आवरण - १
अग्र से नील, पृष्ठ से पीत
हरित आभा देते बन मीत.
श्याम रंजित लघु लघु लघु छींट.
लगी हो लू को जैसे शीत.
इंदु-मुख पर शश-तिल का अंक
नयन लेटे पल के पर्यंक.
कमर केहरि जैसी कृश, काल
ग्रसित लगते इंदु चख लंक.
पहले छंद का मात्रिक विधान कुछ ऐसे किया जाएगा :
राजभा गाल, राजभा गाल* = 8 + 8 = 16
नसल मातारा भानस गाल = 16
राजभा नसल नसल सलगाल = 16
यमाता मातारा ताराज = 16
[*ध्यान दें : कभी-कभी किसी पंक्ति का मात्रिक विधान तो बिल्कुल सही होता है लेकिन फिर भी उस पंक्ति की छंद कविता की गेयता ख़त्म हो जाती है. ऐसे में गण-विधान अपनी मुख-सुविधा के अनुसार किया जाना ठीक रहता है. जैसे हमने कविता की पहली पंक्ति का मात्रिक-विधान तो कर लिया लेकिन उसका गण-विधान "राजभा राजभा यमाता ल" न करके उसे दो खण्डों में बाँट कर किया "राजभा गाल, राजभा गाल" मतलब "अग्र से नील, पृष्ठ से पीत" पंक्ति के मध्य आये 'अर्धविराम' के अनुसार उसका गण-विधान भी किया. इस बात से मेरा तात्पर्य यह है कि हमें छंद में 'गीति तत्व' को अहमियत देनी होती है. दूसरी बात, मात्रिक विधान के चक्कर में मन का आनंद नष्ट नहीं करना चाहिए. 'छंद' मन के उन्मुक्त भावों को बाँधने का उपक्रम अवश्य करता है किन्तु वह इतना निष्ठुर भी नहीं कि कोमलतम भावों को अपनी वैधानिक-रज्जु से कुचलकर रख दे.]
वरिष्ठों के लिये :
प्रश्न : दूसरे छंद का मात्रिक विधान कैसे किया जाएगा?
कनिष्ठों के लिये :
प्रश्न : 'पर्यंक' कितनी मात्राओं का शब्द है?
[नोट : विद्यार्थी अपनी इच्छा से दोनों प्रश्न का उत्तर भी दे सकते हैं.
13 टिप्पणियां:
'छंद' मन के उन्मुक्त भावों को बाँधने का उपक्रम अवश्य करता है किन्तु वह इतना निष्ठुर भी नहीं कि कोमलतम भावों को अपनी वैधानिक-रज्जु से कुचलकर रख दे.]
प्रतुलजी अति सुन्दर ढंग से बताया आपने छंद के बारे में.कोशिश करते हैं विधार्थी बनने की.आपका ज्ञान कुछ तो असर लाएगा ही.पर न समझ आये या गल्ती हो जाये तो माफ जरूर कीजियेगा मास्साब.
बहुत मुश्किल लग रहा है।
१. गाल नसल नसल सलगा गाल
नसल ताराज जभान गाल
नसल भानस ताराज जभान
भानस सलगा भानस जभान
२. चार
प्रतुल जी बहुत ही रूचिकर होता जा रहा है लेकिन मुझे गाल का अर्थ नहीं समझ आ रहा है। कृपया इसे स्पष्ट करें।
पर्यंक में - 221 मात्राएं हैं।
आज दिल्ली जाना है, यदि समय मिला तो जाने से पूर्व होम वर्क करके ही जाऊँगी लेकिन पहले गाल का सम्यक भावार्थ समझा दें। यह न खाली जैसा तो नहीं है?
@ राकेश जी,
यहाँ विद्यार्थियों को गलतियाँ करने की छूट है. यहाँ केवल गुरु जी माफी मांगने के अधिकारी हैं, जब वे उत्तर देने में असमर्थ हो जाएँ.
