पलकों ने खोला दरवाजा
तो पुतली ने बोला - "आजा,
क्यों शरमाते भैया राजा!
मैं नेह लिये आयी ताज़ा".
कल सोने से पहले बोली -
"भैया, बन जाओ हमटोली.
मेरी उठने वाली डोली
फिर खेल न पायेंगे होली".
चल खोजें अपना भूतकाल
मैं रोली थी तुम रवि-भाल.
भू पर फैला था छवि-जाल.
पर राका बन आ गई काल.
हल होने दें सीधा-सादा.
मैं करती हूँ तुमसे वादा.
यदि पाऊँगी कुछ भी ज़्यादा
हम बाँटेंगे आधा-आधा.
इस कविता में मुझे कई त्योहारों का सुख एक साथ मिलता है : होली, भैया दौज, बहिन-विवाह
19 टिप्पणियां:
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@--हल होने दें सीधा-सादा.
मैं करती हूँ तुमसे वादा.
यदि पाऊँगी कुछ भी ज़्यादा
हम बाँटेंगे आधा-आधा...
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बहुत प्यारी कविता है। घर की याद दिला दी। इस बार भारत प्रवास के दौरान १८ अगस्त को ही रक्षा बंधन मनाया था क्यूंकि , २१ को वापस लौटना था।
इस कविता ने पूरा बचपन सामने लाकर रख दिया। हर ख़ुशी , हर त्यौहार , सभी अपने तो वहीँ छुट गए। खुशनसीब हैं वो सभी जो अपनों के बीच रहते हैं।
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गुरुदेव निश्चल-रस सिक्त युक्त काव्य से परिचित करवाने के लिए धन्यवाद!
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@ एक बार फिर हुई अवहेलना मेरे प्रयासों की.
आपने पिछली पोस्ट पे यह क्या टांग दिया गुरुदेव !!!!!!!!
मेरे दादाजी ने अपनी पहली पोस्टिंग में तीन बच्चों के साथ एक पेड़ के नीचे स्कूल चालु की थी, और आज वोह स्कूल सैकेंडरी तक है............... शिक्षा विभाग हर बार उनकी पोस्टिंग ऐसी जगह करता था जहाँ कोई स्कूल नहीं होती थी, नई स्कूल खोलकर उन्हें भेजा जाता फिर वे सारा मैदान सँभालते और स्कूल के विद्यार्थी भारती कर गाँव के लोगों से स्कूल के लिए जगह दान करवाते, भवन निर्माण सरकारी और जनसहभागिता से होता था. ऐसे अट्ठारह जगह उनकी पोस्टिंग हुयी थी अगर वे भी आपकी तरह निराश होकर बैठ जाते तो???????????
कवि का दूसरा नाम प्रजापति होता है जो काव्य सृष्टि करता है, कवि हमेशा समष्टि की सोचता है, व्यष्टि की नहीं फिर आप एक को लक्ष्य कर अपने आप को इस सद्प्रयास से क्यों विमुख कर हो रहे है !!!!!!!!!! हमारा क्यों नुक्सान हो ?????
अतिसुंदर! प्रभावोत्पादक!!
अमित जी,
आपने ठीक ही कहा. लेकिन यह जानते हुए भी soochnaa taangnaa 'मेरे मित्र दीप' को परोक्ष आमंत्रण था. अब उनके बिना मोह के ही अपना कार्य करना है मैं जानता हूँ.
मित्र का मोह आड़े नहीं आने दूँगा.
धन्यवाद आपने सद्प्रासों के लिये एक बार fir prerit kiyaa.
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अमित जी ,
आपने नव रस के नाम की खोज आखिर कर ही ली. यहाँ नव का मतलब नये से है.
"निश्छल रस" काफी सुन्दर नामकरण है.
पुरोहित द्वारा नामकरण की उदघोषणा सुनकर मन प्रफुल्लित हो गया.
अब आपको अंक देने का नहीं अंक देने का मन है.
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प्रतुल जी,
जब अमित जी को अंक दे दो,
लाईन में हम भी है अंग लगा दो।
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मित्र हंसराज जी,
आपको अलग से पंक्ति में लगने की आवश्यकता नहीं.
