द्वय पक्षी होकर भी रति का
बना हुआ स्वामी शृंगार.
विप्रलंभ संयोग दलों का
ये कैसा अश्रुत सरदार.
एक पक्ष में मिलन, दूसरे
में बिछडन का है व्यापार.
संचारी त्रयत्रिंशत जिसमें
करते रहते हैं संचार.
और नहीं रस ऐसा कोई
जिसमें सुख-दुःख दोनों साथ.
बस केवल रति का ही स्वामी
जो अनाथ का भी है नाथ.
हे हे शृंगार! है हर मन में
तेरा ही प्रभुत्व तेरा ही राज.
अंतहीन विस्तार आपका
नव रस के तुम ही रसराज.
शब्दार्थ :
त्रयत्रिंशत संचारी — संख्या में तैंतीस संचारी भाव हैं.
इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहते हैं.
संचारी भाव :
संत्रास मोह मति चपलता, लज्जा मद उन्माद.
अपस्मार आवेग धृति, गर्व वितर्क विषाद.
दैन्य उग्रता स्वप्नश्रम, चिंता ग्लानि अमर्ष.
शंका स्मृति आलस्य जड़, मरण असूया हर्ष.
निद्रा व्याधि विरोध अरु उत्सुकता निर्वेद.
अवहित्था तैंतीस ये संचारी के भेद.
विज्ञापन :
एक अन्य भी है, जिसकी गणना इन भेदों में नहीं हुई है, वह है जऋम्भा (जम्हायी). इसकी गणना क्यों नहीं हुई इस सूची में इसे जानने के लिये प्रतीक्षा करें, आते रहें दर्शन-प्राशन पाठशाला में.
[शृंगार रस का स्थायी भाव 'रति' अथवा प्रेम है, जो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत हमारे साथ रहता है. यह तो निर्विवाद है ही कि जीवमात्र के जीवन का मुख्यभाग प्रेम है, वह चिरंतन, शाश्वत और सत्य है. वह सर्वव्यापी एवं सर्वोपयोगी है. उसमें तन्मयता की चरम सीमा एवं आत्मत्याग की पूर्ण प्रतिष्ठा है.]
20 टिप्पणियां:
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@--हे हे शृंगार! है हर मन में
तेरा ही प्रभुत्व तेरा ही राज.
अंतहीन विस्तार आपका
नव रस के तुम ही रसराज. ..
धन्य है वो जीवन , जिसने श्रृंगार रस का एहसास किया है। अन्यथा अक्सर यूँ ही जिंदगी ख़ाक हो जाती है।
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संजोग-जोग को मल्ल स्रंगार लिपटी रहे विषयन की गार
विषय आवागमन की चाभी, ताहि निवृति गीताजी को सार
पूरण-ब्रह्म सर्व गुण राशी तीनलोक भुवन अनन्त निवासी
तान्कौ स्वरुप महाशांत गावै वेद-शास्त्र सकल मुनि ज्ञानी
शांति पाठ गावें वेद, अष्टादश पुराण में महिमा गान शांति
तुलसी गाई शांति की अस्तुति, चणकसुत कह्यो परमनीती
बंधु अमित शांत रस उपासी, जिही केशव घोस्यो सिरमौर
कल्हण मन भी उठी तरंग, रसराज है शांत कह्यो राजतरंग
जहाँ सृष्टि की बात होगी, जहाँ सृजन की बात होगी, जहाँ उत्पत्ति की बात होगी, जहाँ निर्माण की बात होगी, वहाँ शृंगार बिना आये नहीं रहेगा.
एक प्रकरण सुनाता हूँ :
18 वर्ष पुरानी बात है :
मेरी शृंगार रस [प्रेयान रस] में लिप्त कविताओं से मेरे संन्यासी आचार्य देवव्रत आनंद जी काफी रुष्ट हुए और उन्होंने मुझे फटकार लगायी और कहा भगवत-भजन रचो और कुछ राष्ट्रवादी रचनाएँ करो. मैंने अपनी सफायी में कुछ कहना चाहा. परन्तु फटकार खायी.
