कैसे आता मैं मिलने को
सब मेरा रस्ता रोक रहे.
अपशकुन हुआ आते छींका
कुछ रुका, चला फिर टोक रहे.
मन मार चला बिन ध्यान दिए
ठोकर खाईं पाषाण सहे.
पर मिलना था स्वीकार नहीं
ईश्वर भी रस्ता रोक रहे.
पहले भेजा उद्दंड पवन
करते उपाय फिर नये-नये.
दिक् भ्रम करते कर अन्धकार
पहुँचा वापस वो सफल भये.
विधि के हाथों मैं हार गया
'दिन हुआ दूज' खग-शोर कहे.
फिर भी निराश था मन मेरा
"प्रियतमे, मेघ घनघोर रहे."
*'रस्ता' शब्द का सही शब्द 'रास्ता' है. कविता में मुख सुविधा के लिये रस्ता शब्द लिखा है.
[अंतिम पंक्ति में अनुप्रास का छठा भेद 'अंत्यारंभ अनुप्रास' है. प्रचलित पाँच भेदों से अलग तरह का भेद जिसमें 'जिस वर्ण पर शब्द की समाप्ति होती है उसी वर्ण से अन्य शब्द का आरम्भ होता है.']
यह छठा भेद 'मेरी काव्य-क्रीड़ा' मात्र है. इसे आप लोग ही मान्यता देंगे.
6 टिप्पणियां:
प्रतुल जी
अतुलनीय हैं आप !
आपके समतुल्य कौन है , जिससे तुलना की जाए ?
वाह ! क्या लिखते हैं आप भी !
विधि के हाथों मैं हार गया
'दिन हुआ दूज' खग-शोर कहे ।
फिर भी निराश था मन मेरा
"प्रियतमे, मेघ घनघोर रहे ।"
अनुप्रास का छठा भेद 'अंत्यारंभ अनुप्रास' दूसरी पंक्ति में भी तो है - मेरा रस्ता
तीसरी पंक्ति में भी - हुआ आते
सुंदर !
मनोहर !
अतुल्य !
भावपूर्ण !
अलौकिक !
आनन्ददायक !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
काफी समय हुआ था...... 'प्रशंसा और ना ही आलोचना' मिल रही थी.
मुझसे अधिक पत्नी मेरे टिप्पणी-कटोरे को खाली देखकर व्यथित रहती.
मेरी लेखन-आजीविका कैसे चलती. मुझे व्यवसाय बदलने तक की हिदायत दी गयी कि "अब गद्य लिखा करो" किसी को कवितायें समझ ही नहीं आतीं. लेकिन मैं उन्हें हमेशा अपने उद्देश्य को बताकर शांत करता रहा हूँ. और ऐसे में आपकी दृष्टि ने मुझे अपनी ही कविता में अन्य स्थानों पर भी 'अनुप्रास' के दर्शन कराकर अभिभूत कर दिया. मुझे प्रोत्साहन देने के लिये धन्यवाद. मुझे इसी संजीवनी की आवश्यकता थी. बहुत आभारी हूँ.
पहले भेजा उद्दंड पवन
करते उपाय फिर नये-नये.
दिक् भ्रम करते कर अन्धकार
पहुँचा वापस वो सफल भये.
मेरे जैसे अज्ञानी कुछ कहेंगे तो उसका कोई औचित्य नहीं..."बेहतरीन" कह कर निकलना अपमान होगा इस कविता का...तो गुन रहा हूँ, डूब रहा हूँ इसके शिल्प में...अब समझ लें आप बाकी.
"प्रियतमे, मेघ घनघोर रहे."
prastut kaavyaash me na keval anupraas hai, balki sankar alankaar bhi prekshaneeya hai!
yah kavyaansh hai n ki ka vyaash prtul ji!
मुक्ताभ जी,
विलम्ब से प्रतिक्रिया देने को आप बुरा ना मानेंगे.
आपने ठीक पहचाना, संकर भी है,
"जहाँ पर एक उक्ति में नीर-क्षीर की तरह एक से अधिक अलंकारों का सापेक्ष रूप में आगमन हो, वहाँ पर संकर अलंकार होता है."
परन्तु यहाँ अनुप्रासों की बहार है. छेका है, वृत्या, है, श्रुत्या भी थोड़ी मात्रा में ढूँढ सकते हैं. और अंत्य-आरम्भ तो है ही.
बहरहाल, आपने अलंकारों के प्रति प्रेम दर्शाया, उसके लिये मैं आपका आभारी हूँ.
फिर से करेंगे कभी अलंकार-चर्चा.
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