निश्चित निकलकर
कुछ समय के बाद मेरे कंठ से
निज चित्त की अतृप्तियों को
तृप्त कर पहनाएगी.
वातगामी वाणिनी,
स्वरों के भुजपाश को.
................... वाग्दत्ता आयेगी.
भविष्य की प्रतीक्षा में
स्नात होते वाक्-पथ.
नेह-पुष्प-वाटिका में
रुक गए हैं काम-रथ.
औ' लग गयी हैं पास-पास
स्वरों की सत-फट्टीयाँ.
दिक् दर्शिका के नाम से
दिखायेंगी आकाश को.
................... दीप-सत्ता आयेगी.
[*अमित जी! अर्थ नहीं बताउँगा, बताया तो अन-अर्थ हो जाएगा.
अनायास डॉ. अमर जी स्मृति भी हो आयी, मंगलवार जो है. उन्होंने मंगल का दिन चुना है काव्य-रस पान के लिये. ]
5 टिप्पणियां:
औ' लग गयी हैं पास-पास
स्वरों की सत-फट्टीयाँ.
अहा! क्या लिख रहे हैं...!!!!
आनंद आया..
वातगामी वाणिनी,
स्वरों के भुजपाश को.
................... वाग्दत्ता आयेगी.
हम भी प्रतीक्षारत हैं
दीप शिखा सम ..मन जनि होऊ पतंग ...
मेरा आवाह्न विन्ध्य पाखी सा
घायल लौट आया मेरे ही छज़्ज़े पर
पर मेरे बस में नहीं होगा
आज उसका क़र्ज़ चुकाना
बिना क़र्ज़ चुकाये कातर ध्वनि का
खर्च कर डाली अपनी सारी भाषा
आदरणीय अमर जी,
मेरे लिये आपका आहवाहन व्यर्थ नहीं गया. और ना ही उन अनमोल शब्दों वाले निर्देशन का मूल्य गिर गया है. बस कविता के लिये कुछ लक्ष्य तो साधने पड़ते ही हैं. अन्यथा सौन्दर्य पर लिखी जाने वाली कवितायें संदेहास्पद हो जायेंगी. मैं अपनी कविताओं में 'महादेवी' वाला रहस्यवाद नहीं लाना चाहता. आप प्रेरक बने रहें. यही मेरे लिये काफी है.
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