कुछ महीनों पश्चात, एक सार्वदेशिक सभा हुयी, जिसमें देश के नामी गुरुकुलों के आचार्य उपस्थित थे. मैं आचार्य का प्रिय था सो मेरा प्रेम उनके इर्द-गिर्द भटकता रहता था. सभा समाप्ति पर मेरे आचार्य ने मेरा परिचय समस्त साधू-समाज से कराया. परिचय कराने के उपरान्त उन्होंने कहा चलो अपनी एक श्रेष्ट कविता सुनाओ:
मैंने कहा आचार्य जी 'शृंगारिक' है :
सभी की सहमती के बाद मैंने कविता सुनायी :
"............................................." [रचना काल है : २६ फरवरी १९९१]
कविता का शीर्षक था : "सृष्टि" जिसमें पूरी कविता दो श्वासों में ही पढी जाती थी. इस कविता पाठ से मेरा प्राणायाम भी हो जाता था.
कविता पाठ के बाद सभी ने सराहा और मेरे पक्ष को मजबूती भी दी, यह कहते हुए कि 'अरे, जहाँ उत्पत्ति की बात होगी वहाँ शृंगार तो आयेगा ही."
"यह कविता मेरी पूर्वजन्म की प्रतिभा है, आदि-आदि........." कहा गया.
बहरहाल, मैं इसे अब अमित जी के बहाने सभी के सामने रखता हूँ, यह इस शास्त्रार्थ [बाजी] का मेरा पहला 'इक्का' है.
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वह काल बड़ा भयानक था
न था अम्बर न था दिनकर
न धरा कहीं न धार कहीं
बहती थी, न थे नद-निर्झर.
न चाँद कहीं न तारे थे
न ग्रह से ही बंजारे थे
बस नग्न मग्न था छिपा खड़ा
अंधेतम में अंधा ईश्वर.
स्वच्छंद घूमती थी मारुत
मंजुल अंगों को किये हुए
थे प्रौत तत्व के बने हुए
उत्तेजित उर करने वाले.
आसक्त किये तम को, सत्वर
दौड़ा करती आलिंगन को
आलिंगन से दव का उदभव
होता तो ईश्वर की ईहा
भी चख बनकर देखा करती
तम-मारुत के सम्मिलन को.
तम मारुत के पट फाड़-फाड़
भड़काता मन्मथ दावानल
धूँ-धूँ कर उठती लिप्साएँ
कानन-सी, सारे तत्व जले.
तत्वों के जलने से मारुत
वृषली के अंगों का दिखना
तम-तिय मारुत की आँहों में
भावी सृष्टि का नाद घना
आता था तम के कानों में
तम विट बनकरके भाग गया.
बस रही अकेली बेचारी
हर दिक् में तम को ताक रही
तक-तक कर वह बनी वापिका
नाम पड़ा उसका निहारिका.
रुक-रूककर उत्पन्न किये कुछ
सुत, सुता मात्र वसुधा मैया
जिस पर ममता मारुत-माँ की
औ' नेह करे चन्दा-भैया.
औ' नेह करे चन्दा-भैया.
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>>>>> इस कविता में अंत में मुझे कुछ कच्चापन लगता रहा, शायद कम आयु की सीमित क्षमता हो. परन्तु जस-की-तस आपके समक्ष प्रस्तुत की है.