आपके आने पर पाठशाला की गरिमा बढ़ती है.
@ मनोज जी,
आपने पहली पंक्ति के दोनों ओर गाल लगा कर मुख सुख को प्राथमिकता दी.. अच्छा लगा. लेकिन दूसरी पंक्ति में "नसल ताराज जभान गाल" के स्थान पर "नसल ताराज यमाता गाल" होना चाहिए. शेष पूरी तरह सही मात्रिक विधान किया गया है. आपके दूसरे प्रश्न का उत्तर पहले उत्तर [गण-विधान ... 'जभान'] से प्रभावित होने के कारण 'चार' तक सिमटा रह गया है.
पर्यंक = प^+अ+र^+य^+अ+गं+क^+अ [ ^ चिह्न को हलंत समझें और 'गं' को कवर्ग का पाँचवाँ अनुनासिक व्यंजन समझें]
इस तरह पर्यंक को परि + अंक करके भी समझा जा सकता है. मात्रिक विधान होगा = 221=5
आदरणीया अजित जी ,
"यमाताराजभानसलगा"
यदि इस सूत्र को उलट दिया जाये तो आपको एक सुन्दर गाल दिखायी देगा.
"गालसनभाजरातामाय"
स तक तो आठ गण होते हैं उसके बाद
गा मतलब ... गुरु ... मतलब 2 मात्रा
ल मतलब ... लघु ... मतलब 1 मात्रा
पाठशाला में कुछ भी अकारण निरर्थक नहीं दूँगा. 'ण' खाली जैसी कोई बात नहीं है.
बस कभी-कभी हम दूसरे का मंतव्य नहीं समझ पाते. यह स्थिति मेरे साथ भी बनती है. और परिणामस्वरूप प्रश्न न करके अनुचित कमेन्ट कर बैठता हूँ.
दिल्ली आना हो रहा है, अवश्य कोई बड़ी वजह होगी. मेरी तरफ से आपको सदा खुला निमंत्रण है. अपनी सुभीते का ध्यान करके मेरी सेवा का लाभ ले सकते हैं.
पता : २४४/१०, त्रिपथ, स्कूल ब्लाक, मंडावली, दिल्ली-११००९२
दूरभाष : 09312819509
आपके उत्तर का ही इंतजार कर रही थी, अब गाल का अर्थ समझ आ गया है। ऐसे ही और छिपे हुए शब्द हैं तो वे भी बता दे। यह जानकर अच्छा लगा कि आप दिल्ली में हैं। मैं 19 और 20 दिल्ली हूँ आप से फोन पर बात करती हूँ, शाम को।
यहाँ कुछ कहने की योग्यता नहीं रखती लेकिन विद्वानों के मध्य चर्चा का लाभ ले रही हूँ। कक्षा की अंतिम पंक्ति में मेरी उपस्थिति दर्ज की जाए। आभार।
subh:sandhya guruji,
nakal karne ke pher me divas-gujar gaye......class ki antim pankti 'arakshit' hai.....balak ke liye....
bandhu-bandhav, ise smaran rakhenge..
kanishth ke prashn ka uttar apne thik diya hai.......aisa kahkar thora....
gal baja lene evam jhenp mita lene...
denge......
pranam.
@ होली बीती बैठी आके, होले-होले मा तारा.*
कक्षा में दिव्या आयी तो, ठाड़ा संजू बेचारा.
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*मातारा से मतलब 'म-गण' से है. दूसरा अर्थ अ'मा'वस्या से है.
होली मतलब पूर्णिमा/प्रतिपदा का समय बीत जाता है तो बैठने को तारों से भरा आस'मा' आ जाता है.
दिव्या जी, आप दिये हुए छंद का मात्रिक विधान कर अभ्यास करें. इस पूरे छंद में म-गण है मतलब प्रत्येक वर्ण गुरु है. अब आपको सरलता होगी.
