आचार्य परशुराम राय जी का इस बार का पाठ यहाँ http://manojiofs.blogspot.in/2012/06/116.html पढ़कर जानिये....कि काव्य में किन परिस्थितयों में अश्लील दोष भी गुण हो जाता है.
और वह शृंगार 'रस' के घर में न जाकर 'रसाभास' की दीवारें लांघता हुआ दिखायी देता है.
अरी अप्सरे अनल अवदात
शिथिल कर देने वाली वात
आपके अंगों का आकार
ध्यान आते ही गिरता धात।
देख तेरे मनमोहक प्रोत
नयन बन गये हमारे श्रोत
लिपटते हैं तन-चन्दन जान
सर्प, सुन्दरता का पा स्रोत।
आपको डसने को तैयार
नयन, लिपटे करते फुत्कार
किन्तु भ्रम में 'अहि-तिय-अहिवात'
स्वयं का कर लेते संहार।
लगाने को तत्पर है घात
तुम्हारे तन पर मेरा गात
विदारित* कर कदली-उरु खंभ
पतित मन में पल गया पलाद*।
कभी था मन पावन मर्याद*
स्वयं संयम था मैं अपवाद
देख मेरा यौवन अम्लान
मीनकेतन* भी खाता मात।
न जाये कब मन में उत्पात
मचाने लगा मदन मनजात*
अग्र उसके मद माया मोह
सैन्य दल था नासीर* अराति।
काकघर में कोकिल परजात*
कपट से पलते सदा विजाति.
प्रयत अंतर में पतित विचार
मदन-पिक द्वारा घुसे सयात*।
अरी गणिके, तुमने निज ओज
अम्ल जाना, चाटा कर भोज
कुष्ठ हो गया लिया परियात*
गोधिका गृह की लगती खोज।
पाठकों से अनुरोध : यदि शृंगार विषयक साहित्यिक चर्चा का मन हो तो जिज्ञासा भाव से ही शिष्ट और व्यंजना युक्त शब्दावली का प्रयोगकर प्रश्न करें या विस्तार दें.
पिछली कविता पर प्रतिक्रियात्मक टिप्पणियाँ आने वाले कल में की जायेंगी। काव्यात्मक टिप्पणियाँ मेरे लिए प्रसाद तुल्य हैं। उनको रचना से कमतर आँकना मेरे लिए सहज नहीं।
25 टिप्पणियां:
pratul jee ye to bahut hee gahan rachna hai..abhee to ise do char baar padhna padega..lekin comment karne kee sthiti me pauchte pahuchte kavita ke prati samjh aaur paini ho jati hai aapke blog per aaker..sadar badhayee ke sath
आदरणीय प्रतुल जी - पता नहीं आपने कभी अविनाश जी को पढ़ा है या नहीं - किन्तु मुझे लगता है कि उनकी यह कविता आपको अवश्य पसंद आएगी - आयु भर आशीष - http://penavinash.blogspot.in/2012/04/blog-post_21.html
सादर निवेदन -
आज-कल मेरी टिप्पणियां कई बार कई
ब्लॉग-स्वामियों द्वारा प्रकाशित नहीं की गई हैं -
अभय मिले तो कुछ रचूँ -
बड़ा कठिन प्रश्न-पत्र है आदरणीय-
कल से चार बार पढ़ चुका हूँ -
भूल-चूक माफ़ -
(1)
स्वर्ण-शिखा सी सज संवर, लगती जलती आग ।
छद्म रूप मोहित करे, कन्या-नाग सुभाग ।
कन्या-नाग सुभाग, हिस्स रति का रमझोला ।
झूले रमण दिमाग, भूल के बम बम भोला ।
नाग रहा वो जाग, ज़रा सी आई खांसी ।
कामदेव गा भाग, ताक के स्वर्ण शिखा सी ।।
(2)
नींद नाग की भंग हो, हिस्स-फिस्स सम शोर।
भंग नशे में शिव दिखे, जगा काम का चोर ।
जगा काम का चोर, समाधी शिव की छोड़े ।
सरक गया पट खोल, बदन दनदना मरोड़े ।
संभोगी आनीत, नीत में कमी राग की ।
आसक्त पड़ा आसिक्त , टूटती नींद नाग की ।।
(3)
मांसाहारी मन-मचा, मदन मना महमंत ।
पाऊं-खाऊं छोड़ दूँ, शंका जन्म अनंत ।
शंका जन्म अनंत, फटाफट पट पर पैनी ।
नजर चीरती चंट, सहे न मन बेचैनी ।
चला मारने दन्त, मगर जागा व्यभिचारी ।
फिर जीवन-पर्यंत, चूमता मांसाहारी ।।
पता नहीं क्या हो रहा है??