कवि तोर इही कवित्त में कहाँ भयो उद्भव सिंगार को
बड़ो है भयानक बरनन हुयो रौद्र-बीभत्स अंगाव को
न चाँद न सूरज अंधियारों बड़ो नगन-मगन उत्तेजन
भड़कत दावानल फडफडात मरुत अस्थिर सब जन
जब बिकलता तज स्रिजन की सांत हुई वसुधा मैय्या
तब विकसी श्रृष्टिम्रणाल तब हुयो श्रींगार समझा भैया
शांत सो उपजे-लय सर्बरस शास्त्रप्रणेता भरतमुनि बात कही
नाट्य शास्त्र सब सहित्यग्रंथान को मूल, और बात सब नयी
शान्ति धरो हार- जीत इक्कन बादसाह की यह बात नहीं
अमित शांत रस निमग्न एक अखंड पूरणब्रह्म शरण गहि
(भरत के "स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शांताद्भाव: प्रवर्तते, पुनर्निमित्तापाये च शांत एवोपलीयते" - (नाट्यशास्त्र 6/108) वक्तव्य के आधार पर शांत को ही एकमात्र रस माना जा सकता है।
रस आस्वाद और आनंद के रूप में एक अखंड अनुभूति मात्र हैं, यह एक पक्ष है और एक ही रस से अन्य रसों का उद्भव हुआ है यह दूसरा पक्ष है।
बनारसीदास (17वीं शती ई.) "समयसार" नाटक में "नवमों सांत रसनि को नायक" की घोषणा करते हैं।)
बहुत ही सुन्दर रचना है दोस्त ।
बडे ही प्यारे ढंग से आपने श्रृंगार की प्रधानता सिद्ध की है ।
हालाँकि साहित्य में श्रृंगार ही सर्वप्रधान है पर इस रस में आत्मिक शान्ति कहाँ, वो तो भक्ति रस में ही है मेरे दोस्त ।।।।।।।।।।।।।।।।
उत्तम भाव, पर मेरा एक सुझाव
’ जो अनाथ का भी है नाथ.’ को बदल कर " जो है अनाथ का भी नाथ." का सस्वर पाठ करके देखें, ठीक लगता है क्या ?
मैं समझता हूँ कि ऎसे परिवर्तन में इँगला की मात्रा नियमों की अपेक्षा शब्द ग्राह्ता अधिक महत्व रखती है ।
आप इसे छोटे मुँह की बड़ी बात मान कर अनदेखा भी कर सकते हैं ।
प्रतुल जी,
ऐसे विषय पर टिप्पणी करने की सामर्थ्य नहीं है अपनी।
लगता था कि आपकी शिक्षा दीक्षा कुछ हटकर हुई है, आज क्लियर हो गया। और शास्त्रार्थ(बाजी) का पहला इक्का भी एक पोस्ट का हकदार तो है ही?
पहले भी अभिभूत होते रहे हैं, आज भी होकर जाते हैं।
आभार।
डॉ. अमर कुमार जी
मैं केवल मुख सुख सुविधा देखता हूँ, हाँ कभी-कभी व्याकरण त्रुटियाँ हो जाती हैं. आगे भी होंगी, मेरी त्रुटियाँ 'काव्य-दोष' के उदाहरण ही हैं. उन्हें इंगित अवश्य करें क्योंकि उनका दोष रूप में उल्लेख कभी एक-साथ अवश्य करूँगा.
आपने जो सुझाव दिया है, उसके लिये मुझे महसूस हुआ कि मेरे लिखे को महत्व मिला और मेरे किये की प्रासंगिकता है.
वैसे 'है' का स्थान बदलना ठीक तो लगता है, लेकिन मुझे उसकी दोहरावट में सुख कम मिलता है. मैं आपकी बात कभी भी अनदेखा नहीं कर सकता. मैं विनम्र होकर स्थान न बदलने की गुजारिश करता हूँ.
कविता अंत में 'भी है naath' में जो प्रवाह है मुझे किसी और तरीके से नहीं मिल पा रहा है. क्या करूँ.
एक बार फिर से डॉ. अमर कुमार जी,
मेरा 'शब्द-ग्राह्यता' पर मनन जारी है. जैसे ही किसी हल पर पहुँचूँगा वैसे ही कोई परिणाम जग-जाहिर करूँगा.
संजय जी,
अरे आपकी सामर्थ्य से सभी परिचित हैं, हाँ जरूरी नहीं कि सबका खान-पान एक-सा हो. संवेदनाएँ समान रखनी चाहियें -इतना काफी है. इस बहाने हमारा काव्य-अभ्यास हो जाता है. पोस्ट और टिप्पणियों की समझ विकसित होने में समय लगेगा. मुझे तो अपनी बात कहनी होती है चाहे छत मिले या मंच. मेरे लिये तो कम्युनिकेशन महत्व रखता है. इतना तो है कि वह संपर्क-क्षेत्र सिमट जाता है.
