पाश से आज़ तक बाहर न आ सका. वही कभी 'नयी कविता' और कभी 'अकविता' रूप में सामने आ जाती है और मुझे अपने से बाँधे रखती है.
@ देवेन्द्र जी, सच है ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ चाहे तो अपनी शक्ति क्षीण ही क्यों ना कर लें और तो और ... चाहे मन की इच्छाएँ समाप्त हो लें, कोई उपाय ना सूझता हो या फिर समाज की घोर उपेक्षा मिले.... कविता ही है जो आखिरी लम्हों तक साथ निभाती है. "राम नाम सत्य है..." में भी तो एक धुन है, लय है.
@ रोहित जी, जानता हूँ आपको संतुष्ट नहीं कर पा रहा हूँ... क्षमताएँ वैसी नहीं जैसी अपेक्षित हैं. असल बात आपसे छिपकर अब नहीं रह सकती.... "लगता है कविताओं का रूप बदल रहा है..."@ यह मेरी शुरू की रचना है. १९९० की... हाँ, उदघाटित अब हुई है. मेरी बहुत सी रचनाएँ ब्लॉग-आरम्भ होने पर ही जग-जाहिर हुई हैं. सोचता हूँ यदि इन्टरनेट और ब्लॉग लेखन जैसी सुविधा न होती तो इन सभीको दीमकों का भोजन बनना पड़ता. एक डायरीनुमा कॉपी तो दीमक चाट भी गये हैं... यदा-कदा उनकी पंक्तियाँ याद हो आती हैं... पूरी रचना याद न आ पाने के कारण दुःख होता है. इस रचना से मैंने दो हेतु साधे हैं.... एक तो यह रचना 'कविता' के विभिन्न रूपों पर बात करती है. दूसरे 'सहचरी' पर.... जिसका साथ बढ़ती आयु बोध होने के साथ ही छूट गया. आप भी अवगत होंगे अपने समय के सामाजिक दायरों से."इसे नई कविता कहूं या कुछ और, पता नहीं...."@ इसे कविता से संवाद कह सकते हैं. या फिर एकालाप, या कविता के लिये 'स्वगत-कथन'. 'कविता' का उद्देश्य 'स्वान्तः सुखाय' होना भी तो है. मुझे कविता को 'नई कविता' और 'अकविता' जैसे साँचों में बाँधना कतई पसंद नहीं है ... लेकिन फिर भी आज ये उप-विधायें अपनी पहचान बनाए खड़ी हैं. इन्हें हतोत्साहित तो नहीं किया जा सकता ना!!"शब्दों का खेल बदल गया है....अपनी-अपनी शैली है...."@ मुझे शब्दों का खेल शुरू से पसंद है...तो इस नीरस रचना में कैसे छोड़ सकता हूँ.अलंकृत भाषा का प्रयोग कम किया है क्या?@ इस रचना का सामान्य सौन्दर्य तो पहचान में आ जायेगा. किन्तु विशेष सौन्दर्य इस बात में हैं "बच्चा अपनी नासमझी में उसकी अवहेलना कर गया जो उसके लिये सबसे ज़्यादा ममतामयी रहा."यहाँ कविता से ही संवाद बनाया गया है और 'लोरी' में उसका ही छोटा रूप पाया है. कविता ही 'लोरी' को मेरे पास भेजती थी आँसुओं को पोंछने के लिये.मुझे तो इस बात में ही भावगत सौन्दर्य प्रतीत होता है, भाषागत अलंकरण की चाह मैंने यहाँ नहीं की. वह यदि अपने आप आये तो स्वागत अन्यथा उसे जबरन तलाशकर ढूँढा जा सकता है.
रोहित जी, आपकी प्रतिक्रिया सर्वश्रेष्ठ कहूँगा क्योंकि यह मन की परतें खोलने को बाध्य करती है.
@ दिव्या जी, किसी और का भोगा हुआ सत्य समझने में कुछ समय लगता है. लेकिन यह अज्ञान नहीं... यह अनजानापन है.