कुछ कह नहीं सकता अपनी मनस्थिति के बारे में ।।
क्या रच जाए ??
क्षमा करें आदरणीय ।।
(4)
प्रेमालापी विदग्धा, चाट जाय सब धात ।
खनिज-मनुज घट-मिट रहे, नष्ट प्रपात प्रभात ।
नष्ट प्रपात प्रभात, शांत मनसा ना होवे ।
असमय रही नहात, दुपहरी पूरी सोवे ।
चंचु चोप चिपकाय, नहीं पिक हुई प्रलापी ।
चूतक ना बौराय, चैत्य-चर प्रेमालापी ।।
महोदय !!
अंतिम पंक्ति में यदि ना के स्थान पर नहीं का प्रयोग करूँ और मात्रा पूरी करने के लिए चूतक (आम) का एक अक्षर कम कर दूँ - तो क्या अश्लील - दोष होगा ??
http://dineshkidillagi.blogspot.in/2012/06/blog-post_21.html
अद्भुत काव्य रचना । रविकर जी की टिप्पणियों ने चार-चाँद लगा दिए हैं।
@ डॉ. आशुतोष मिश्र जी,
मैं विलम्ब से प्रतिउत्तर को पधारा....
लेकर 'क्षमा' का सहारा.
आपके मन की साफ़ तस्वीर देखकर
जटिल 'अहंकार' 'समझ' की सरलता से हारा.
@ रविकर जी, हम लोग पहले सृजन (कला) की एक स्थिति पर विचार करते हैं.
— समस्या प्रधान फिल्म्स में होता ये है कि 'बलात्कार की समस्या दर्शाने के लिये फिल्म में उसे अच्छे से फिल्माया जाता है... और बताया जाता है कि ऐसे समस्या हल होगी.'
— सामाजिक रीतियों की कुरूप तस्वीर फिल्मों में दिखाकर उस पर 'निर्माता-निर्देशक नामक फिल्मी बुद्धिजीवी' सोचते हैं कि ऐसे समाज जागरुक होगा.
— भक्ति के दायरे में जब हम 'काम' को ले आते हैं.... तब क्या भक्ति अपनी शुद्धता नहीं खो देती?
— आर्ट के घेरे में जब 'अश्लीलता' हाई-फाई का पैमाना बन जाये तब 'कला' आर्तनाद ही करती है.
— चित्रकार अपनी कला की बारीकी दिखाने के लिये 'मानव' शरीर की नग्नता को ही चुनते हैं. यदि वे भक्ति की तस्वीरें चुनने लगते हैं तो वे मात्र गुजर-बसर करने वाले संघर्षरत कलाकार ही होकर रह जाते हैं.
— 'अश्लील दोष' दोष तभी माना जाता है जब वह किसी एक को भी अरुचिकर हो....
— 'अश्लील दोष' दोष तब भी है जब 'व्यक्तिगत चर्चाएँ' (अत्यंत निजी) सार्वजनिक करने का उपक्रम हो.
— 'अश्लील दोष' दोष तब भी जब 'दृष्टिकोण' भाव की संवेदना के साथ खड़ा न होकर स्व मन के 'काम' का साथ न छोड़े.
यथा -- एक ब्रह्मचारी ऋषि का नदी-स्नान के समय 'मत्स्य-मैथुन' देखकर अष्टकपात होने का वर्णन भी अश्लील दोष होगा.