"सिंहों के नहीं लेहड़े, हंसों की नहीं पात.
>>>>>>>>>>>>> साधु न चले जमात.
सिंहों के झुण्ड नहीं होते, और न ही हंस पंक्ति में लगते हैं.
तीसरा चरण भूल गया, साधु कभी समूह में नहीं चलते.
..... सभी अपने क्षेत्र में अकेले ही पर्याप्त हैं.
यदि तीसरा चरण कोई पूरा कर दे तो मेरी बेचैनी समाप्त हो.
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तीसरे चरण को जानने की जिज्ञासा मुझमें भी बलवती हो गई है।
लगता है तीसरा चरण वीरों को सम्बोधित होगा।
इसे तो पहेली की तरह पोस्ट कर दें ;)
सिंहों के लेहड़े नहीं, हंसों की नहीं पात।
लालन की नहीं बोरियां, साधु ना चले जमात।।
अर्थात शेरों का झुंड नहीं होता, हंसों कभी पंक्ति बना कर नहीं उड़ते, हीरे, मोतियों को बोरियों में नहीं रखा जाता, और साधु अर्थात ब्राह्मण कभी भीड़ में नहीं चलते।
@ अब आपको अंक देने का नहीं अंक देने का मन है.
# "यमक अलंकार"
अमित जी की मेघा का कायल!! भई वाह
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दिव्या जी,
जिनके मन मिल जाएँ वे अपने ही होते हैं. आप इतने दूर भी नहीं की संवाद न हो सके. आप हैं और हमारी पाठशाला में जितने भी छात्र हैं सभी एक परिवार के सदस्य हैं. आपकी कीर्ति की सुगंध हमारी पाठशाला में भी आ रही है. आप स्वयं को भारत से कभी दूर न समझें. राष्ट्र-प्रेम होना अच्छा है किन्तु वसुधेव कुटुंब की भावना लिये वसुधा पर विचरना भी सौभाग्य की बात है.
आपसे संवाद करने में शब्दों को फूँक-फूँक कर, झाड-पौंछ कर वाक्यों में रखना पड़ता है. आपकी अति-संवेदनशीलता के कारण ऐसा है जो शब्दों से मस्तिष्क पढती है.
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कक्षा में रस और अलंकारों की चर्चा के बात छंद चर्चा भी होगी. सभी विद्यार्थी स्वाध्याय भी करते रहें तो आनंद अधिक आयेगा.
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अमित जी,
आपने न केवल चार चरणों वाले विस्मृत दोहे के एक चरण की पूर्ति करके बैचनी समाप्त की अपितु मेरे मन की इच्छा वाले वाक्य में यमक ढूँढ निकाला. वाह! आपकी त्वरा बुद्धि पर विस्मय और प्रसन्नता एक साथ.
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सुज्ञ जी,
उत्तरों की खोज होने पर वाह-वाह करके भी वातावरण सुखद बनाया जा सकता है. आपके कम शब्दों में प्रोत्साहन की गूँज होती है.
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चल खोजें अपना भूतकाल
मैं रोली थी तुम रवि-भाल.
भू पर फैला था छवि-जाल.
पर राका बन आ गई काल.
एक अच्छी,
साहित्यिक रचना से साक्षात्कार हुआ है...
बधाई.
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भाई प्रतुल,
मैं संवेदनशील ज़रूर हूँ , लेकी छुई-मुई नहीं हूँ। मुझसे भयभीत मत हो । आपके मन का भय मेरे मन में भी भय पैदा करता है।
बहिन दिव्या
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@-सिंहों के लेहड़े नहीं, हंसों की नहीं पात।
लालन की नहीं बोरियां, साधु ना चले जमात।।
अर्थात शेरों का झुंड नहीं होता, हंसों कभी पंक्ति बना कर नहीं उड़ते, हीरे, मोतियों को बोरियों में नहीं रखा जाता, और साधु अर्थात ब्राह्मण कभी भीड़ में नहीं चलते।
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इन पंक्तियों और उसका अर्थ बताने के लिए अमित जी का बहुत बहुत आभार।
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