सोमवार, 24 जनवरी 2011

– : स्मृति आज़ कर रही तुमसे नेह : –

त्रय दिवस बीतने बाद प्रिये! 
कर रहा स्मृति को लिपिबद्ध. 
मैं शुष्क प्रेम अपने वाले 
कुछ तत्त्व दिखा देता हूँ सद्य. 

त्वम वस्त्र पुराने नवल सभी 
कर-अधर द्वयं के संगी हैं. 
एकांत, श्रांत, मन भ्रांत कभी 
होता तो मोचन अंगी हैं. 

तलहटी पाद पीड़ा में भी 
तुम हुए समाहित सेवा से. 
स्मृति आज़ कर रही तुमसे नेह 
जुट गये विषय अच्छे-खासे. 
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कविता की पृष्ठभूमि : 
मेरी पत्नी को मुझसे शिकायत रही कि मैंने कभी कोई कविता उनपर नहीं लिखी. आज़ मुझे एक डायरी मिल ही गयी जिसमें उनपर कुछ ऐसा लिखा था जो उनकी दृष्टि से छिपा रह गया था. बात उस समय की है जब वे किसी कारणवश विवाह के प्रथम वर्ष में ही अपने जन्म-घर गई हुई थीं. तीन दिवस बीत चुके थे, मन मंद-मंद कराह कर रहा था. तलवों में हो रही पीड़ा किसी की स्मृति का संबल लिये थी. 

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कवि-कोटियाँ - 2

काव्य सेवन के आधार पर भावक या आलोचक के चार भेद माने गये हैं. आरोचकी, सतृणाभ्यवहारी, मत्सरी और तत्त्वाभिनिवेशी. 

आरोचकी — 
वह है जिसे अन्य किसी का काव्य अच्छा नहीं लगता. 

सतृणाभ्यवहारी — 
वह है जो समस्त कविता कही जाने वाली छंदोबद्ध रचना को पढ़ता है. 

मत्सरी — 
वह है जो दूसरों के उत्तम काव्य को न पढ़ता है और न सुनकर प्रशंसा करता है, केवल दोषों को देखता है. 

तत्त्वाभिनिवेशी — 
वह है जो काव्य के तत्त्व में प्रवेश कर उसे पहचानता और ग्रहण करता है. 


अन्य आधारों पर अगले अंक में दिया जाएगा. 
अब तक दिया गया समस्त 'कवि-कोटि वर्गीकरण' आचार्य क्षेमेन्द्र जी का है. 

20 टिप्‍पणियां:

Rahul Singh ने कहा…

इस शास्‍त्रीय चर्चा में शामिल होने के लिए मानसिक तैयारी जरूरी है.

दिनेश शर्मा ने कहा…

सुन्दर रचना ।

मनोज कुमार ने कहा…

यह शास्त्रीय चर्चा अच्छी लगी। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
बालिका दिवस
हाउस वाइफ़

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

bahut sundar evam gyanvardhak charcha


pranam

सुज्ञ ने कहा…

गुरुजी,

यह विरह वेदना तो शब्दो से साक्षात हो गई।
शब्द संयोजन तो ला-जवाब है।

सहित्य चर्चा ज्ञानवर्धक है। विध्या दान करते रहें।

निर्मला कपिला ने कहा…

प्रतुल जी इतनी सुन्दर कविता पढ कर आब तो पत्नि खुश हो गयी होगी? उन पर जरूर लिखा करें अच्छा लगता है बच्चों का ये प्रेम बन्धन। बहुत बहुत आशीर्वाद। आपको गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें |

VIJAY KUMAR VERMA ने कहा…

सही लिखा है आपने. सुंदर रचना

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

तलहटी पाद पीड़ा में भी
तुम हुए समाहित सेवा से.
स्मृति आज़ कर रही तुमसे नेह
जुट गये विषय अच्छे-खासे.

मन मंद-मंद कराह कर रहा था. तलवों में हो रही पीड़ा किसी की स्मृति का संबल लिये थी. ...

