रविवार, 18 जुलाई 2010

आलोचना-प्रत्यालोचना

कलम-कुल में भी हुई कलह!


................सुधामय सुविचारों की लय
................हुई तो फ़ैल गई अतिशय
................गंध, मलयाचल से जैसे
................चली आई हो मारुत मौन.

................सभी को भली लगी लेकिन
................कुछों ने मुख टेड़ा कर लिया
................कहा – हम इन्द्रजीत हैं और
................हमीं ने गंधी को भेजा.


[वैसे कलह मानसिक शान्ति को समाप्त कर देती है. लेकिन कलम परिवार की कलह से साहित्यिक-प्रेमी, काव्य-रसिक, बतरस-पायी सभी आह्लादित होते हैं. आलोचना का अपना एक सुख है, बस आलोचना तार्किक हो, किसी(लेखक) के विचारों में आलोचना ही वह माध्यम है जो पाठक को भी रचना में भागीदार बना सृजन का सुख देती है.]

15 टिप्‍पणियां:

Rohit Singh ने कहा…

बेहद ही खूबसूरत रचना है आपकी। लगा जयशंकर प्रसाद या सुमित्रानंदन पंत सरीखे कवियों को पढ़ रहा हूं। मेरा ज्ञान सीमित है। पर ये हिंदी सही में कई दिनों बाद पढ़ने को मिली जो दिल को सुकुन भी देती है। हर कविता विद्रोह की करेगी या बैचेनी ही देगी तो शीतलता से मधुरता से अपनी बात कौन कहेगा। कौन इस तरह से विरोध को स्वर देगा। आप दीर्घकालिन कार्यक्रम में कामयाब होते दिख रहे हैं। वैसे आपको अपनी ब्लॉग के बारे में कुछ तो प्रचार करना ही चाहिए। अब देखिए मैं अमित जी के द्वारा आपके ब्लॉग पर आया। वो भी सीधे नहीं। उनकी टिप्पणी सरिता जी के ब्लॉग पर पढ़कर।

डा० अमर कुमार ने कहा…

.
एक सुघढ़ सोच की परिकल्पना का ब्लॉगआज का दिन सार्थक हुआ ।
उस पर इतनी सुंदर रचना / मेरा दिन जैसे सार्थक हो गया
शुभकामनायें

Avinash Chandra ने कहा…

कहा – हम इन्द्रजीत हैं और
हमीं ने गंधी को भेजा.

ahaa! aapke shabd itni sheetal bayar chalate hain ki aatna me sharad ritu aa gayi ho jaise.

in panktiyon ka saundarya adwet hai.

VICHAAR SHOONYA ने कहा…

प्रतुल जी नमस्कार,

आपके कुछ प्रेमी जान चाहते हैं कि आप अपने ब्लॉग का प्रचार करें. वो ऐसा चाहते हैं ये उनका आपके प्रति प्रेम है. मैं भी जिस किसी को पसंद करता हूँ तो चाहता हूँ कि दुसरे भी उसे पसंद करें पर मैं ये जानता हूँ कि आप इस प्रकार का आत्म प्रचार नहीं कर सकते. नहीं कर सकते तो ना करें पर अपनी सृजनात्मकता को कायम रखें. पता नहीं आपको याद हो या ना हो अंग्रेजी कि एक कविता थी कि एक फूल निर्जन जगह पर खिलता है और उसे कोई सराहने वाला नहीं है. (शायद आठवी या नवी कक्षा कि बात है ये. यु वी सिंह जी ने अपने अंदाज में पढ़ाई थी). तो भाई मैं समझता हूँ कि पुष्प में सुन्दरता और सुगंध होनी चाहिए बेशक उसके चाहने वाले हों या ना हों. आपकी कविता कि गंध फ़ैल रही है. बस अपने काव्य पुष्प खिलाते रहें.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

सभी को भली लगी लेकिन
कुछों ने मुख टेड़ा कर लिया
कहा – हम इन्द्रजीत हैं और
.हमीं ने गंधी को भेजा.

सुविचार सभी के गले से नहीं उतरते .....

बहुत कम शब्दों में गहन रचना .....!!

