सोमवार, 12 मार्च 2012

कविता-काढ़ा

पतला ही रह गया रसायन
नहीं हुआ वो गाढ़ा.
क्षीर समझकर पीने आये
हंसराज सित काढ़ा.
स्नेह शुष्क चौमासा बीता
बीता थरथर जाड़ा.
लेते रहे अलाव विद्युती
देह से स्नेहिल भाडा.
दर्शन अभिलाषा की मथनी
मथती कविता-काढ़ा.
पर हंसराज मुख अम्ल मिला
पी जाते गाढ़ा गाढ़ा.



इस कविता का सम्बन्ध 'दिव अकाल' कविता से है. पिछली कविता में एक दोष रह गया जो मेरे मित्र की दृष्टि से छिप न सका. उन्होंने अपने नाम को सार्थक करते हुए काव्य-मिश्रण में से नीर को पृथक तो कर दिया किन्तु नाम मात्र के क्षीर को भी खाने योग्य न समझा. होली पर मिलावटखोरों से सावधान रहना भी चाहिए... न जाने कब स्वास्थ्य बिगड़ जाए.
[ध्यान दें : प्रेम मे उलाहने मान्य हैं.]

16 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कविता काढ़ा अच्छा खासा गाढ़ा बना है ...

रविकर ने कहा…

पढने और समझने के बीच अच्छा खासा अंतराल रहा |
जलते जलते दिमाग की बत्ती जल तो जाती है पर बहुत ऊर्जा खर्च करवा देती है |
बार बार पढ़कर रसास्वादन किया ||
आभार |

रविकर ने कहा…

इस मिलावटखोरी पर भी डालें कृपादृष्टि--

पागल पथिक प्रलापे पथ पर,
प्रियंवदा के पाड़ा ।

सृष्टि सरीखी सजग सयानी,
केश सुखाती माढ़ा ।

ध्यान भंग होते ही मारे,
डंक दुष्ट इक हाड़ा ।

प्रियंवदा की चीख निकलते,
पथिक ठीक हो ठाढ़ा ।।

दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
dineshkidillagi.blogspot.com

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीया संगीता जी,

इस बार का कविता-काढा बेशक गाढ़ा बना लेकिन पिछली बार के काव्य-मिश्रण को भ्रम से क्षीर समझकर 'हंसराज' ने फाड़ डाला.. क्योंकि उसमें तरलता अधिक थी, गूढता नाममात्र की थी इसलिये उन्होंने उसमें कोई सार-तत्व न पाकर उसे खाने से नकार दिया.

काव्य-रूढी है कि ''नीर-क्षीर विवेकी' हंस अपने मुख-अम्ल की मदद से दूध को फाड़ देता है और उसमें से अलग हुए पनीर को आसानी से खा लेता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

रविकर जी, आपकी कविताओं में भी उस गुड़ का स्वाद आने लगा है जो प्रायः गूंगा चखता है.

इसके अर्थ करने में भी वैसी ही मेहनत हो रही है जैसी कि आपने मेरे घर पर आकर की थी.

कहीं ये बदला तो नहीं? ...

एक कहानी याद आ रही है... "लोमड़ी और सारस पक्के दोस्त थे .... एक बार लोमड़ी ने सारस को दावत दी.. " आगे की कहानी सभी जानते ही होंगे.

मेरे लिये इस छंद के एकाधिक अर्थ हो चले हैं.

सुज्ञ ने कहा…

:)

सार्थक!!

रविकर ने कहा…

सजी मँच पे चरफरी, चटक स्वाद की चाट |
चटकारे ले लो तनिक, रविकर जोहे बाट ||

बुधवारीय चर्चा-मँच
charchamanch.blogspot.com

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

.......
.......

pranam.

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

जहाँ शास्त्रोक्त साहित्य की बात आती है किसी कमजोर छात्र की तरह मैं तनिक पीछे हट जाता हूँ। प्रतुल जी जैसे धुरन्धरों की बगल से गुजरना भी हमारे हिन्दी साहित्य के अल्प ज्ञान को कंपकंपा देता है। आज दुस्साहस कर आ ही गया। अब जो होगा सो देखा जायेगा। व्याकरण और शास्त्र से जितना डरूँगा उतना ही स्वयं का नुकसान होगा।
रविकर जी की काव्यात्मक टिप्पणियाँ सोने में सुहागे जैसा आनंद देती हैं।
बाकी ई जो कविता के काढ़ा बनवले हउआ हमरो के मीठ-मीठ ( सिता युक्त) लागल बा। अब हम बटी आ चूर्ण के परतीक्षा करब।

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

भावपूर्ण बेहतरीन काढ़ा...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. मयंक जी,

यह सच है कि "ठीक-ठीक अनुपात में पदार्थों के मिलने पर ही कोई पेय स्वादिष्ट बन पाता है."

औषधियाँ बनाने वाले हाथों से कषाय काढ़े ही बन पाते हैं. एक बार श्वेत रंग का काढा बनाने का प्रयास किया तो हंस बुद्धि भी भ्रमित होकर उसे क्षीर समझ पीने आये किन्तु मुख जैसे ही पात्र में डाला तो समझ गये कि यह धोखा है. किन्तु उनके मुखाम्ल से 'सित काढ़े' को ये लाभ हुआ वह पतला-पतला अलग हो गया और गाढा-गाढा अलग हो गया.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रिय और आदरणीय मित्र हंसराज जी,
जब भी कोई काढा पीयें तो उसे पहले अच्छे से हिला लें... इससे पतला और गाढा पदार्थ परस्पर मिल जाता है... सम्यक मिश्रण का पान करने से लाभ होता है. :)

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रविकर जी,
आपकी आशु कविताई की चाट बहुत ही चरफरी होती है. चटकारे हम बैठे-बैठे ही ले लेते हैं. आने में हमेशा विलम्ब हो जाता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सञ्जय जी, नमस्ते.

आपसे ढेर सारी बातें करने का मन है :

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:))

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आचार्यवर कौशलेन्द्र जी,
सामान्य-सी उक्तियों में दार्शनिक चिंतन खोजने वाले यदि कंपकंपी का नाट्य करेंगे तो बतरस का सुख एकरसी हो जायेगा. यह बात सभी जानते हैं कि रविकर जी तो ब्लॉगजगत के लिये वरदान बनकर प्रकट हुए हैं. भविष्य में आपने काव्य-बटी और काव्य-चूर्ण को बनाने की प्रेरणा दी ... सोच रहा हूँ अब कविता की चटनी, अनुराग-रसायन और जमालघोटा भी तैयार करूँ. :)

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. शरद सिंह जी,
आपकी शांत उपस्थिति से संकुचित होने लगा हूँ. आपकी अनपेक्षित शाबासी से अचंभित हूँ जबकि मैंने आपकी सर्वप्रिय 'सुखद कृति' पर कटु उक्ति कही... आपने उसे मेरा आमंत्रण जान मेरी धृष्टता पर पानी फेर दिया.. मैंने तो सोचा था कि बातों की उठ्ठक-बैठक लगेगी (महफ़िल जमेगी) लेकिन अब खुद ही मन-ही-मन उठ्ठक-बैठक लगा रहा हूँ (शरमा रहा हूँ).

"ग्रीष्म ऋतु में शरद का झोंका सुखकर होता है"