फिल्म में शीलभंग के दृश्य को उत्तेजक रूप से फिल्माना भी 'अश्लील दोष' ही है.
यह 'गुण' केवल उस स्थिति में है जब वह परस्पर संवाद में दोनों के आनंद का हेतु हो. परस्पर संवाद किनके बीच होने से यह 'अश्लील दोष' गुण कहा जायेगा? ... इसके लिये समाज ने संबंधों की आचार-संहिता बनायी है.
और इसी प्रकार की आचार-सहिंता आज 'पाठक और कवि/लेखक' के बीच नहीं होनी चाहिए?
शेष चर्चा .... शायद कल..
@ दिव्या जी, प्रेम और आदर के कारण कभी-कभी 'कला' की विकृति से भी दीवारें सजायी जाने लगती हैं.... जिसे आज हम 'मॉडर्न आर्ट' कहते हैं उसे दरअसल समझने की जरूरत है...
आपकी 'सराहना और प्रशंसा' की छीटों में विवशता दिखायी देती है.
.
प्रतुल जी ,
रविकर जी के प्रश्न का जो उत्तर दिया है आपने , वह अनेक संशयों का समाधान करता है। बहुत ग्राह्य लगा और पूर्णतः संत्रुष्ट हूँ आपकी विवेचना से।
एक दुविधा है -
आपने लिखा - " मेरी प्रशंसा के छीटों में आपको विवशता दिखती है"
जानता चाहती हूँ की आपको ऐसा क्यों लगता है और मैं आपका भ्रम कैसे दूर कर सकती हूँ ? मैं प्रशंसा ह्रदय से ही करती हूँ । इसमें लेशमात्र भी झूठ नहीं होता।
बस एक विवशता अवश्य है। कभी-कभी इतनी उच्च कोटि की कविता को संभवतः समझ नहीं पाती हूँ। आखिर हीरे की पहचान तो जौहरी को ही होती है न । मेरी कमतरी ही हो सकती है की मेरी विवशता हो।
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@ दिव्या श्री,
वास्तव में ... जौहरी तो आप हैं..... और वो भी श्रेष्ठ.
जैसे 'सुरा' के पात्रों में 'दुग्ध' शोभा नहीं देता, वैसे ही 'विषय'-चर्चा में पौष्टिक (प्रशंसासूचक) शब्द कम सुहाते हैं.
आपकी सच्ची सराहना पर कतई संशय नहीं.... 'न समझ पाने की कमतरी' पर भी जब पूरे अंक दे दिये जाएँ तो उसे परीक्षक की विवशता ही कहा जायेगा ना.
रचना की कोटि की उच्चता क्या 'विषय' पर आधारित है? शृंगार में सबसे अधिक भावों की सन्निहिती होने के कारण से ही इसे स्यात उच्च स्थान देने पर सर्व सहमती बन जाती है.
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आपसे एक निवेदन है, कृपया इसी कविता पर एक टिप्पणी करके स्पष्ट करें की टिप्पणी कैसी होनी चाहिए। जिसमें न ही प्रशंसा की विवशता हो , न ही विषय के साथ अन्याय।
टिप्पणी करने की कला सीखने हेतु ऐसा निवेदन कर रही हूँ।
थोड़ी देर के लिए मान लीजिये की उपरोक्त रचना मेरी है तो इस पर आपकी टिप्पणी किस प्रकार होगी ?
किसी प्रकार की अशिष्टता कर रही होऊं तो क्षमादान अपेक्षित है।
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वैसे मेरा मानना है की एक कवि की उत्कृष्ट कृति के साथ न्याय एक कवि ही कर सकता है , जैसा की रविकर जी ने किया है। रविकर जी के समान, विषय को समझकर इतनी सुघड़ टिप्पणी करना और प्रश्न को उपस्थित करना , मेरे जैसे सामान्य पाठक के वश की बात नहीं है।
हिंदी के दो प्रकांड विद्वानों के मध्य अपनी स्थिति को भली भाँती समझती हूँ , अतः अनाधिकार किसी प्रकार की विद्वता का प्रदर्शन करने की कुचेष्टा नहीं करती। सिर्फ मुक्त भाव से काव्य-चर्चा का अमिय-पान करती हूँ और रसास्वादन के पश्चात उन्मुक्त कंठ से मात्र "वाह वाह" ही उच्चरित कर पाती हूँ।
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@ दिव्या जी, सन्न कर देने वाले सवाल किये हैं आपने.