अनजानापन या फिर अनभिज्ञता ?
@ ठीक कहा....अनजानापन नहीं अनभिज्ञता ही है.... अनजानापन तो तब कहा जायेगा जब आप शुरू से साथ रहे होते.
'अनभिज्ञता' इसलिये सही है क्योंकि यह पक्ष आपसे छिपा हुआ रहा.
शब्द की परख करके उसे वाक्य में प्रयुक्त करना कोई आपसे सीखे.
पुनः विचार करवाने के लिये आभार.
जैसे दूर उमड़े घनघोर घन को देखने मात्र से मन नर्तन करने लगता है, और जो वे घनघोर धारा के रूप में जब मिलन हेतु धरा पर चले आते हैं तो उस आनंद कि उपमा ही नहीं हैं.
इसी प्रकार आपके काव्यघन को देख मन नीलकंठी हो पँख पसार नृत्य तो करने लगता हैं, पर जब तक धारा(अर्थ) रूप में बरसे नहीं तो यह कलापी कलपता ही रह जाता है.
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जैसा की आदरणीय स्वर्णकार जी ने कहा :-
कुछ अंतराल पश्चात दस्तक दे रहा हूं ... लेकिन बिना आहट किए आता अवश्य रहा हूं
:)
सुंदर रचनाओं का आनंद और ज्ञान का प्रसाद पाता रहा हूं ...
आपके सुंदर सृजन के लिए आभार !
@ अमित जी, आपके संवादों में आनंदातिरेक में कवित्व समा गया है.
जब आपका मयूर मन 'दर्शन-प्राशन' के जंगल में चुपचाप नर्तन किया करता है... तब 'पाठक-विजिट' संख्या में बढ़ोतरी तो होती है लेकिन किसी अन्य को पता नहीं चलता.
"जंगल में मोर नाचा किसने देखा!"
वैसे भी अर्थ (धारा) विस्तार करना आजकल अन्याय होगा.... मानवीय अनर्थों ने संकट पैदा किया हुआ है.... बहुत से असजग लोग बाढ़ में बह जाते हैं.
1990 की कविता बताकर आपने मंझधार से निकाल लिया....शुरु में कहना चाह रहा था कि कविता में उस शिल्प का अभाव नजर आ रहा है जिसे देखने के आदि हैं हम..पर लिख न सका..शायद काफी दिन बाद आने के कारण ऐसा हुआ...मैं मानता हूं कि कविता सुनकर पढ़कर तत्काल जो समझ में आए वो जरुरी नहीं अंतिम सच हो..हर कविता का अपना रुप होता है..शब्दों का खेल चाहे हम लेखों में करें या कविता में ये कवि औऱ लेखक पर निर्भर करता है। हर कविता हर किसी को समझ आ जाए ऐसा भी संभव नहीं। दरअसल हुआ यूं कि आपके ब्लाग की लिखी बातें आपके ब्लाग पर आते और पढ़ते वक्त दिमाग में रहती हैं इसलिए कविता में अनायास किसी तरह की रुकावट या बहती नदी की धारा में आई रुकावट पर दिमाग दिल को धमकाने लगता है ..औऱ अगर कविता दिल तक जाने से दिमाग रोकने लगे..तो कहीं कुछ समस्या होती है...पर ये बात भी हमेशा अंतिम सच नहीं होती। दरअसल सरलता के साथ कविता को आपने जनता तक पहुंचाने और अनुप्रास अलंकारों का वापस लाने का कठिन बीढ़ा उठाया था उसको नजर में रखते हुए कुछ कविताओं को पढ़ने से लगा जैसे आप राह भटक रहे हैं। मगर लगा कि ये भटकन भी कविता की दुनिया में ही हो रही है तो क्या फर्क पड़ता है। पर ये जानकर दिल खुश हुआ कि ये कविता उन दिनों की है जब दिल हर बात पर कविता और शायरी करता है। आपके लिए हम श्रोता हैं औऱ जरुरी नहीं कि हर श्रोता को हर कविता आसानी से ही समझ आ सके। इसलिए कोई बात अप्रिय लगी हो तो क्षमाप्रार्थी हूं।
"हर कविता का अपना रूप होता है.."