हमें इस कराह से जलन हो रही है प्रतुल जी .....
कविता पूरी पढ़ ली है ...
अब हमें मत्सरी की श्रेणी में मत रखियेगा .....
हा...हा...हा...
और हाँ हम आभ्यासिक कवि हैं ....
सारस्वत नहीं .....

Rohit Singh ने कहा…

वाह वाह वाह वाह....कभी कुछ भी लिखा हुआ काम आ ही जाता है. चाहे यादों के झरोखों से हो..या डायरी के पन्नों से....वैसे भी ये कविता तो धन्य है.....आखिर आपका विरह गान जो है....

(वैसे भी आलोचना करके अपनी किसी भविष्य में तय मिलने वाली एक चाय का सत्यानाश नहीं कराना और आपकी पड़ने वाली डांट में इजाफा भी नहीं करवाना हाहा)

हां अब तो शायद भाभाजी की शिकायत मिट गई होगी..पर ये आरोप तो नहीं लगा दिया कि पुरानी डायरी में कविता लिख कर उनकी शिकायत को बिना अधार वाली साबित कर रहे हो....मार्का शिकायत...हाहाहाहाहा....

आलोचक के अधार
मत्सरी तो नहीं है अपन.....दोषों को ढूंढते भी नहीं....क्योंकि भला देखन जो मैं चला, भला न मिलया कोई....जो दिल खोजा आपना...मुझ से भला न कोई.....इसलिए दोष तो ढंढता नहीं,, वैसे ही लोगो में दिख जाते हैं...(हाहा)

तो अपन तो चारों ही आधार में नहीं आते....अब बेअधार न कह देना.....

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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राहुल जी,
@ आपके बिना तैयारी के अनुभवपरक वचन भी प्रेरित ही करते हैं.
आप केवल नज़र भर डालते रहें कि कुछ अनुचित तो नहीं हो रहा.
बड़ों की निगरानी बेहद जरूरी होती है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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मनोज जी और दिनेश जी
आपका आभार.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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संजय जी,
आपका आना ही मेरे लिये एक उपलब्धि हो गया है. आप जैसी विनम्रता आज दुर्लभ हो चली है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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सुज्ञ जी,
मैं अपने निजी भावों के बहाने साहित्य चर्चा जो कर पा रहा हूँ आप जैसे मित्र का ही सहयोग है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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आदरणीया निर्मला जी,
पत्नी जी ने जब इस कविता को सार्वजनिक होते देखा तो बहुत गुस्सा हुई.
शायद मन में प्रसन्न हुई हों. ... मेरा अनुमान है. जब वे आपका आशीर्वाद मेरे टिप्पणी बॉक्स देखेंगी तो कुछ मन की प्रसन्नता शायद बाहर आ पाए.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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विजय कुमार वर्मा जी आपका आने के लिये आभार.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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आदरणीया हरकीरत जी,
आपका दर्शन मात्र मेरे कवित्व की साँसे चालित कर देता है. कुछ-न-कुछ नया लिखने को प्रेरित होता हूँ.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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रोहित जी,
आपके लिये चाय हमेशा इंतज़ार करेगी. मेरा पता है : pratul1971@gmail.com
क्या इस पते से काम चल जाएगा. या फिर एक पुराना पता भी है, यदि काम में आये तो जरूर लायें :
244/10, त्रिपथ, स्कूल ब्लॉक, मंडावली, दिल्ली-110092.

आप जिस आधार में आते हैं. आगे आने वाले आधारों में छाँट लीजिएगा. आपको बिना आधार या निराधार नहीं रहने देंगे. चिंता न करें.... हा हा हा.

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ZEAL ने कहा…

भाभी जी के लिए लिखी गयी कविता में बहुत मिठास है । आशा है उन्हें बहुत पसंद आयी होगी।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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@ हाँ, वे मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं. बस, मुझे और क्या चाहिए. इतना काफी था.
जिह्वा पर शब्द तो क्रोध वाले ही थे लेकिन मैं वास्तविक क्रोध और बनावटी क्रोध की गंध जानने लगा हूँ.

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बेनामी ने कहा…

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