बुधवार, 21 मार्च 2012

पहरा

बोलो मुझसे नहीं, दिखावो ना ही तुम अपना चेहरा।
बार-बार आँचल को अपने मारुत में तू नहीं तिरा।
चित्र खींच उंगलियाँ तुम्हारा लेती बारम्बार चुरा।
सुन्दर इतने आप कि आँखें लगा रहीं तुम पर पहरा।
मधुर शब्द सुन्दर मुख पावन रूप तुम्हारा रहे खिला।
किसी-किसी को ही मिलता जैसा तुमको ये रूप मिला।
पर संयमित नयन तुमको इक बार देख झुक गये धरा।
निष्कलंक यौवन, प्यारी! ये रहे तुम्हारा मुक्त जरा।
बोलो मुझसे नहीं ....।।

7 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

आपका बेसब्री से इन्तजार रहता है -
कुछ उटपटांग पेश है--

नजरें पैदा कर रहीं, हलवत हत हत्कंप ।

वर्षागम वलद्विष कृपा, नहीं जरुरी पंप ।

नहीं जरुरी पंप, होय उर मस्त उर्वरा ।

प्रेम पौध को रोप, हुए एहसास शर्करा ।

पहरे का उपलंभ, गुदडिया पहरे अजरे ।

छोड़ व्यर्थ का दम्भ, बुलाती कब से नजरें ।।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

उत्कण्ठित था,लालायित था
कब देखूँ, कैसे देखूँ
प्रिये!तुम्हारा मुखड़ा।
देखा जब दीर्घ प्रतीक्षा कर
तो बहने लगीं रंग की नदियाँ,
देर लगी ना पल भर की अरु
उर में खचित हुआ ये मुखड़ा।
अब तो आँखें मीचे-मीचे
खोया ही रहता हूँ सचमुच
पलकों के भीतर ही अपलक
देखा करता हूँ ये मुखड़ा।
प्रतुल जी! आप साहित्य के मर्मज्ञ हैं। हम तो जंगल झाड़ी में उगने वाले बेसरम के फूल हैं। इस तरह काफ़ियाना टिप्पणी लिखने की परम्परा रविकर जी ने डाली है, दोष देना हो तो उन्हीं को दीजियेगा:) हम तो उनका अनुकरण मात्र कर रहे हैं।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

उत्कण्ठित था,लालायित था
कब देखूँ, कैसे देखूँ
प्रिये!तुम्हारा मुखड़ा।
देखा जब दीर्घ प्रतीक्षा कर
तो बहने लगीं रंग की नदियाँ,
देर लगी ना पल भर की अरु
उर में खचित हुआ ये मुखड़ा।
अब तो आँखें मीचे-मीचे
खोया ही रहता हूँ सचमुच
पलकों के भीतर ही अपलक
देखा करता हूँ ये मुखड़ा।
प्रतुल जी! आप साहित्य के मर्मज्ञ हैं। हम तो जंगल झाड़ी में उगने वाले बेसरम के फूल हैं। इस तरह काफ़ियाना टिप्पणी लिखने की परम्परा रविकर जी ने डाली है, दोष देना हो तो उन्हीं को दीजियेगा:) हम तो उनका अनुकरण मात्र कर रहे हैं।

Pallavi saxena ने कहा…

वाह क्या बात है बहुत ही खूबसूरत भाव संयोजन से सजी खूबसूरत रचना ...समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।
http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

रविकर ने कहा…

@ प्रतुल जी! आप साहित्य के मर्मज्ञ हैं। हम तो जंगल झाड़ी में उगने वाले बेसरम के फूल हैं। इस तरह काफ़ियाना टिप्पणी लिखने की परम्परा रविकर जी ने डाली है, दोष देना हो तो उन्हीं को दीजियेगा:) हम तो उनका अनुकरण मात्र कर रहे हैं।

मस्त है यार --

मैं हूँ तैयार ।।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

आशुकवि रविकर जी और आचार्यवर कौशलेन्द्र जी,

पिछले कुछ दिनों से एक पीड़क मनःस्थिति को झेल रहा हूँ... आपकी काव्य-टिप्पणियों से संवाद करने से पहले आपको अपने मन में उठ रहे झंझावात से रू-ब-रू कराना चाहता हूँ. मेरे कुछ प्रिय हैं जो परस्पर घृणा करते हैं. मैं दोनों के ही गुण-विशेषों का ग्राहक हूँ. मैं किसी एक पाले में खड़ा दिखना नहीं चाहता क्योंकि दोनों से संवाद बनाए रखना चाहता हूँ. मेरी स्थिति मदराचल पर्वत को मथने वाली मथानी 'वासुकी'-सी हो गयी है. मेरे मन में बिना क्रम के प्रश्ननुमा विचारों का चक्रवात उठ खड़ा हुआ है :

http://darshanprashan-pratul.blogspot.in/2012/03/blog-post_22.html

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

कौशलेन्द्र जी!

रविकर जी ने रसीली टिप्पणियों की जिस परम्परा को जन्म दिया है, उसे जीवित रखना अत्यन्त आवश्यक है… साधक पाठक/लेखक ही इस वाह को गति दे सकते हैं। वर्तमान में अनुकरण करना बडप्पन माना जायेगा… आज कोई थोडी-सी भी प्रसिद्धि पा लेता है तो वह अपनी ऊँचाई पर किसी अन्य को देखकर प्रसन्न नहीं।

मुझे प्रतीत होता है अनुकरण को अभ्यास में ले आने से ही परम्परा सुरक्षित होगी। फ़िलहाल तो अभ्यास में सभी प्रकार के प्रयासों का मूल्य है। वह चाहे ज़ंगल झाडी में उगने वाले बेसरम के फ़ूल हों अथवा शहरी बंगलों की बालकोनी में जबरन सजाये गमलीय प्रयास हों।

जंगलों और बंगलों के फूलों को एक माला में गूंथना ही होगा... अन्यथा दोहरे मापदंड अपनाने से फूल को मिली परिस्थितियों के साथ न्याय न होगा!