ओ प्रकृति प्रेमि, प्रियतमे अंक!
मुझको सबसे प्रिय लगे पंक.
खिलता उसमें से ही सरोज
रमणीक वारि भी हुआ रंक.
ओ ग़ज़ल प्रिये, गज गमन चली!
मुझको कविता ही लगे भली.
चलती निज कविता तुरग चाल
भूलोगी चलना ग़ज़ल-गली.
चन्दन सुगंध लेने वाली !
मेरी पसंद लिपटी व्याली.
व्याली पसंद आनंद गंध
आनंद गंध सबसे आली.
संयाव आपका मधुर भोज
पायस भोजों में महा भोज.
घृत मूल मिला इसमें रहता
पय देख याद आता पयोज.
"किसका स्पर्श सबसे सुन्दर?"
ये प्रश्न आपको विचलित कर
क्यूँ गया, मुझे संकोच हुआ
"क्या है समीर?".. 'हाँ' नहीं' मगर.
________
शब्दार्थ :
वारि - जल
व्याली - नागिन
पायस - खीर
संयाव - हलवा
प्रश्न : नव परिचय में हम प्रायः प्रश्नोत्तर शैली क्यों अपनाते हैं? वह भी पसंद-नापसंद वाले प्रश्नों की.
[छंद-चर्चा का पाठ मस्तिष्क की लेबोरेटरी में विकास की प्रक्रिया में है... कुछ विकसित होने पर आपके सामने आयेगा. तब तक एक कविता दी है जो मेरी किसी से हुई बातचीत का ही काव्यानुवाद है. ]
24 टिप्पणियां:
ओ ग़ज़ल प्रिये, गज गमन चली!
मुझको कविता ही लगे भली.
चलती निज कविता तुरग चाल
भूलोगी चलना ग़ज़ल-गली.
...Wah! badiya prastuti..
ओ ग़ज़ल प्रिये, गज गमन चली!
मुझको कविता ही लगे भली.
चलती निज कविता तुरग चाल
भूलोगी चलना ग़ज़ल-गली.
प्रतुल जी छंदों को आकार लेने दीजिये, तब तक इसे ही पढ़कर आनद लिया जाये धन्यवाद
वास्तव में काव्य की पारंपरिक दुल्हनिया निरंतर अलंकार विहीन होती गई है.अलंकारिक काव्य को पुनः स्थापित करने का विचार सराहनीय है.
ओ ग़ज़ल प्रिये, गज गमन चली!
मुझको कविता ही लगे भली.
चलती निज कविता तुरग चाल
भूलोगी चलना ग़ज़ल-गली
सुंदर .....मनमोहक पंक्तियाँ.....
सबसे रोचक छन्द पर कोई टिप्पणी नहीं। दूसरे नम्बर पर निम्न छन्द पसन्द आया:
चन्दन सुगंध लेने वाली !
मेरी पसंद लिपटी व्याली.
व्याली पसंद आनंद गंध
आनंद गंध सबसे आली.
सभी छंद श्रेष्ठ है। प्रश्न कुछ समझ नहीं आया? यह भी प्रश्न ही है। हा हा हाहा।
रोचक छंद, रूचक होते हुए!!
प्रश्नोत्तर शैली, जिज्ञासा (जानने की रुचि) को उत्प्रेरित करती है
suprabhat guruji,
is gurukul ke hum nir-buddhi kshatra
kaksha pratham........antim...parat.
kaise karoon kshand ki goodh...baat.
kahin, tar na jayen, hamari alp-gyat.
so,karte haan-na me apni chupi baat..
pranam.
भली लगी "हाँ ’नहीं’ मगर.."
ओ ग़ज़ल प्रिये, गज गमन चली!
मुझको कविता ही लगे भली.
चलती निज कविता तुरग चाल
भूलोगी चलना ग़ज़ल-गली.
...बहुत सुन्दर रचना..
jigyyasa vash atm anubhuti ko abhiprerit karne ke liye . ( prashna ka utter)
kavita sunder hai
कविता कैसे निर्मित हुई ... इस विषय में कहना चाहूँगा...
एक बार की बात है कोलिज के दिनों में कुछ साहित्यिक रुचि के मित्रों ने एक समिति का निर्माण किया था. नाम था 'विवेकानंद विचार समिति'. मेरे साथी थे.. सञ्जय कुमार राजहंस, विमल कुमार, समीर खान 'सूर्यपुत्र'. अन्य भी कई सहयोगी थे. एक बार राजनीति में बी ए ओनर्स कर रही प्रियंका जी समिति में आयीं. और उन्हें छात्रों के बीच किसी विषय पर हुई चर्चा बेहद अच्छी लगी. वे समीर जी के साथ आयीं थीं. मेरे मन में तब हिन्दू और मुसलमान जैसे और जातिगत छोटे-बड़े के भाव तब कतई नहीं आते थे... इसलिये मैं उन्हें (समीर खान को) बड़ा मानने के नाते श्रद्धावश चरण छूता था, वे लेखन-धर्म से जो जुड़े थे. (बाद में उनके आहार-विहार और छल कपट करने के कारण दूरी बना ली, वैसे वे स्वयं ही मेरी एक बड़ी राशी कपट से हड़प कर कहीं लापता हैं.) साथी समीर ने प्रियंका जी से परिचय करवाया. और वे स्वयं किसी अन्य से बात करने लगे... उन दिनों मैं लड़कियों से केवल नमस्ते बोलने तक सीमित रहा करता था.. इसलिये मैंने प्रियंका जी से नमस्ते किया और नव परिचय की बातचीत शुरू हुई. मैंने ज्ञान इन्द्रियों से जुड़े पसंद-नापसंद वाले ही उनसे प्रश्न किये... जैसे कि आपको क्या अधिक देखना पसंद है? आपको सुनने में क्या पसंद है? आपको खाने में क्या अच्छा लगता है? आपको सुगंध किसकी अच्छी लगती है? आपको स्पर्श किसका अच्छा लगता है? जब उनसे मैंने आखिरी प्रश्न किया तब उनके मुख से सहसा कुछ अस्फुट सा निकला.... मैंने पूछा कि 'क्या आप समीर कह रहे हैं?...... उन्होंने लगातार तीन शब्द बोले.. 'हाँ'.. 'नहीं'.. मगर...
