गुरुवार, 5 अगस्त 2010

मुस्कान

दौकल* अदभुत मुख-द्वार धवल
सारथी एक मुस्कान, श्रवन
तक खींच रहे द्वय-छोर-तुरग*
हँसि दिखी हटे जब दन्त-वसन*.

रथ रुका रहा बढ़ गया रथी*
रथपति* ने पायी वीर-गती*.
अरि-कथन* श्रवन में छिपा-छिपा
ललकार रहा हा-हहा-रथी!

[दौकल — कपड़े से ढका हुआ रथ.
रथपति — सारथी (मुस्कान से तात्पर्य)
अरि-कथन — वह शत्रु जो रथी (हँसी) को उत्तेजित (निःसृत) करने का कारण है.
द्वय-छोर-तुरग — मुस्कान के छोरों रूपी अश्व.
दन्त-वसन — अधर, रथ द्वार का पर्दा.]
{हँसि, गती में मात्रिक छेडछाड छंद के कारण से}

1 टिप्पणी:

सुज्ञ ने कहा…

प्रतुल ज़ी,

अभी अभी मैने अमित शर्मा जी के ब्लोग पर देखा कि आपने मेरी एक टिप्पणी का बडा सुंदर विवेचन कर दिया।
जो बात में स्पष्ठ न कर पाया था,आपने बडी खुबसुरती से व्यख्या कर दी।

आभार!