श्वासों का हो गया समन्वय
हृदय अनल के घेरे में
हो ढूँढ रहा था शीतलता-आलंबन।
अनिल दौड़ता होकर निर्भय
गरम-गरम श्वासों का चलना
जला रहा था हृदय का नंदन-वन।
शीत्कार की ध्वनि, संकुचित
भविष्य-द्वार, होता पर-शोषित
कसी जा रही थी बाहों की जकड़न।
संयम था आश्चर्य चकित
निज पाक अनल में डाल दिया
किसने चोरी से विषैला आलिंगन।
कंदर्प-रति षड़यंत्र सफल
कर, मुस्काते जाते ध्वनि करते
निज हाथों से करतल, अन्तस्तल।
संयम ने फिर जाल बिछाया
काम रती* को दंड दिलाकर
जोड़ दिया दुर्बल मर्यादा बंधन, ... क्रन्दन!!
__________
*रती = सही शब्द रति
प्रश्न : उपयुक्त कविता किस कोटि की रचना कही जानी चाहिए ?
— शुद्ध शृङ्गार
— शृङ्गार रसाभास
— शान्त रस
— शान्त रसाभास
छंद के पाँचवे पाठ से पहले .... छंद की तरफ बढ़े पाँव खींच लिये हैं मैंने. जिस प्रिय ने मुझसे पाठशाला में छंद-ज्ञान देने का आग्रह किया था उसकी ही मौजूदगी नहीं हो रही कई मास से.. तब कैसे मन करे?
26 टिप्पणियां:
मेरे विचार से श्रृंगार रसाभास ....
....रचना की छंदबद्धता , लयबद्धता . आद्यन्त प्रवाह , रसात्मकता , शब्द संयोजन अद्वितीय ..
.....भाव पक्ष समर्थ
...................एक छंद साधक की रचना होगी तो ऐसी ही !
कंदर्प-रति षड़यंत्र सफल
कर, मुस्काते जाते ध्वनि करते
निज हाथों से करतल, अन्तस्तल।
प्रतुल जी, विस्वसनीय शब्दों का ऐसा जाल बिछाया की संवेदनशील मन उड़ने लगा, एक घोर सहित्तिक रचना, आभार
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
छंद से क्यों हाथ खीच लिए, आपका कोई प्रिय नहीं आ रहा तो आप हम सबको सजा देंगे? आपके प्रश्न का उत्तर तो तभी दे पाएंगे जब पहले पाठ पढेंगे।
इसमें श्रृंगार रसाभास की अधिकता है किन्तु अनिल और अनल दोनों शब्द असमजस पैदा कर रहे हैं
संयम ने फिर जाल बिछाया
काम रती* को दंड दिलाकर
जोड़ दिया दुर्बल मर्यादा बंधन, ... क्रन्दन!!
शब्दों और भावों का अद्भुत संयोजन..एक उत्कृष्ट प्रवाहमयी रचना जो अंत तक बांधे रखती है..आभार
प्रभावित करता शब्द संयोजन ..... बहुत सुंदर
suprabhat guruji,
upar ke sapt-rangi tip ke poore yog ko meri ashtam tip ke roop me dekha
jai....bahut..bahut..bahut sundar..
pranam.
Aadarniy Pratul ji ....
Saadar Namaskaar!
Sunder shabd sanyojan se susajjit is kavita ke liye Apka Aabhaar!
Sir ji ek baat aur hai! ye keval aap hi likh sakte hain.
कविता श्रृंगार रसाभास का शानदार उदाहरण है।
कंदर्प-रति षड़यंत्र सफल
कर, मुस्काते जाते ध्वनि करते
निज हाथों से करतल, अन्तस्तल।
मनोरम शब्द अन्तस्तल को छू रहे है।
छंद ज्ञान प्रवाह जारी रखें।
क्लिष्ट भाषा में शब्द संयोजन अनुपम.श्रृंगार रस की रचना पढ़ कर आचार्य चतुरसेन के युग की स्मृति हो आई.
आदरणीय प्रतुल भाई...कविता बहुत सुन्दर है...हालांकि मुझे पद्द की कोई ख़ास समझ तो नहीं है, ख़ास क्या मैं तो अज्ञानी हूँ इस मामले में......हा हा हा...किन्तु पढ़कर बहुत अच्छा लगा...
पद्द की समझ न होने के कारण आपके प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूँ...कृपया क्षमा करें...
आभार...
मनोरम शब्द , बहुत सुंदर कविता,
- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
@ आदरणीय सुरेन्द्र जी, आपने झट से पहचान लिया रसाभास को ...
@ आदरणीय कुश्वंश जी, आपने तो प्रशंसा का कुश-आसन ही दे दिया. बैठने के कोमल-कोमल एहसास से अब उठने का मन ही नहीं करता...
@ आदरणीय डॉ. मयंक जी, आपकी सराहना मुझे पूरे 'अंक' देती नज़र आ रही है...
