बुधवार, 7 मार्च 2012

दिव्य अकाल

मन में रहता - यही मलाल
गलती नहीं - हमारी दाल।
छंद अलंकारों के थाल
नजराने में जाते घाल।
बोल-बोल जो फूले गाल
होली में हो रहे हलाल।।
स्नेह आपका - रहा कमाल
नौसिखियों से - भी पदताल।
दर्शन अभिलाषा का जाल
समझा व्यर्थ मोह-जंजाल।
हो बारीकी से पड़ताल
होली की तो 'धूल' गुलाल।।
प्रिय संवादों - की वरमाल
पहले घूमा - करता डाल।
दूरभाष अब हुआ दलाल
ई-पत्रों की भी हड़ताल।
दोषी क्या अनुराग जमाल?
होली पर जो दिव्य अकाल।।

21 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

तीव्र वेग हो तीव्रतर, भरसक भागम भाग ।
रोना फिर भी समय का, मिटे मोह अनुराग ।
मिटे मोह अनुराग, लगे त्यौहार बदलने ।
नौसिखुओं की फाग, दाल लगती है गलने ।
संवाद हुए संक्षिप्त, रेस में पहले दौड़ें ।
मोबाइल विक्षिप्त, भेजता मैसेज भौंडे ।।


कब से कर रहा है रविकर इन्तजार ।
आइये हमारे द्वार ।।
दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
dineshkidillagi.blogspot.com

होली है होलो हुलस, हुल्लड़ हुन हुल्लास।

कामयाब काया किलक, होय पूर्ण सब आस ।।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

:):)

होली की शुभकामनायें

मदन शर्मा ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति ....होली एवं अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं जी आपको

udaya veer singh ने कहा…

सुन्दर , प्रभावशाली ..... बधाईयाँ जी /

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

sundar tal
chand kamal
divya prem
par rang-gulal.

pranam.

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति...
होली की हार्दिक शुभकामनाएं..

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

दिव्य अकाल
और\या
प्रतुल धमाल

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" ने कहा…

aapka prayas sarahneeya hai..sunder prastuti...in rachnaaon me alankaron ityadi se sambandhit jaankari ko samjha bhee diya karein to aapka prayas is kshetra me padarpan kar rahe logon ke liye atyant hitkar hoga

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

डॉ. मयंक जी,
आपके प्रेमोच्चारण वाले संवाद बहुत भाते हैं... वे चाहे शुभाशीष (शाबासी) हों अथवा शुभेच्छाएँ... मन प्रसन्न हो जाता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रविकर जी, ब्लॉग-जगत में आपके प्रयास सदा अविस्मरणीय रहेंगे.

कविता-कहानी-आलेख लिखने वालों को एक सार्थक व श्रमयुक्त (मूल्यवान) टिप्पणी का दान बहुत ही सुखकर होता है. काव्यमय प्रतिउत्तर देने का यह लाजवाब अंदाज रचनाकारों को परस्पर स्नेह के तंतु में पिरो रहा है.

जब आपकी काव्य टिप्पणी पढी तो अवाक रह गया... बहुत ही सुन्दर तरीके से मार्गदर्शन किया है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

तीव्र वेग हो तीव्रतर, भरसक भागम भाग।
रोना फिर भी समय का, मिटे मोह अनुराग ।
@ आपने ठीक कहा... अब तक तीन-तीन अर्थ करके समझ चुका हूँ.

पुराने अनुरागी व्यक्ति मोह के वशीभूत होकर अपने वेग (तीव्र) को तीव्रतर करते रहते हैं. उनकी इस जबरदस्त भागमभाग पर भी उन्हें संतोष नहीं मिलता, वे समय की कमी का रोना रोते हैं.

