गुरुवार, 22 मार्च 2012

भयंकर रक्तपात में भी पुष्प सुगंध नहीं त्यागते

आशुकवि रविकर जी और आचार्यवर कौशलेन्द्र जी,
पिछले कुछ दिनों से एक पीड़क मनःस्थिति को झेल रहा हूँ... आपकी काव्य-टिप्पणियों से संवाद करने से पहले आपको अपने मन में उठ रहे झंझावात से रू-ब-रू कराना चाहता हूँ. मेरे कुछ प्रिय हैं जो परस्पर घृणा करते हैं. मैं दोनों के ही गुण-विशेषों का ग्राहक हूँ. मैं किसी एक पाले में खड़ा दिखना नहीं चाहता क्योंकि दोनों से संवाद बनाए रखना चाहता हूँ. मेरी स्थिति मदराचल पर्वत को मथने वाली मथानी 'वासुकी'-सी हो गयी है. मेरे मन में बिना क्रम के प्रश्ननुमा विचारों का चक्रवात उठ खड़ा हुआ है :
— क्या 'दिन' शब्द 'रात' शब्द के साथ जुड़कर अपनी उज्ज्वलता खो बैठता है? फिर तो दिन-रात रहने वाला 'प्रिय स्मरण' एक मानसिक अपराध होना चाहिए??
— क्या 'राम' शब्द 'रावण' शब्द के साथ जुड़कर अपनी उत्तमता गँवा बैठता है? फिर तो 'राम-रावण' के प्रसिद्ध युद्ध को 'दो लड़ाकुओं का युद्ध' कहना उचित होना चाहिए??
— क्या 'सुर-असुर', 'कृष्ण-कंस', 'सत्यासत्य', 'पाप-पुण्य' आदि शब्द युग्म बनाना सत शब्दों के साथ अन्याय करना है?

सभी जानते हैं कि राम की वानर सेना में कई विद्वान्, वैज्ञानिक और अभियंता थे. जिन नल और नील नाम के वानर अभियंताओं ने श्रीराम के लिये बहुत कम समय में 'सेतु' बाँधा. उस समय उन जैसे ही कई अन्य विद्वान् और वैज्ञानिक भी 'लोकनायक दशानन' की विद्वता से प्रभावित थे. वेदों के प्रकांड पंडित और इच्छानुसार सृष्टि को संचालित करने की क्षमता रखने वाले वैज्ञानिक 'रावण' की उत्कृष्ट भौतिक विज्ञान कला से जगती मुग्ध थी, प्रशंसक थी, लाभान्वित थी. दशरथ और दशानन जैसी विश्वशक्तियों के बीच वर्षों से समूचा विश्व दो फाड़ था. लेकिन ऐसे में भी कुछ लोग दोनों के प्रति स्नेह भाव रखते थे, जैसे वैद्य, व्यापारी और समीक्षक. मित्र हो अथवा शत्रु, दोनों की मूलभूत आवश्यकताओं को परस्पर ध्यान रखा जाता था. जहाँ एक ओर युद्ध में नियमों का पालन होता था वहीं दूसरी ओर युद्ध से बाहर रहने वाले सामाजिकों में भी एक आचार-संहिता पालित थी.