आनंद जी
मनुष्य शरीर पाने को देवता तक तरसते हैं. लेकिन फिर भी मनुष्य जीवन का उद्देश्य 'परमात्मा से तादात्म्य' करना है.
आत्मिक शान्ति वहीं है जहाँ सादगी है, संतोष है, प्रेम है कलुषता रहित और चाह रहित,
भक्ति में भी अशांत का ज्वार आ जाता है जब उसमें संकुचित दृष्टिकोण आ जाता है. जब मैं अपने ईष्ट [ईश्वर] को केवल एक स्थान-विशेष और व्यक्ति-विशेष में मानने लगता हूँ.
@ pratul
शब्द-ग्राह्यता से मेरा तात्पर्य मुख सुख सुविधा ही था, इसे एक उचित सँबोधन देने के लिये धन्यवाद ।
'अचोरहाभ्यां द्वे'
पाणिनी के इस कथन की बात जाने देते हैं, और न मुझे भारी भरकम ग्रँथों का ही ज्ञान है, खून. थूक, मवाद, ज़्वर की दुनिया का आदमी ठहरा । प्रसँगतः मैं ’ हरिऔध ’ की वैदेही वनवास के प्रस्तावना की कुछ पँक्तियाँ यहाँ दोहराना चाहूँगा..
"कवि-कर्म कठिन है, उसमें पग-पग पर जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। पहले तो छन्द की गति स्वच्छन्द बनने नहीं देती, दूसरे मात्रओं और वर्णों की समस्या भी दुरूहता-रहित नहीं होती। यदि कोमल-पद-विन्यास की कामना चिन्तित करती रहती है, तो प्रसाद-गुण की विभूति भी अल्प वांछित नहीं होती। अनुप्रास का कामुक कौन नहीं, अन्त्यानुप्रास के झमेले तो कितने शब्दों का अंग भंग तक कर देते हैं या उनके पीछे एक पूँछ लगा देते हैं। सुन्दर और उपयुक्त शब्द-योजना कविता की विशेष विभूति है, इसके लिए कवि को अधिक सावधान रहना पड़ता है, क्योंकि कविता को वास्तविक कविता वही बनाती है। कभी-कभी तो एक उपयुक्त और सुन्दर शब्द के लिए कविता का प्रवाह घण्टों रुक जाता है। फारसी का एक शायर कहता है-
बराय पाकिले लफजे शबे बरोज आरन्द।
कि मुर्ग माहीओ बाशन्द ख़ुफता ऊ बेदार॥
'एक सुन्दर शब्द बैठाने की खोज में कवि उस रात को जागकर दिन में परिणत कर देता है, जिसमें पक्षी से मछली तब बेखबर पड़े सोते रहते हैं'- इस कथन में बड़ी मार्मिकता है।"
हे अमित पुरोहित!
आपने 'सृष्टि' नामक कविता में जिन भयानक रौद्र और बीभत्स रसों की बात की है वह रस प्रत्यक्ष नहीं है, प्रत्यक्ष है तो केवल शृंगार और बाद में ही शृंगार की ही संतानें 'वात्सल्य' और 'प्रेयान'.
मुझे प्रतीत होता है कि आपकी साधू-वृत्ति ही शृंगार में शृंगार नहीं देख पाती.
सत्य है कि विरक्त-संन्यासी यदि शृंगारिक आलंबनों में 'निर्वेद' तलाशने लगे तो वहाँ रसाभास आ जाता है.
कविता में तो शृंगार ही है लेकिन आपके स्वभाव में अवश्य 'शांत रसाभास' है.
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रसाभास ___
जहाँ रस आलंबन में वास
करे उक्ति अनुचित अनायास
जसे परकीया में रति आस
हुवे उक्ति शृंगार रसाभास.
अबल सज्जन वध में उत्साह
अधम में करना शम प्रवाह
पूज्य जन के प्रति करना क्रोध
विरक्त संन्यासी में फल चाह.
वीर उत्तम व्यक्ति में भय
जादू आदि में हो विस्मय
बलि में हो बीभत्स का हास
वहाँ होता रस का आभास.