बस मुझे काव्य की सामग्री मिल चुकी थी... उन दिनों मैं बातें कम किया करता था कविता नियमित लिखा करता था.
@ कविता जी,
आपका नाम स्वयं ही काव्य है.
कोई कवि बन जाये सहज संभाव्य है.
@ कुश्वंश जी,
छंद स्वच्छंद भाव से निर्मित होते हैं.. मैं तो परस्पर की बातचीत से प्रायः काव्य-सामग्री को ढूँढा करता हूँ. आपके आनंद में भी मेरा अपना आनंद निहित है.
@ अरुण जी,
काव्य की पारंपरिक दुल्हनिया आर्टिफिशयल शृंगार की आदत से ग्रस्त हो चुकी है इस कारण ही उसे पुनः पुराने शृंगार से सजाने का सोचा है.. धीरे-धीरे शायद आदत में आ जाये..शायद पुराने अलंकारों को तवज्जो मिलने लगे!
@ डॉ. मोनिका जी,
इस बार की कविता ने आपके मन को मोहा है, आने वाले समय में मन का हरण अवश्य होगा. सावधान रहियेगा. :)
@ अनुराग जी,
आपने जब से पाठशाला का सर्वश्रेष्ठ ब्लोगर में पंजीकरण किया है तब से ही पाठशाला के नियमित छात्र छुपे-छुपे रहते हैं. पाठशाला के बाहर ही बतियाते हैं..
मैं तो उनसे केवल इतना चाहता हूँ कि वे एक स्माइल छोड़कर भी चले जायेंगे तो भी मुझे संतोष होगा कि प्रश्नोत्तर करने वाले छात्रों से गुरु का गुरुत्व बाहर निकल पाता है.. गुरु का जितना महत्व है उससे अधिक प्रश्न करने वाले छात्रों का महत्व हुआ करता है. उनके कारण ही चर्चा संभव भी है अन्यथा सभी विषय नीरस ही हो जाते हैं.
@ आदरणीया अजित गुप्ता जी
प्रश्न में मैंने जानना चाहा था कि जब भी हमारा किसी से नया-नया परिचय होता है तब हम क्यों उससे बातचीत में प्रश्नोत्तर वाली शैली अपनाते हैं... वह भी उसके पसंद-नापसंद वाले प्रश्नों की.
मुझे प्रतीत होता है कि आपने जानबूझकर प्रश्न करके परस्पर के परिचय को नव्यता देने की कोशिश की है.
@ सुज्ञ जी,
नवल परिचय में हमारी जिज्ञासा मुख्य-मुख्य बातों को जान लेने की होती है जिनसे हम अमुक व्यक्ति का मूल्यांकन सहजता से कर पाते हैं. .. ठीक बात है कि प्रश्नोत्तर शैली जानने की रुचि को उत्प्रेरित करती है.
@ सञ्जय प्रथम, नमस्ते.
आप अच्छी कविताई कर रहे हैं... प्रयास जारी रहने चाहिए..
@ सञ्जय जी,
जब पहला उत्तर देने पर संकोच मन में घर कर जाये तब उससे अन्यार्थ न लगा लिया जाये तो इसलिये दूसरा उत्तर कह दिया जाता है, फिर स्पष्टीकरण देने को उद्दत हुआ जाता है... इस पूरे भाव को अवहित्थ भाव कहते हैं.
@ कैलाश जी, आभारी हूँ आपका कि आपने रचना को सुन्दर कहा.
@ गिरधारी जी, आपने भी जिज्ञासा को ही महत्व दिया है... जो कि सही है..
ओ ग़ज़ल प्रिये, गज गमन चली!
मुझको कविता ही लगे भली.
चलती निज कविता तुरग चाल
भूलोगी चलना ग़ज़ल-गली.
...बहुत सुन्दर रचना..
यही पंक्तियाँ आपने मेरी पोस्ट पर लिखी थीं ग़जल से नाराज है क्या ? उस गली में कभी कभी आ जाइये , धन्यवाद
@ सुनील जी,
ग़ज़ल से नाराज नहीं हूँ... जिस विधा को सीखने का गुरु न मिला हो, जो अप्राप्य हो उसके प्रति विमुखता ही दिखाने में समझदारी होती है. वैसे ग़ज़ल की गली में घूमने का मन तो मेरा बहुत है. किसी दिन चुपचाप घूमूँगा.
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