मित्र
आप पिछली बार मेरे साथ ही रहे उससे मुझे आगे बढ़ने की हिम्मत मिली. मैं इस बार स्थायी भाव को सहयोग करने वाले अन्य भावों के बारे में बताऊँगा .
मेरी सभी बातें भरतमुनि, अभिनव गुप्त, विश्वनाथ आदि आचार्यों द्वारा किये गये विचार-विमर्श और निष्कर्षों पर आधारित हैं. पहले कभी हमने रस-निष्पत्ति के बारे में परिचयात्मक चर्चा की थी. आज हम रस के महत्वपूर्ण अवयवों के बारे में सरल चर्चा करेंगे.
रस के प्रमुख चार अवयव हैं —
[१] स्थायी भाव ............जिसकी चर्चा हम कर चुके हैं और आज भी करेंगे.
[२] विभाव ..................जिसकी चर्चा आगामी कक्षाओं में करेंगे.
[३] अनुभाव ................"
[४] व्यभिचारी भाव ......"
— स्थायी भाव सभी के ह्रदय में वासना रूप में जन्मजात रहते हैं. हमेशा रहते हैं.
— ये अनुभूतियाँ पढ़े और बेपढ़े, विद्वान् और मूर्ख सभी में पायी जाती हैं, जो अवसर आने पर जागृत और सुषुप्त होती रहती हैं.
— ये अनुभूतियाँ या वृतियाँ बाक़ी अनुभूतियों की तुलना में अधिक तीव्र, गतिशील और सूक्ष्म होती हैं.
— इन्हें आप मूल वृत्ति कह सकते हो, चाहे मौलिक मनोवेग कहो अथवा स्थायी भाव.
इन वृत्तियों का आधार 'अहंकार' की दो मुख्य वृत्तियाँ हैं .............
वे हैं ....... [१] राग और [२] द्वेष,
जो क्रमशः सुखात्मक एवं दुखात्मक प्रकृति की होती हैं. शेष वृत्तियाँ या अनुभूतियाँ स्थूल एवं अस्थायी होती हैं और इनकी संख्या देशकाल एवं वातावरण के अनुसार अनंत होती हैं.
मित्र, आज की राष्ट्र विषयक रति (देशप्रेम) या प्राचीनकाल से चली आ रही प्रकृति विषयक रति को स्थायी भाव नहीं माना जा सकता क्योंकि एक तो रति का यह स्वरूप सार्वजनिक नहीं है और न ही सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक. यदि देश-प्रेम सार्वजनिक वृत्ति होता तो देशद्रोहियों का जन्म ही नहीं होता. यदि सार्वकालिक होता तो भारत में आज भी राष्ट्रीयता का अभाव क्यों होता?
इससे स्पष्ट है कि राष्ट्र-प्रेम एक बौद्धिक प्रक्रिया मात्र है. ये ही तर्क समाज प्रेम/ प्रकृति-प्रेम या स्नेह आदि के संबंध में दिए जा सकते हैं.
'हास' (जिसे आज के मनोवैज्ञानिक शायद चिह्नित नहीं कर पाए) और 'शोक' यदि देखा जाए तो सर्वाधिक पुष्ट मूलभूत प्रवृत्ति है. भवभूति ने इसीलिए 'एको रसः करुण एव' कहा है.
लौकिक जीवन में भी हम देखते हैं कि बच्चा जन्म के साथ दो ही वृत्तियाँ लेकर आता है. वह या तो रोता है या हँसता है. इनमें भी आप देखेंगे कि बच्चा रोता पहले है और हँसता बाद में है.
अतः क्रम की दृष्टि से 'शोक' का पहला स्थान है और 'हास' का दूसरा स्थान है.
इस बात को अगले भ्रमण में विस्तार देंगे. ठीक है मित्र ........ फिर मिलेंगे. दीपावली आ रही है विद्यार्थियों के लिये मिठाई खरीदनी है. आपको भी देने आऊँगा. नमस्ते.