@ शैशव कविता का रूप 'लोरी' में है, शिशु को सुलाते हुए दी जाने वाली थपकन में है, जिसमें वह हर थपकन पर आँखें बंद किये ऊँ-ऊँ का भ्रामरिक निनाद करता है. बालपन में रटे जाने वाले पहाड़ों में है,
एक शरारती रूप उसके दोस्तों में परस्पर रखी जाने वाली गेय चिढों में हैं.
एक अन्य चपल रूप देसी-आंचलिक खेलों में सहायक वाक्यों व गीतों में है.
किशोर वय में कविता का हास्य रूप पसंद आने लगता है. नवल युवा को कविता का गोपनीय रूप पसंद आता है जो कभी आवरण लेता है तो कभी निरावृत होता है. युवा को कविता का सामाजिक रूप भी आकर्षित करने लगता है.
प्रौढ़ों और वृद्धों को कविता का धार्मिक, सांस्कृतिक रूप प्रभावित करता है.
"जैसे आप राह भटक रहे हैं। .."
@ प्रिय रोहित जी, आप जितनी सूक्ष्मता से विश्लेषण कर संभावनाएँ व्यक्त करते हैं. उसे नकार नहीं सकता...
बचाव में कुछ कारणों को ढाल बनाने की सोच रहा हूँ :
— अलंकारों के अभ्यास में 'आलस्य' अंतराल ले आया है.
— मैं कभी स्वयं छंद कविता से इतर रचनाओं की खिलाफत करता था. लेकिन उसका विरोध करते-करते, उसके तम्बू उखाड़ने का उपक्रम करते-करते उससे लगाव हो गया. भँवरों के साथ रहने से गूंगों को भी गुंजार करना तो आ ही जाता है.
भँवरों के साथ रहने से गूंगे तिलचट्टों को भी गुंजार करना तो आ ही जाता है. :)
मित्रवर आपकी ढाल अनावश्यक भी है और कमजोर भी....इसलिए इसे तो उठाकर फेंक दिया है मैने...।
दरअसल हमारी समझ में आए या नहीं, संसार की हर चीज में संगीत है..अब जहां संगीत है वहां गीत है...जाहिर है इस हालात में हर चीज को नकारा नहीं जा सकता। संसार परिवर्तनशील है तो कई बार उससे भी प्यार हो जाता है जिसे आप पंसद नहीं करते। नई कविता भी तो हम आम लोगों की नजर में कविता ही है..इसलिए नई कविता या छंद मुक्त कविता को नकारने का मतलब होगा लाखों दिलों से निकलने वाली सहज भावनाओं को बंद करने का प्रयास..। जिस भावनाओं को बाहर आने का आसान रास्ता मतवाले महाकवि निराला ने दिया हो उससे तो प्यार वैसे भी स्वाभाविक है। इसलिए दिल की भावनाएं जैसे भी कविता में निकले स्वागत है। कविता का रुप क्या है ये तय करना मर्मज्ञों काम है हमारे जैसे आम लोगो का नहीं। अलंकारों को ले कर आलस्य की बात है ये कोई बड़ी बात नहीं। मन अचानक अलंकारों की भाषा कहने लगे तभी बेहतर होता है। सप्रयास अलंकारों का प्रयोग उचित नहीं होता औऱ दिल को रास भी नहीं आता। आपका ध्यान इसलिए इस पर दिया क्योंकि इसकी घोषणा आपने अपने ब्लॉग पर खुद की है। दरअसल मुझे लगा शायद आप इस बात को भूल गए। दूसरे मैंने हमेशा कहा कि हम आम श्रोता है औऱ जिसे कोई बात अच्छी लगे तो वो कुछ न कुछ कहता है। दिल को पसंद आने पर वो शीला की जवानी गाने पर भी थिरकता है और दिल को छुने वाली कविताओं की पंक्तियों पर भी झूमता है....। ठीक यही स्थिती मेरी भी है। मैं कोई कविता का मर्मज्ञ नहीं आम श्रोता ही मित्रवर।
पहली बार जब आईं तुम
मेरी जिह्वा अपरिचित थी.