वैचारिक द्वंद्व हो अथवा शारीरिक द्वंद्व ....अखाड़े के अतिरिक्त कोई तो ऐसा मंच होना चाहिए जहाँ दोनों में परस्पर संवाद बने..
एक रूपक (दृष्टांत) मन में आ रहा है :
"भयंकर रक्तपात में भी पुष्प सुगंध नहीं त्यागते."
उपर्युक्त रूपक पर चिंतन करते हुए एक और विचार छिटककर बाहर आ खड़ा हुआ है --
यदि 'गुलाब' जैसी कंटीली झाड़ियों में .... 'फूल' खिलना छोड़ दें तो ऐसे पौधे भी बेकदरी पायेंगे. नागफनियों तक में पुष्प खिलते हैं. बेशक उनमें सुगंध न के बराबर होती है फिर भी भौरें और मधुमक्खी उनके पास बिना भेदभाव जाते हैं. रस होता है तो जरूर लेते हैं नहीं होता तो उसपर थूकते नहीं. सृष्टि में जो भी जिस सामर्थ्य का है वह शिष्टाचार के नाते एक सामान्य व्यवहार का अधिकारी है. हाँ, कुछ गुणों की अधिकता के कारण हमें वस्तु अथवा व्यक्ति विशेष अधिक मन भाते हैं.
मेरे इस संवाद की गंभीरता को कृपा करके समझिएगा और मार्गदर्शन करियेगा. आपको स्यात प्रकरण स्पष्ट न भी हो तो भी मुझे आपसे ही कहने का साहस हो रहा है. सीधे-सीधे नाम लेकर कई बात कर सकता था लेकिन श्रेष्ठता की होड़ से बाहर आकर कुछ बातें कहना मन को तनाव से मुक्त कर रहा है. आप स्वतंत्रमना हैं.. जहाँ चाहे वहाँ जाते हैं... मुझे यह रुचता है.
अपने लिये आवागमन के मार्ग चिह्नित करना और अपने लिये वर्जनाओं का जाल बुनना किस आधार पर हो? कौन-सी कसौटी पर इन्हें कसूँ?
मन में तरह-तरह के संकल्प आ-जा रहे हैं :
— "अब से बिना नाम चिह्नित किये अपने प्रियजनों का गान किया करूँगा."
— "माला जाप' के उपरान्त 'अजपा जाप' का पड़ाव आता है - अब वही करूँगा."
... ये संकल्प स्थिर नहीं हो पा रहे हैं, आपसे अनुरोध है कि अपने अनुभवी चिंतन का स्नान करायें... मन सुखद विचारों के बिछोह से गदला हो गया है.
नव वर्ष आ रहा है.. उसके आने से पहले अपनी समस्त कलुषता धो लेना चाहता हूँ. कृपया अपनी शुभ्र कामनाओं से मेरी दुविधाओं को दूर कर दीजिये!
 एक अस्थायी पोस्ट

10 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

नव वर्ष मंगलमय हो !!

मन की खिन्नता समाप्त हो !!



आजकल निष्पक्ष खड़े रहना सचमुच बहुत कठिन हो चुका है ।

समाज घर कार्यालय या फिर अंतरजाल ही क्यों न हो,

सभी जगह तटस्थ को दूसरे पक्ष का समझा जाने लगा है । आप की विद्वता का हमेशा ही प्रशंसक रहा हूँ ।

मुझे पता है कि किसी प्रकार का झंझावात आप को डिगा नहीं पायेगा ।

शुभकामनायें ।

ईश्वर आपको शक्ति दे--
"भयंकर रक्तपात में भी पुष्प सुगंध नहीं त्यागते."

दीपक बाबा ने कहा…

@. मेरे कुछ प्रिय हैं जो परस्पर घृणा करते हैं. मैं दोनों के ही गुण-विशेषों का ग्राहक हूँ. मैं किसी एक पाले में खड़ा दिखना नहीं चाहता क्योंकि दोनों से संवाद बनाए रखना चाहता हूँ.


हर इंसान ऐसी दुविधा में फंसता ही है ... भगवन आपको शक्ति दें.

सुज्ञ ने कहा…

घबराए जब मन अनमोल
चित्त हो जाए डाँवाडोल
तब ले विवेक तराजू खोल
ठीक से गुण-दोषों को तोल
मीठे लगते सबको बोल
न चलित चंचलमन झोल
श्रेष्ठ चयन व्यवहारी मोल

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

@. मेरे कुछ प्रिय हैं जो परस्पर घृणा करते हैं. मैं दोनों के ही गुण-विशेषों का ग्राहक हूँ. मैं किसी एक पाले में खड़ा दिखना नहीं चाहता क्योंकि दोनों से संवाद बनाए रखना चाहता हूँ.