प्रश्न — आज भी और प्राचीन समय में भी 'शृंगार' रस को प्रमुख रस और 'रति' को प्रमुख स्थायी भाव क्यों माना जाता रहा है?
उत्तर — 'रति' स्थायी भाव में तीव्रता का आधिक्य है और इसका क्षेत्र अन्य स्थायी भावों की तुलना में अधिक व्यापक है. अतः तीव्रता एवं व्यापकता के कारण ही इसे अधिक महत्व मिला, न कि मूलत्व के कारण.
क्या उपर्युक्त प्रश्न का कोई अन्य उत्तर भी है?
8 टिप्पणियां:
adarniye guruji
pranam.
aaj ka vishaya padha....sayad 10% samajh aaya aage tippani padhne ata
rahoonga jis se ki.....vishya vastu
ko adhik samajh sakoon.
priye sugya ji evem baki mitragan ko
subh: kamna.......
sanjay
aapke nursury ka kshatra.
.
सच में मैं भूल ही गया था कि यहाँ संजय भी आ बैठे हैं. आगे फिर ना भूल जाऊँ इसकी याद दिलाते रहियेगा. विषय वास्तव में जटिल है फिलहाल आप केवल एक कविता याद करें. इसे दीपावली की मिठायी समझना :
मिष्ठान्न मोदक दौग्धिका
गुड शर्करा रस पूपिका
तुम भूल जावोगे सदा
खावो हमारी मिष्टिका.
कटु तिक्त खट्टा चटपटा
न कषाय लवणीय अटपटा
इन स्वाद से भी दूर है
मधुमय हमारी मिष्टिका.
है सूप ओदन पिष्टिका
औ' पूप पापड़ पोलिका
संयाव पायस शाक भी
भूले बनाना, पाचिका.
देहात की हो बालिका
चाहे नगर की वासिका
होवे प्रफुल्लित देर तक
खाकर हमारी मिष्टिका.
शब्द अर्थ :
मिष्ठान्न — मिठाई
मोदक — लड्डू
दौग्धिका — बर्फी
शर्करा — चीनी
रसपूपिका — रस गुल्ला
दुग्धपूपिका — गुलाब जामुन
कटु — कड़वा
तिक्त — तीखा
कषाय — कसैला
लवणीय — नमकीन
मधुमय — शहद सी मीठी.
सूप — पकी हुई 'दाल'
ओदन — भात, पका हुआ चावल
पिष्टिका — पिट्ठी
पूप — पूआ.
पापड़ — (हिंदी शब्द है), संस्कृत में .... पर्पटः
पोलिका — फुलका, रोटी.
चर्पटी — चपाती
संयाव — हलवा
पायस — खीर
शाक — तरकारी आदि सब्जियाँ.
पाचिका — खाना बनाने वाली (स्त्रीवाची शब्द)
देहात की बालिका — ग्रामीण कन्या
नगर की वासिका — शहर में रहने वाली.
.
गुरू जी,
पहले तो इस मधूर रसास्वादन कराने के लिये आभार।
रसपूपिका को मैं रसगुल्ला की जगह जलेबी समझ चपट गया।:-)
# चार संज्ञाओं के बारे में सुना था,1-आहार संज्ञा,2-भय संज्ञा,3-मैथुन संज्ञा,4-परिग्रह संज्ञा।
ये चार संज्ञाएँ न केवल मनुष्य बल्कि प्राणी मात्र में जन्म-जात होती है,क्या इनका स्थायी-भाव से कोई सम्बंध है?
.
sugya jii,
प्रश्न ऐसे किये जो मनन को बाध्य करें.