ना बैठाया मैंने तुमको
ना जाना था तुम जीवन हो.
@ इसमें अलंकार हैं : मानवीकरण, सांग रूपक
अर्थ (बालक पक्ष से) : 'लोरी' पहली बार मिलने आयी ... लेकिन परिचय न होने के कारण उसे न जीभ पर बैठने को कहा और न ही उसकी उपयोगिता को जाना. क्योंकि परखने का सर्वाधिक प्रिय माध्यम 'जीभ' ही है... और यहाँ 'जीभ' नये द्वारप्रहरी रूप में भी दर्शित है. वह नयी होने के कारण ही 'जीवनदात्री कविता की छोरी' (लोरी) के आगमन को न पहचान पायी.
मित्र रोहित, इन पंक्तियों का अर्थ एक अन्य पक्ष से भी किया जा सकता है जो कुछ शृंगारिक क्षेत्र के पाले में जाता है... इसलिये उसकी अर्थगम्यता की छूट पाठकों को ही है.
समय मिलते ही फिर लौटूँगा...
पय पीकर भी तरसते थे
पीने को स्नेह-नीर अधर.
तुम अधरों तक आईं किन्तु
मैंने अज्ञ बन विदा किया.
@ इसमें अलंकार हैं : लिप्सा अलंकार ...
आपने वीप्सा सुना होगा जिसमें विशेष इच्छा के कारण हम शब्द विशेष की दोहरावट करते हैं.
'लिप्सा' में इच्छा शांत नहीं होती... वह विकल्प तलाशती घूमती है.
'लिप्सा' के दो भेद किये जा सकते हैं... एक में तय विकल्पों की पहचान बनी रहती है.
दूसरे में विकल्पों की पहचान न होने से अवसर खोने का क्रम ज़ारी रहता है.
चलो पहले का ... 'लिप्सानयन' अलंकार नाम रखते हैं, और दूसरे का .... 'लिप्सांध' अलंकार.
अर्थ (बालक पक्ष से) : दूध पीने के बाद भी पीने की इच्छा बनी रहती थी, अधर 'स्नेह-नीर' (ममता की बारिश) को लालायित रहते थे. ओ कविता, तुम छोटे (लोरी) रूप में थपकन के साथ आती भी रहीं.... लेकिन अनजाने में मैंने तुम्हें विदा कर दिया. ये भी न जाना कि आप ही मेरी लिप्सा शांत किया करती थीं. हाय, ये क्या किया मैंने!!
तुम मेरे सह हँसी खेली
मुझको निज मीत बनाकर
लोय-लोर शैशव के तुमने
सुखा दिये लोरी गाकर.
@ इसमें अलंकार हैं : प्रतिरूप अलंकार...
उपमेय में उपमान का आरोपण इस तरह से किया जाये कि वह प्रतिरूप दिखायी दे.
अर्थ (बालक पक्ष से) : ओ कविता, तुम मेरे साथ हँसी-खेली हो अर्थात तुमने अपने छोटे रूप में बचपन मेरे साथ बिताया है. मुझे ये भी याद है कि तुमने मुझे मित्र मानकर मेरी अबोधता के आँसुओं को पौंछा भी है.
वय-संधि में अचानक ही
तुम भूल गईं लोरी गाना.
चंचल बन तुमने शुरू किया
मुझे प्रेम-गीत सुनाना.