पतझड़ में थे सब झड़े पात
मैने पूछा क्या हुयी बात
वे बिलख-बिलख कर बोले यूँ
पीड़ा की गठरी खोली यूँ
मैने डाली से प्यार किया
डाली ने मुझको त्याग दिया
फिर भी मैं गया नहीं कहीं
सोचा बनकर मैं खाद यहीं
अपना कर्तव्य निभाऊँगा
जड़ को अपना कण-कण अर्पित
कर, पल्लव फिर बन आऊँगा

अपने विवेक को सूक्ष्म करो
मत करो प्रतुल! प्रथुल उसको
हठ के आगे मत हो अस्थिर
कुछ योग करो हो जाओ थिर

उनको पतझड़ से मोह बड़ा
मुझको हर मौसम लगे भला
अब कैसे मैं समझाऊँ उन्हें
कर दूर कोप, बिहंसाऊँ उन्हें
उनसे कहना,सन्देश मेरा
अब नष्ट करें कंटक घेरा
फिर दृष्टि नेक पीछे डालें
मैं खड़ा वहीं आँखें खोले
है कोई उनका शत्रु नहीं
कटुता है उनकी मित्र नहीं
अनुराग सदा अनुरागी है
लगता यद्यपि कुछ बागी है
सब करते प्रेम उन्हें जी भर
कहदो उनसे भर लें आँचल॥

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

शेष रविकर जी ने कह ही दिया है। आपको उनकी चिंता है....उनके शुभचिंतक हैं ....जानकर सुखद अनुभूति हुई। एक बोझ भी कम हुआ कि चलो कोई तो है जो उनका मंगल चाहता है। मेरा प्रेम और आशीर्वाद आज भी उनके लिये यथावत है ...अक्षुण्ण ....

Satish Saxena ने कहा…

शुभकामनायें आपको ....

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

इससे श्रेष्ठ मार्गदर्शन नहीं हो सकता। ... कौशलेन्द्र जी आपने 'विलगाव' के दर्शन को जितनी सुन्दर अभिव्यक्ति दी उतना ही उचित आपने उपचार भी किया। आप न मात्र आयुर्वेद के चिकित्साधिकारी हैं, अपितु काव्य से मिली व्याधियों के अनिष्ट निवारण हेतु उपयुक्त काव्य-चिकित्सा भी देते हैं।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रविकर जी,
खुली आँखों से एक स्वप्न देखता हूँ, दिन में ही ... उसे दिवस कहूँ या दिवा, अब शब्द 'क्रीड़ा' करना नहीं चाहते.
इसलिये अब सीधे व्यक्त हो जाना चाहते हैं :

आज जब कटुता की अमर-बेलें बहुत शीघ्रता से भावुक तरुओं और विद्वता के विटपों पर फ़ैलकर उन्हें सुखाये दे रही हैं...

ऐसे में क्या उन वृक्षों की विशेषताएँ 'भावुकता' और 'विद्वता' का सूख जाना ही एकमात्र उपाय है?

क्या भावुकता और विद्वता किसी एक सरल मार्ग पर एक साथ नहीं बढ़ सकते?

रविकर जी, आपके विश्वास के पाँव हैं... वह चलेगा अवश्य, फिर भी सुखकर पूर्व स्मृतियों का दबाव (कराह) अंतस में वैचारिक झंझावात का कारण बन जाता है. उसके सम्मुख चलना थोड़ा दुष्कर होता है.

धीरे-धीरे क्षमता आयेगी. एक बार फिर चर्चामंच पर आने से वंचित रह गया. सांसारिकता में उलझे लोग बड़े-बड़े निमंत्रणों का लाभ नहीं ले पाते.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ दीपक बाबा जी,

यह सच है कि जो दीपक अन्यों को प्रकाश देता है, मार्ग दिखाता है, उसके तले अन्धेरा ही रह जाता है. और

बाबाओं के रहते भी यदि आमजन को दुविधा में रहना पड़े तो ऎसी बाबागिरी का क्या लाभ?

दीपक जी, ईश का अंश सभी में उपस्थित है... और शक्ति मुझे ऐसे ही वचनों से मिलेगी... भगवान् के साथ-साथ मुझे माँ भगवती के आशीर्वाद की भी चाहना है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ कवि मित्र सुज्ञ जी,
आपके वचन उद्धव से प्रतीत हुए.. दर्शन लोभियों के सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है. विवेक शत्रु प्रतीत होता है.

महाकवि घनानंद की एक पंक्ति याद आ रही है : "मन लेहूँ पर देहूँ छटाक* नहीं" प्रेम-क्षेत्र में शुद्ध व्यापार तो चल सकता है लेकिन साहुगिरी नहीं. जो मन लेकर भी छटाक (छवि-दर्शन) नहीं देता, वह कैसा प्रेमी?

* यहाँ छटाक से अर्थ उपस्थिति से भी है.