१] आहार संज्ञा — जो भी जीव जन्मा है, जिन तत्वों से उसका निर्माण हुआ है उन तत्वों की आहार रूप में निरंतर आवश्यकता पड़ती रही है. आवश्यकता ही से प्रत्येक जीव को बोध रहता है कि उसके लिये क्या भक्ष्य है. जो जीव जिन खाद्यों के निकट जन्म लेता है प्रायः उसे ही अपने भोजन रूप में विकसित कर लेता है. अथवा उसका आहार-नाल उस खाद्य के अनुकूल हो जाता है. यह संज्ञा स्थायी तो है लेकिन भरे पेट होने पर समाप्त हो जाती है. फिर चाहे आहार सामने ही क्यों न हो. लेकिन सर्वमान्य स्थायी भाव मन की विभिन्न स्थितियाँ हैं. जो आलंबन और उद्दीपन के सम्मुख आते ही बार-बार उद्दीप्त हो जाती हैं. ये आहार की तरह नहीं कि भर जाने पर दुबारा नहीं उद्दीप्त होते. यदि शत्रु जितनी बार सामने आता है क्रोध भी उतनी बार आश्रय के भीतर जन्म लेता है.
२] भय संज्ञा — हाँ इसका संबंध भय स्थायी भाव से ही है. भय का बोध अपने अस्तित्व के प्रति चिंता और अकल्पनीय घटनाओं से होने वाले अनिष्ट के अनुमान से ही यह संज्ञा पुष्ट होती है.
३] मैथुन संज्ञा — इसका वास्ता रति से सम्बद्ध करके स्थायी भाव के रूप में देखा जा सकता है.
४] परिग्रह संज्ञा — संग्रह या जोड़ने की प्रवृत्ति स्थायी भाव नहीं है वह तो कुछ जीवों की भविष्य के प्रति अति चैतन्यता है. अथवा लोभ के वशीभूत उपजा अव (गुण) है.
,,,,,,,
सुज्ञ जी, विस्तार नहीं कर पाउँगा, समय कहीं और देना चाहता हूँ फिलहाल. फिर कभी इन प्रश्नों पर जरूर मनन करूँगा.
.
आभार, प्रतुल जी
ज्ञान-भूख मिटी तो नहिं,पर विवेचन मन भाया।
अति-सरल और सारगर्भित। कृपा विस्तार देकर ही करें
.
एक प्रभावशाली पोस्ट । हमेशा की तरह बहुत कुछ नया सीखने को मिला। मिष्ठान्न वाली कविता बहुत अच्छी लगी। बिलकुल अलग हटकर है।
.
मैं कक्षा में देर से आने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ पर इस माध्यम कि यही विशेषता मुझे अच्छी लगाती है कि आप जब चाहे तब इसमे भाग ले सकते हैं या इससे भाग सकते हैं. आज के पाठ से कई विचार मन में आए हैं जिन पर कुछ कहने से पहले मनन जरुरी है. मैं सोचता हूँ कि कुछ कहने से पहले सोच विचार कर ही लूँ.
.
सुज्ञ जी,
आपका ब्लॉग मंदिर है. भाव वहाँ पहुँचकर स्वयं अपने हाथों में पूजा का थाल ले लेते हैं.
विस्तार तो अवश्य करना चाहता हूँ. लेकिन जबरन का विस्तार पारखी-दृष्टियों में 'खींचतान' प्रतीत होता है. गंभीर विषयों पर स्वतंत्र स्वाभाविक सोच को ही पसंद करता हूँ.
आपके प्रश्न सुन्दर चर्चा करने के लिये अच्छे हैं. लेकिन जब ऐसे प्रश्नों में सभी अनुक्रमांक वाले शामिल हों तो आनंद द्विगुणित हो जाता है.
अमित जी तो आरोप-दर-आरोप लगने से दुखी हो गये और उनका मोनिटर पद भी आपको मिल गया. अब तो वे आराम और मौन रखना ही पसंद करते हैं.
उनकी कोपी में मैं एक कथा लिख देता हूँ ....'आदर्श. नाम की. शायद उन्हें पढ़कर कुछ सीख मिले.
.
एक टिप्पणी भेजें