@ इसमें अलंकार हैं : प्रतीति अलंकार
अर्थ (बालक पक्ष से) : ओ कविता, तुमने मेरी बढ़ती अवस्था को देखा है और उसके साथ ही मेरी बदलती रुचियों पर भी दृष्टि रही है. 'लोरी' ने मेरे पास कब आना बंद कर दिया और कब वह प्रेम-गीत में बदल गयी पता न चला. तुम्हारी चंचलता को मैंने आज़ जाना, जब विचार किया कि तुमने तो मेरा साथ कभी छोड़ा ही नहीं. बचपन की लोरी ही तो आज़ का प्रेम-गीत है.
मित्रवर आपकी ढाल अनावश्यक भी है और कमजोर भी....इसलिए इसे तो उठाकर फेंक दिया है मैने...।
@ रोहित जी, कोशिश की है कि आलस्य की ढाल न उठाऊँ. फिर भी कार्यालय के कार्य उकसाते हैं. बिना तैयारी के ही आज 'आलंकारिक समर' में कूद गया. देखते हैं कि आगे कौन योद्धा मिलता है.... मुझे बेहद पसंद आया आपका प्रेरित करना.
@हम श्रोता हैं
मित्रवर जैसा मैने कहा था कि मै मर्मज्ञ नहीं श्रोता हूं। जो लगता है वो कहूंगा। इसलिए और जबरदस्ती कहूंगा क्योंकि कविता समाज के लिए होती है और उसपर केवल कवि का हक नहीं होता। समाज मे हर तरह के श्रोता होते हैं। जैसा मैने पहले भी कहा कि श्रोतओं के दिल तक जो भी पहुंचे वो उससे स्वीकार करता है। जैसे कविता या गीत के नजर से शीला की जवानी वाला गाना एकदम घटिया है.....उसपर मेरी व्यंग्य पोस्ट भी है हाय हाय शीला की जवानी.....मगर उसके संगीत के कारण वो उसपर थिरकता भी है। वही श्रोता अच्छी कविता को भी अपने दिल के पास पाता है। उसे नहीं पता होता कि वो कौन से अलंकार से अलंकृत है या उसकी शैली कैसी। जैसा कि आपके उतर से पता चला कि कई अलंकार इस कविता में हैं।
अब बात आती है कि आपकी कविता की। तो मित्र समस्या ये हुई कि कविता की प्रथम पंक्ति में आपने जिह्वा शब्द का प्रयोग किया है। जिस छंद मुक्त कविता या नई कविता कहूं में आपने ये जो शब्द पहली ही लाइन में लिखा..वो कुछ इसी तरह लगा जैसे जैसे बहती धारा के बीच बड़ा सा पत्थर प्रवाह को रोकने के लिए शुरु में ही आ डटा हो। यानि प्रवाह शुरु होने से पहले ही अड़चन। अलंकार के तौर पर कहूं तो ये शब्द जिह्वा कुछ ऐसे ही मेरे जैसे सधारण श्रोता के सामने आ खड़ी हुई जैसे जयद्रथ चक्रव्यूह के पहले दरवाजे पर आ डटा था। कुछ लोग तो प्रथम द्वार को अभिमन्यु की तरह भेद गए होंगे। पर अपुन अजुर्न विहिन पांडवों की तरह बाहर ही रह गए। दरअसल अलंकारों की वजह से कई बार हुआ कि कविता को पुनः पुनः पढ़ा कई बार है। पर इस बार प्रथम पंक्ति में ही जिह्वा जयद्रथ की तरह द्वार पर टकरा गया। जिसे देखकर बाकी की कविता का सौंदर्य़ कम लगा। यानि इस संस्कृतनिष्ठ शब्द का पहली पंक्ति में किया गया प्रयोग बाकी कविता से जुड़ने से रोक गया। वैसे मर्मज्ञों की इस पर कोई औऱ टिप्पणी हो सकती है। एक बात औऱ है....दरअसल पंत, प्रसाद जैसे कवियों ने इस धारा को इतना समृद्ध करके छोड़ा है कि सधारण लोग उसके आसपास ही रहना चाहते हैं। यही काम निराला ने अपनी छंद मुक्त कविताओं से किया है औऱ इस नई शैली ने कई कवि संसार को दिए हैं। आपकी आरंभिक कविताओं में वो सब झलक थी। इसका मतलब ये नहीं कि आप हमेशा एक तरह की कविता में लगे रहें। आपका जो इतर प्रयास है वो भी मायने रखता है। हो सकता है आज नहीं तो कल हम जैसे सधारण लोग भी इससे प्यार करने लगें।