.... अनुरागी चित्त का मोह/ अनुराग फिर भी घटने का नाम नहीं लेता.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

मिटे मोह अनुराग, लगे त्यौहार बदलने ।
नौसिखुओं की फाग, दाल लगती है गलने ।

@ आज के नये अनुरागियों के चित्त के मोह और अनुराग मिट गये, उनमें पहले-सी उमंग नहीं रही. अब के नौसिखुए प्रेमी भी मोह के वशीभूत हो भागमभाग में पड़े हैं... लेकिन उनकी फाग (मस्ती) भिन्नता लिये है. उनकी दाल तुरंत गल जाती है. उनके त्योहारों के अर्थ बदल गये हैं. वे त्योहारों की एकरसता समाप्त करने के पक्षधर हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

संवाद हुए संक्षिप्त, रेस में पहले दौड़ें ।
मोबाइल विक्षिप्त, भेजता मैसेज भौंडे ।।

@ उनके दाल गलाने वाले संवाद इतने संक्षिप्त होते हैं कि वे वाद-प्रतिवाद (चेटिंग) की प्रतिस्पर्धा में आगे निकल जाना चाहते हैं... आज मोबाइल मदमस्त (पागलों की तरह) होकर शालीनता को लाँघकर भोंडे-भोंडे मैसेज (सन्देश) भेजता है.

रविकर जी, आपकी आनुप्रासिक शैली बहुत पसंद करता हूँ. साधु.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीया संगीता जी,

:) नमन


"गुरु के चरणों से खेल रहे

छू-छूकर दोनों कर होली.

सपने में आशीर्वाद मिला

हो गये लुप्त, आँखें खोलीं."

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रविकर जी, काफी समय से शिष्टाचार निभा नहीं पा रहा हूँ. आप चर्चामंच पर मेरी कविताई का रास्ता बनाए... लेकिन हम आ न सके.. क्षमा भाव थोड़े और समय के लिये आरक्षित रखियेगा.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आदरणीय मदन जी, आपकी शाबासी स्मिति का कारण बनी... लेकिन बीते महिला दिवस पर 'काव्य-प्रेरणा आगमन' का सूखा बना रहा.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रिय बन्धु उदयवीर सिंह जी, आपका इस ब्लॉग पर प्रथम बार उदय देखकर मन गदगद हुआ. आपकी बधाइयाँ गाँठ बाँध लीं हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रिय सञ्जय जी, आपकी कमेन्ट-कविता सीधी सरल होने से मासूम लगती है, और यह मासूमियत बहुत प्यारी है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सञ्जय मिश्रा हबीब जी,

आप आये .... करीब जी,

ये हमारा .... नसीब जी.

आपसे बतियाने की हमने

निकाली ... नयी तरकीब जी.

होली की हार्दिक शुभकामनाएं आपको भी.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सञ्जय की बहार है. तीनों का जयजयकार है.

_____________________

भाईसाहब सञ्जय जी उर्फ़ मौ सम कौन ?

सोम ठाकुर जी का एक गीत याद हो आया....

" मैं भी चुप हूँ, तू भी चुप है... खोले कौन किवारे मन के?"


होली पर कमसकम सूखा नहीं रहना चाहिए था...

हम तो होली पर आस का दीप जलाए रहे.


क्या 'टिप्पणी-दर्शन' अन्योन्याश्रित संबंध पर टिका है?

मुझे यदि पूरा दिन ब्लॉग पठन और टिप्पणी लेखन के लिये मिले तो भी वह मुझे कम लगेगा...

मैं तो आपके ब्लॉग पर काफी समय से नहीं गया... लेकिन आप फिर भी आते हैं... बिना अपेक्षा के आना-जाना बड़प्पन है.

लेकिन 'बालहठ' और 'विशेष अनुग्रह' को ठुकराना प्रेम और भक्ति क्षेत्र में निर्ममता समझी जानी चाहिए... क्यों? क्या मैं सही कह रहा हूँ?

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

"...इन रचनाओं में अलंकारों इत्यादि से सम्बंधित जानकारी को समझा भी दिया करें तो आपका प्रयास इस क्षेत्र में पदार्पण कर रहे लोगों के लिये अत्यंत हितकर होगा." - Dr.Ashutosh Mishra "Ashu"

@ डॉ. आशुतोष जी, मेरा भी मन करता है कि हर कविता का शल्य-कर्म करूँ...लेकिन शल्यकर्म के दो परिणाम निकल सकते हैं... जटिलता (व्याधि) समाप्त भी हो सकती है और सौन्दर्य-भंग भी हो सकता है.

कुछ अधिक समय मिलते ही रस-छंद-अलंकार की पाठशाला फिर आरम्भ होगी. चाहे कोई छात्र हो अथवा न हो... अब सोच लिया है ... चरैवेती चरैवेती...