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रसाभास — रसाभास की स्थिति वहाँ आ जाती है जहाँ पर किसी रस के आलंबन या आश्रय में अनौचित्य का समावेश हो जाता है. यदि किसी व्यक्ति में निर्बल या साधू संतों में वध में उत्साह की योजना की जाती है तो वहाँ वीर रस न होकर रसाभास होगा क्योंकि रस के समस्त अवयवों के कारण उक्ति रसात्मक तो हो जायेगी किन्तु उसमें अनौचित्य आ जाने के कारण तीव्रता में कमी आ जायेगी. इसी प्रकार नायिका में उपनायक या किसी अन्य पुरुष के प्रति अनुराग की अनुभूति या गुरुपत्नी, देवी, बहिन, पुत्री आदि के प्रति रति का वर्णन शृंगार रस के अंतर्गत नहीं पायेगा. इसी प्रकार अन्य रसों के संबंध में भी जानना चाहिए. विरक्त या संन्यासी में शोक का होना दिखाया जाना, पूज्य व्यक्तियों के प्रति क्रोध व्यक्त करना, उत्तम एवं वीर व्यक्ति में भय का निदर्शन, बलि आदि में बीभत्स का चित्रण, जादू आदि में विस्मय का चित्रण और नीच व्यक्ति में निर्वेद का वर्णन आदि क्रमशः करूँ रसाभास, रौद्र रसाभास, भयानक रसाभास, बीभत्स रसाभास, अदभुत रसाभास और शांत रसाभास होगा.
Dr. Amar Kumar
जी सर, कभी-कभी गीति का छोर एक अच्छे गीतकार को भी देर से पकड़ में आ पाता है. हो सकता है कि मैं उसे अभी उस प्रकार से नहीं पकड़ पा रहा हूँ.
एक बार फिर से कहकर देखता हूँ.
"और नहीं रस ऐसा कोई
जिसमें सुख-दुःख दोनों साथ.
बस केवल रति का ही स्वामी
जो है अनाथ का भी नाथ."
शायद कुछ दोहरावट में सुख मिलने लगे.
आपने पूरा विश्लेषण कर दिया कविता निर्माण में आने वाली समस्याओं का. आभारी हूँ.
waw bahut khub
करूँ रसाभास = Karun Rasaabhaa
Padhaa jaaye.
ऐसा नहीं है की मैं पढता नहीं, पर ऐसे गुणी जनों के बीच नहीं बोल कर ज्ञान का रसपान करना श्रेयस्कर लगता है.
यों भी बोलने योग्य कहाँ मैं?
धन्यवाद प्रतुल जी ऐसे काव्य के लिए.
मित्र अविनाश
मैं काव्य-साधकों की दुविधा से परिचित हूँ.
[१] वे टिप्पणियाँ करें अथवा सृजन
[२] उनका ध्यान जिस काव्य-सृष्टि में लग जाता है उसे पूरा करना पहली ज़रुरत होता है.
[३] वे यदि टिप्पणियों में भाषा बनाने में समय लगाते रहे तो भाव-कृत्रिमता का भय उन्हें स्वयं सालता रहेगा.
[४] पढ़ना और रसपान करना श्रेयस्कर है मैं भी ऐसा ही करता हूँ, लेकिन कभी-कभी जटिल भावों की प्रस्तुति पर प्रश्नात्मक टिप्पणी देना मेरे कद को कहीं छोटा न कर दे इसलिये कतराता भी हूँ.
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......यदि ऎसी कोई बात हो तो पूछ लेने में कोताही न करना. हम सभी अभी सीख रहे हैं.
डॉ. अमर कुमार जी, अभी तक मुझे गीति तत्व नहीं मिल पा रहा है आपके अनुसार पंक्ति दोहराने में. क्या करूँ.
आप जिन दृष्टान्तों को देते हैं. पढ़ने में काफी रस मिलता है. आप कवियों की दिक्कतों से भली-भाँति परिचित हैं ही.
यह जानकार अच्छा लगता है कि कोई गुरु तो है जो साधकों की अंदरूनी दिक्कतों से वाकिफ है.
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