अरें हां ये तो भूल ही गया था कि ये कविता 1990 की है यानि आपके आरंभ के वर्षों की। पर मगर ये आई अब है तो टिप्णियां तो अभी ही झेलनी होगी..। हो सकते तो कोई और प्रवाहमान शब्द का प्रयोग करके इसे बदल सकते हैं । वैसे ये आपकी मर्जी है क्योंकि कवि को शब्दों से खेलना सिखाना सूरज को दीपक दिखाना है।
@ रोहित जी,
लेखन के आरम्भ में अव्यवहारिक शब्दों के प्रयोग के कुछ कारण थे :
— नये शब्दों को अपने व्यवहारिक शब्दकोश में शामिल करना... ऎसी लत अभी भी है... शब्द चाहे तत्सम हो या हिन्दी भाषा की किसी भी बोली का... पसंद आता है. गाँव-देहात में बोले जाने वाले बहुतेरे शब्द मुझे मेरी पत्नी से सीखने को मिल रहे हैं.
— अपभ्रंश शब्दों के मूल रूपों को जानने की चाह ने भी जटिल और अप्रयुक्त शब्दों के प्रति मोह बढ़ाया है.
— संस्कृत वाक्य विन्यास नहीं बना पाता ...इसलिये भी तत्सम शब्दों को हिंदी वाक्यों में स्थान देता हूँ.
— एक समय के बाद प्रयुक्त होते रहने से 'जटिलता' नहीं लगती...
एक छोटी घटना बताता हूँ :
डीटीसी बस में सफ़र करने के लिये 'बसपास' बनवाने को कंडेक्टर के पास खड़ा था. मैंने अपना नाम बोला - 'प्रतुल'. कंडेक्टर ने दोबारा पूछा. मैंने दोबारा बताया- 'प्रतुल'. कंडेक्टर समझ नहीं पाया.
पास खड़े व्यक्ति ने कहा - 'अरे भाई नाम तो आसान रख लेते.' मैंने उनसे कहा - इतने भी सरल मत होइए कि अपनी भाषा ही छोड़नी पड़ जाये.' बहरहाल मैंने उस हरियाणवी कंडेक्टर को इंग्लिश में 'पीआरएटीयूएल' लिखवाया.
तब कहीं जाकर मेरा बसपास बन पाया. अब उन महोदय ने भी जब बस पास बनवाने को अपना नाम बोला, तो वह उन्हें बहुत आसान लगा. उनका नाम था - चंद्रमौली पाण्डेय.
कहने का अर्थ यही है कि कठिनता और सरलता हमारी अपनी बनायी हुई है. मेरा रुझान शुरू से हिंदी और संस्कृत के नये शब्दों और उनके अर्थ जानने के प्रति रहा है.
ध्यान रखूँगा और प्रयास करूँगा कि आगे काव्य लेखन में पुरानी मधुरता लौट आये. इस बीच यदि पुरानी रचना रखता हूँ तो वह पूर्ववत ही रखूँगा.. वहाँ आप की क्षमादृष्टि बनी रहनी चाहिए. :)
प्रिय मित्र
मैने कहा कि वो आरंभ की कविता थी इसलिए उसे आप जस की तस रख सकते हैं। जहां तक नई रचाना की बात होगी तो इतना ही कहूंगा कि अगर कविता एक से अधिक शब्द इस तरह के होंगे तो वो कविता का अंग ही लगेंगे....चक्रव्यूह की तरह प्रथम दरवाजे के जयद्रथ नहीं....
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