@ आदरणीय अजित गुप्ता जी,
छंद का क्या है.. देर-सबेर उदघाटित हो ही जायेंगे... लेकिन आत्मीयों की चिंता ही तो जीवन का छंद बिगड़ने नहीं देती. मानस में बसा प्रेम ही तो मुझे जिलाए है.
वैसे मुझे आपका स्नेहिल उत्तर आगामी पोस्ट पर मिल ही गया है, लेकिन मुझे कोई टिप्पणी निरुत्तरित नहीं रखनी है.. इस कारण ही बतरस के बासी ताल में डुबकी लगा रहा हूँ.
@ आदरणीय गिरधारी जी,
रसाभास तो ठीक पहचान लिया. संयोग तो उष्ण श्वासों का ही खेल है... असमंजस कैसा ... वायु की उष्णता में ... अनल और अनिल गले मिले होते हैं.
@ आदरणीय कैलाश जी,
कविता का एक सच यह भी है कि इसे लिखते समय शुरुआत की तो अंत भी एक बार में कर दिया... अधिक काटफांस नहीं की. बस एक शब्द 'क्रंदन' शब्द काफी सोच-समझकर डाला गया है. क्योंकि मैं एक शब्द के माध्यम से 'काम और रति' की कराह दिखाना चाहता था. उसे रोते-पचाताते दिखाना चाहता था.. शायद वह कर पाया या नहीं .. सुधि पाठक अधिक जानते होंगे.
@ आदरणीय डॉ. मोनिका जी,
धन्यवाद... ऎसी रचनाएँ सार्वजनिक करने में थोड़ा सकुचाता हूँ लेकिन छंद-चर्चा के प्रवाह में इसे रखना संभव हो पाया है... गुरु की गरिमा बनाने रखने को भी प्रतिबद्ध हूँ. आपका आज़ का प्रोत्साहन मुझे आगामी रचनाओं में भी संतुलन बनाए रखने का ध्यान दिलाता रहेगा.
@ प्रिय सञ्जय जी,
फिर सुप्रभात, भैया टिप्पणी का समय दोपहर का है...... लगता है आपका अंग्रेजी साम्राज्य है... जहाँ कभी दिन नहीं ढलता.. हमेशा सुबह रहती है.
बहरहाल आप सुप्रभात ही कहें, पाठशाला तो सुबह ही लगा करती है न, विद्यार्थी चाहे कभी भी आये.
@ प्रिय विरेन्द्र जी, नमस्ते.
जिसने प्रिय-वियोग को जितना अधिक झेला हो वही तो संयोग की भी महत्ता जानेगा. आजकल मुझे पाठशाला में कई प्रिय विद्यार्थियों का वियोग है. बेशक वे मुझसे योग्यता और प्रसिद्धि में मीलों आगे हैं लेकिन मानसिक प्रेम में वे मुझसे आगे नहीं जा सकते. मैं तो कल्पना में ही ढेरों बातें करने वाला आज़ ब्लोगिंग का सुख लेने लगा हूँ. जब कोई नहीं मिलता तो मनोभावों से ही बतियाता हूँ.
@ सुज्ञ जी,
एकदम सही जवाब... शृंगार रसाभास ही तो है.
छंद-चर्चा के लिये अब जल्द ही तैयारी करूँगा. विद्यार्थियों से कह दें कि गर्मियों की छुटियाँ ख़त्म हो रही हैं. गुरु जी एक्स्ट्रा क्लास लेने की फिराक में घूम रहे हैं.
@ आदरणीय अरुण जी,
अपने पिता से आचार्य चतुरसेन जी के बारे काफी सुना था.. आज आपने भी उनकी स्मृति करा दी. वे तो उद्भट विद्वान् थे.. हम तो मात्र मनोविनोद निमित्त छंद नाम लेकर विद्वता झाड़ते हैं. यदि आप मुझसे अपनी ही रचनाओं में कमियाँ निकालने को कहेंगे तो मैं ढेरों कमियाँ निकाल दूँ ... जिसे कभी काव्य-दोष चर्चा में देने का सोचा है.
@ मित्र दिवस जी,
पद्य की समझ हो अथवा न हो काव्य का आनंद यदि मिलता हो तो अवश्य लेना चाहिए ... आप अब से प्रश्न न देखा करें वे तो केवल इसलिये दिये देता हूँ जिससे वे पाठक भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा दें जो चुपचाप आकर चले जाते हैं और मुझे लगता है कि अभी तक कोई नहीं आया... मेरा श्रम निरर्थक गया..
प्रश्न वाली पोस्टों पर बुद्धिजीवी बिना उत्तर दिये नहीं रह सकते... ऐसा मुझे लगता है.
@ विवेक जी,
आप अपने ब्लॉग पर नामी कवियों की कवितायें दिया करते हैं... इससे ही लगता है कि आप काव्य-प्रेमी हैं. आपके द्वारा हुई प्रशंसा आपके ब्लॉग पर जाकर समझ में आयी कि आपने यूँ ही नहीं की... आप भावों में डूबने वालों में से हैं... शिवमंगल सुमन की श्रेष्ठ रचना को पढ़कर मन प्रसन्न हो गया.
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