सोचने लगा कि 'टिप्पणी (प्रतिक्रियाएँ) आखिर हो कैसी?
— क्या निर्धारित साँचों में ढली सी या फिर अनगढ़?
— क्या उन्मुक्त भावी या फिर भाव-नियंत्रित?
चलिए, कुछ स्थितियों पर विचार करते हैं, टिप्पणी (प्रतिक्रियाएँ) कैसी-कैसी हो सकती हैं :
[१] आँगन में खेलते बालक ने अपनी 'माता' से सहज प्रश्न किया "बच्चे कहाँ से आते हैं?"
इस प्रश्न के एकाधिक उत्तर हो सकते हैं, जो सभी सही हो सकते हैं.
बोध अवस्था को देखते हुए प्राथमिक उत्तर हो सकते हैं :
i] भगवान् के घर से... [क्योंकि हर जीव परमात्मा का अंश है, इस कारण यह उत्तर सत्य है]
ii] बाज़ार में मिलते हैं... [आजकल जन्म और मृत्यु तक बिना व्यय किये नहीं मिलते. केवल मृत्यु ही यदा-कदा बिना खर्च किये मिल जाती है. जहाँ हर वस्तु बिकती हो वह बाज़ार ही तो है...]
iii] होस्पीटल से ... आदि-आदि ...
सूरदास जी ने अपने पदों में इसी से जुड़ा एक प्रसंग गढ़ा है --
जब यशोमती से नंदलाला ने सवाल किया कि 'राधा क्यों गोरी मैं क्यों काला?'
यशोमती उत्तर देती हैं : "काली अंधियारी रात में आने के कारण से तुम काले हो."
किन्तु आज के वैज्ञानिक बुद्धि और तर्कशास्त्री कहेंगे कि सूर कवि 'यशोमती' के माध्यम से कृष्ण को झूठी शिक्षा दे रहे हैं.
लेकिन यहाँ आयु की बोधता के अनुसार उत्तर दिया गया है... अतः मासूम सवालों के उत्तर भी मासूम होने चाहिए.
[२] किशोर विद्यार्थियों के बीच पाठ्यक्रम से इतर चर्चा हो रही थी कि 'विवाह करने में क्या आनंद है?'
शिक्षक का दखल हुआ तो उसने एक वाक्य में उनके संशयों को विराम दिया-- "शादी का लड्डू जो खाए वो पछताए, जो ना खाए वो भी पछताए."
फिर उसने पाठ्क्रम में लौट आने को निर्देश दिया.
अतः एक उद्देश्य को लेकर चलने वालों को भटकने नहीं देना चाहिए. ऐसे में लोक-प्रचलित कहावतों का प्रयोग करना पर्याप्त रहता है.
[३] सभी की क्षमताएँ किसी एक क्षेत्र में प्रबल और अन्य क्षेत्रों में दुर्बल हो सकती हैं. विरले ही होते हैं जो दो-तीन क्षेत्रों में प्रबल क्षमतावान होते हैं.
किसी भी 'समस्या' पर कविताई 'रविकर' से बढ़कर नहीं कर सकता.
किसी भी 'समस्या' पर भावुकतापूर्ण आलेख 'दिव्या से बढ़कर नहीं लिख सकता.
किसी भी 'समस्या' पर व्यंग्यचित्र 'कीर्तीश भट्ट से बढ़कर शायद ही कोई बना सके.
किसी भी 'समस्या' को सरलता से हल करने वाले भी हैं और उसे विकराल रूप देने वाले भी.