सञ्जय जी,
नक़ल के फेर में आप कक्षा के बाहर ही इंतज़ार करते रह गये, न सुज्ञ जी आये और न अमित जी, जब दिव्या जी आयी तो आप अन्दर आ गये. और अब सीट को लेकर झगडा.....
@ पहले आओ पहले पाओ, निर्धन हो या कोई धनी.
पीछे वाली सीट बिचारी, बालकोनी की सीट बनी.
बालकोनी का मतलब नहीं कि बालक कोने में बैठे.
बालक आगे अच्छा लगता, अमित अभी तक हैं ऐंठे.
गाल नसल नसल सलगा गाल
नसल ताराज यमाता गाल
नसल भानस ताराज जभान
भानस सलगा भानस जभान
पर्यंक में - पाँच मात्राएं हैं।
(मनोज जी के श्रम अजित जी के सही उत्तर और आपकी समझाईश के आधार पर);))
.
काव्य उत्पत्ति के सन्दर्भ में :
यह कविता एक सुन्दर बाला के दर्शन पर उपजी थी, जिसके पहनावे से आँखें चुँधिया गयीं.
अन्यों को कविताओं के अर्थ सहजता से समझ में ना आने का कारण यह है कि मैंने अधिकांश कवितायें स्वान्तःसुखाय की हैं मतलब स्वयं के लिये. सुनाने के लिये नहीं, केवल मन ही मन गुनगुनाने के लिये.
इस काव्य (गीति) का अर्थ :
पहनावा आगे से नील वर्णी और पीछे से पीत वर्णी था जो मिलकर हरित वर्ण की द्युति छोड़ रहा था.
उसपर श्याम वर्णी नन्हें-नन्हें बिंदु छपे थे. लगता था मानो 'गरम हवा का झोंका' ठण्ड से सिमट गया हो.
उसके मुख पर अंकित एक तिल.... चंद्रमा पर छपे दाग की भाँति दिखता था.
उसके नयन पलकों के पलंग पर विश्राम कर रहे थे. कमर सिंह-कटि की तरह पतली थी.
उसका समस्त सौन्दर्य ऐसा लगता था जैसे कि वह काल-कवलित होने जा रहा हो.
अर्थात, चंद्रमा (मुख) अपने दाग (तिल) से ग्रसित था, नयन पलकों के भीतर मद/ आलस्य से ग्रसित थे और कटि अपनी कृशता से ग्रसित थी.
इस तरह उसकी समस्त निधियों पर कोई-न-कोई पहरेदार खड़ा होकर उनकी रक्षा कर रहा था (सौन्दर्य को सुरक्षित किये था).
या साफ़-साफ़ कहें कि सौन्दर्य समय बीतने के साथ बढ़ रहा था.
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काल ग्रसित =
— इंदु-मुख के सन्दर्भ में - काले (दाग/तिल) से अर्थ
— नयन के सन्दर्भ में - अवसान/छिपने (मद/आलस्य) से अर्थ
— कमर के सन्दर्भ में - क्षीणता (कृशता) से अर्थ
यहाँ विरोधमूलक (असंगति) अलंकार है विभिन्न अंगों के काल-ग्रसित होने से सौन्दर्य नष्ट होने की बजाय बढ़ रहा है.
विरोधमूलक अलंकारों में चमत्कार का मूल... विरोध का प्रतिपादन करना होता है, किन्तु यह विरोध वास्तविक न होकर कवि कल्पित होता है.
दूसरी बात, यह विरोध प्रतीत होते ही शांत हो जाता है जिस प्रकार विद्युत् घन में क्षण भर के लिये चमक कर शांत हो जाति है और इसी में उसका सौन्दर्य निहित रहता है, उसी प्रकार विरोध भी क्षण भर के लिये प्रतीत होकर शांत बैठ जाता है. विरोधमूलक अलंकारों का वर्णन फिर कभी किया जाएगा.
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