क्या अब भी उतना ही प्रगाढ़
मुझसे करते हो प्रेम प्रिये !
जितना पहले करते अपार
दश शतक विरह दिन बीत लिये.
आयी थी कभी, याद मुझको
अपने यौवन में प्रेम बाढ़.
तुम बहे, परन्तु धीर बना
मैं अनचाहे लेता बिगाड़.
क्यूँ करता ऐसा नहीं समझ
आया मुझको अब तक छिपाव.
होते थे पास-पास लेकिन
प्रकटित होने देता न भाव.
हैं गोपनीय मन भाव सभी
बन गये हृदय के संस्कार.
अब चाहे भी ना कर सकता
उद्घाटित मैं उनका विकार.
खिल पुण्डरीक पंकिल जल में
महिमा बढ़ती सर की अपार.
थे गुप्त दुष्ट मन के विकार
उनसे निकले सुन्दर विचार.
19 टिप्पणियां:
कैसे भी,
स्वीकारो इसे-
वर्षों की संख्या तीन हुई, नित दीन-हीन अति-क्षीण हुई |
कल्पनी काट कल्पना गई, पर विरह-पत्र उत्तीर्ण हुई |
कल पाना कैसे भूल गए, कलपाना चालू आज किया -
बेजार हजार दिनों से मैं, क्या प्रेम-प्रगाढ़ विदीर्ण हुई ??
सादर ||
सशक्त और सार्थक प्रस्तुति!
उपमा अलंकार का अनुपम भाव लिए रचना
बहुत सुंदर ...
ह्रदय का संस्कार कुछ ऐसा ही होता है। बहुत कुछ समेटे रहता है अपने अन्दर। भावों को मन में दबा कर रखना और ह्रदय में संजोय रखना ही तो असली कला है।
रविकर जी की टिप्पणी ने पोस्ट का सौंदर्य बढ़ा दिया ही|
लेबल में 'कच-देवयानी'? वैसे 'ययाति' नाम से लिखा विष्णु सखाराम खांडेकर जी का उपन्यास मेरे प्रिय उपन्यासों में से एक है, शायद इसलिए ध्यान इधर चला गया|
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा शुक्रवारीय के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
क्या अब भी उतना ही प्रगाढ़
मुझसे करते हो प्रेम प्रिये !
जितना पहले करते अपार....
बहुत सुन्दर..........
उपमा वशिष्ठ अस्य ,अच्छी पोस्ट ,पहली बार आए ,देर आयद दुरुस्त आयद ....
शुक्रवार, 29 जून 2012
ज्यादा देर आन लाइन रहना माने टेक्नो ब्रेन बर्न आउट
http://veerubhai1947.blogspot.com/
वीरुभाई ४३.३०९ ,सिल्वर वुड ड्राइव ,कैंटन ,मिशिगन ,४८,१८८ ,यू एस ए .
उपमा वशिष्ठ अस्य ,अच्छी पोस्ट ,पहली बार आए ,देर आयद दुरुस्त आयद ....
शुक्रवार, 29 जून 2012
ज्यादा देर आन लाइन रहना माने टेक्नो ब्रेन बर्न आउट
http://veerubhai1947.blogspot.com/
वीरुभाई ४३.३०९ ,सिल्वर वुड ड्राइव ,कैंटन ,मिशिगन ,४८,१८८ ,यू एस ए .
@ रविकर जी,
जैसे आँगन में तुलसी का पौधा होता है, आप भी वैसे ही हर ब्लोगर की पसंद हैं और उपयोगी भी.
जैसे घर के द्वारे बँधी दुधारू गाय होती है जिसका हर उत्पाद उपयोगी है. आपकी खेल-खेल में कही काव्योक्ति भी भरपूर आनंद देती है. चिंतन करके जाँच-पड़ताल करके की गयी प्रतिक्रिया तो और भी अभिभूत करती है. आपकी दिव्य प्रतिभा के सम्मुख अनायास ही नत हो जाते हैं हम.
आपके लिये मेरे मन में एक संबोधन सूझता है 'शब्दों का खिलाड़ी'.
अपने जटिल वाक्य-विन्यास के कारण गजानन माधव मुक्तिबोध को 'शब्दों का राक्षस' कहा गया. लेकिन मुझे आप 'शब्दों के खिलाड़ी' लगते हैं जो प्रतिक्रिया देते में 'मनोरंजन' तत्व को भुलाता नहीं.
@ डॉ. मयंक जी, आपकी शाबासी-शब्दों के उच्चारण ने ध्यान खींचा.
@ अंत की पंक्तियों ने रमाकांत जी को सराहना करने को विवश किया ... उनकी इस विवशता पर प्रसन्न हूँ.
@ आदरणीया 'स्वरूप' जी शायद रचना की गेयता के वशीभूत होकर उपस्थिति देने को विवश हो गयीं.... ये विवशता भी दर्शनीय है.
@ दिव्या जी आपने दबे मन के भावों को संजोने और व्यक्त करने की कला (प्रतीकों में) को अच्छे से समझा है....
सच है...... कोई भी 'भाव' जब प्रत्यक्ष प्रकट न हो, केवल परत-दर-परत एकत्र होता रहे. तब वह स्वभाव बन जाता है और वही स्वभाव एक अंतराल के उपरान्त 'संस्कार' कहा जाने लगता है.
@ सञ्जय अनेजा जी, सही पहचाना .. ये रचना 'कच-देवयानी' से ही है...मुझे लगता है मनोभावों पर विस्तार से चर्चा करने के लिये कच, देवयानी, शर्मिष्ठा और ययाति नामक पात्र सर्वथा उपयुक्त हैं. इसलिये मैंने अपने 'प्रबंधकाव्य' (अपूर्ण) का विषय इनकी कथा को चुना.
@ प्रिय नारद जी,
आपके भ्रमण ने मेरे 'काव्य-सरोवर' में कमल खिला दिये. आनंदित हूँ.
@ प्रिय सुरेश कुमार जी,
आपको कविता के आरम्भ ने ही प्रसन्न कर दिया.... यह रचना की गेयता के कारण हुआ है.
@ वीरूभाई जी, अपनी सुविधा से आना-जाना एक समय के बाद अखरता नहीं....
'उपमा कालिदासस्य' उक्ति को बदलने की ज़रूरत नहीं... पहली बार में ही आप अपनी 'सर्वश्रेष्ठ सराहना' खर्च किये दे रहे हैं... लगता है दोबारा आने का विचार नहीं.
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