हिन्दी साहित्य जगत में एक विद्वान् ऐसे हुए हैं... जिनका नाम 'आलोचना' में भी विख्यात है... काव्यशास्त्र में ख्यात है... और हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में भी और उपन्यास, कहानी, नाटक आदि (लगभग) सभी में.... यूँ कहें कि वे एकमात्र बहुविधा संपन्न अद्भुत प्रतिभा के धनी हैं. ठीक उसी तरह जैसे प्रधानमंत्री अपने से योग्य किसी को नहीं पाता तो महत्वपूर्ण विभाग अपने पास ही रख लेता है.
....
विषयगत बात यह है कि विषय कैसा भी हो टिप्पणी (प्रतिक्रिया) में हर किसी के स्वभाव और दृष्टिकोण से अनछुआ रह सकता है. जैसे मेरा स्वभाव है... त्रुटियों की छानबीन करना और दर्शन की लालसा रखना. इस दृष्टि से अमुक रचना पर मेरी भी एक प्रतिक्रिया हो सकती है .... अंत में करूँगा.
[४] मेरी 'समाज को शर्मिन्दा करने वाली कविताओं पर जब ताली बजा करती थी तो मुझे सहन नहीं होता था.. क्योंकि तब मैं श्रोताओं से दो-तीन विशेष प्रतिक्रियाएँ चाहता था.
— ताली के शोर की जगह वे चिंतन की खामोशी दें.
— ताली की जगह वे गाली दें...
इस इच्छा को एक बार मैंने कुछ यूँ प्रकट भी किया था :
'कटु सुनकर भी चिकने भंटे प्रतिक्रियाहीन
अपशब्द नहीं कहते, मनोरंजन करें, बीन
महिषा समक्ष मैं बजा गाल करता बक-बक
उसका होता मन रंजन, मेरा शुष्क हलक.'
मातम में मौन 'उपस्थिति' मात्र का भी महत्व होता है और शादी में शुभकामनाएँ देने और गानों के शोर का.
अतः प्रतिक्रिया रस के अनुरूप होनी चाहिए.
[५] अंतिम बात .... पाठशाला में प्रश्न न हों... वैद्यशाला में दवा न मिले.... पाकशाला में पेट न भरे... तो सभी व्यर्थ हैं.
अपनी क्षमता को परखने के लिये भी 'प्रश्न' की स्थितियाँ बनायी जाती हैं.
इस रचना पर पाठक रूप में मेरी टिप्पणी :
हे रचनाकार, तारांकित शब्दों के अर्थ भी बता देते तो कृपा होती. इतने सारे अप्रचलित शब्दों को आप क्योंकर प्रयोग में लाते हैं अर्थ का सहज दर्शन नहीं हो पाता.
— क्या 'अश्लीलता' केवल शृंगार क्षेत्र में ही जानी-पहचानी जाती है, किसी अन्य क्षेत्र में नहीं?
— व्यंजना युक्त शब्दावली का प्रयोग क्या विषय को एक वर्ग विशेष तक सीमित रखने को ही किया जाना चाहिए?
— वयस्क सामग्री सर्वग्राह्य न बन पाये क्या इसी कारण प्रतिबंधों और वर्जनाओं को लगाया जाता है?
— भाषा में जटिलता लाने का हेतु क्या एक बड़े समुदाय को अर्थ से वंचित करना नहीं... क्या ऐसा करना न्यायसंगत है?
आभार-
शब्दकोष के प्रयोग की
अनुमति स्वत: ही ले ली थी-
बढ़िया विश्लेषण |
एक बार ध्यान से पढ़ा -
पुन: पढूंगा -
प्रतुल जी आपके उत्तर से मन के अनेक संशयों को समाधान मिला। टिप्पणी कैसी हो इसको सोदाहरण समझाने हेतु आभार। बस दुविधा एक ही है। आपकी गद्य में कही गयी बात तो समझ लेती हूँ, लेकिन कविता के साथ आगे भी न्याय कर सकूंगी क्या ? बस इसी में संशय है।
क्लिष्ट शब्दों के कारण , विषय से पूर्णतया अनभिज्ञ होने के कारण , सर्वथा गलत टिप्पणी करने के लिए शर्मिन्दा हूँ। भविष्य में सावधानी बरतूंगी।
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