दौकल* अदभुत मुख-द्वार धवल
सारथी एक मुस्कान, श्रवन
तक खींच रहे द्वय-छोर-तुरग*
हँसि दिखी हटे जब दन्त-वसन*.
रथ रुका रहा बढ़ गया रथी*
रथपति* ने पायी वीर-गती*.
अरि-कथन* श्रवन में छिपा-छिपा
ललकार रहा हा-हहा-रथी!
[दौकल — कपड़े से ढका हुआ रथ.
रथपति — सारथी (मुस्कान से तात्पर्य)
अरि-कथन — वह शत्रु जो रथी (हँसी) को उत्तेजित (निःसृत) करने का कारण है.
द्वय-छोर-तुरग — मुस्कान के छोरों रूपी अश्व.
दन्त-वसन — अधर, रथ द्वार का पर्दा.]
{हँसि, गती में मात्रिक छेडछाड छंद के कारण से}
1 टिप्पणी:
प्रतुल ज़ी,
अभी अभी मैने अमित शर्मा जी के ब्लोग पर देखा कि आपने मेरी एक टिप्पणी का बडा सुंदर विवेचन कर दिया।
जो बात में स्पष्ठ न कर पाया था,आपने बडी खुबसुरती से व्यख्या कर दी।
आभार!
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