Amit Sharma ने कहा…

हे कविश्वर यथा-नाम तथा-गुण ये ब्लॉग आपका
दार्शनिकता की प्रतुलता से प्राशन हो रहा हमारा

नहीं प्रभु दर्शन दुर्लभ है यदि जीवन दर्शन समझ सकें
क्या दोष कवि-कलम का जो मंद-मति ना समझ सकें

परन्तव हे दयामय हर जीव नहीं है अन्वेषी सत्य का
अपनी ही मति में गति करता है परा-ज्ञान कथ्य का

उस गूढ़ ज्ञान को सहज बनाया किया अर्थ सत्य प्रकाश
वाहीं विध "विकृतमुखी" प्रकट करों हो अमित-तम नाश

Amit Sharma ने कहा…

हे कविश्वर यथा-नाम तथा-गुण ये ब्लॉग आपका
दार्शनिकता की प्रतुलता से प्राशन हो रहा हमारा

नहीं प्रभु दर्शन दुर्लभ है यदि जीवन दर्शन समझ सकें
क्या दोष कवि-कलम का जो मंद-मति ना समझ सकें

परन्तव हे दयामय हर जीव नहीं है अन्वेषी सत्य का
अपनी ही मति में गति करता है परा-ज्ञान कथ्य का

उस गूढ़ ज्ञान को सहज बनाया किया अर्थ सत्य प्रकाश
वाहीं विध "विकृतमुखी" प्रकट करों हो अमित-तम नाश

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

बिंदास स्वरों के उदघोषक मित्र!
प्रशंसा के स्वरों में आपने कविता के उन प्राथमिक अर्थों को भर दिया जो कविता के नेपथ्य में थे. धन्यवाद, आपने मेरे महती उदेश्यों को समझा और सराहा. अमित जी मुझे प्रकाश में लाने को कृपालु बने हुए हैं. उनके बहुत से गुणों में यह भी एक गुण है छिपे को उजागर करना.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

डॉ. अमर कुमार जी अपने आशीर्वाद को प्रशंसा के स्वर दिए हैं. आपका चरण-वंदन के साथ आभार.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

कवि मित्र अविनाश जी,
मुझे लगता है कि आप शब्दों की तीनों शक्तियों के अलावा चौथी शक्ति 'तात्पर्य' को भी समझ लेते हैं. मेरे अभिन्न मित्र 'अमित' जी को ज़रा कविता का अर्थ खोल कर बता दूँ. अन्यथा उन्हें नींद नहीं आयेगी. वे काव्य-पिपासु हो चुके हैं, वे हर निरर्थक सृष्टि पर दृष्टि गड़ाये हैं. इसलिये हम कवि-मित्रों को सावधान रहना होगा. आपकी रचना में भी दार्शनिकता का स्वाद चख चुका हूँ. फिलहाल, रचना की प्रशंसा के लिये धन्यवाद.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

मित्र दीप जी,
यदि आत्म-प्रचार में लग गया तो यही करता रह जाऊँगा. जब कलम की स्याही सूखने लगेगी तो जरूर इस विधि का सहारा लूँगा. आपने 9 वीं कक्षा की घटना याद करायी और बनफशा के फूल की उस कथा को मेरे मानस में ताज़ा किया. धन्यवाद.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

शुक्रिया हरकीरत जी,
"सुविचार सभी के गले से नहीं उतरते ....."
@ पहली बार इस ब्लॉग पर आपने प्रशंसा स्वरों के छींटे दिए.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

अमित मित्र ने खींच लिया फिर से मेरा हाथ.
बतलाओ क्या अर्थ है इस कविता का भ्रात.
इस कविता का भ्रात छिपा क्या दर्शन इसमें.
दो गूढ़ ज्ञान व सहज विधा की संकर किस्में.

ZEAL ने कहा…

sundar rachna.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

आदरणीय डॉ. अमर जी,
मेरा क्रोध हर उस आलोचना पर प्रकट होगा जो अदूरदर्शिता पूर्ण होगी. परिणाम भी तो जाना कीजिए. जब आप एक प्रतीकात्मक आमरण अनशन को प्रश्न के दायरे में रख सकते हैं तब क्या आपके सभी नाम उपनाम प्रश्न के दायरे में नहीं रखे जा सकते.
डॉ. (?) अमर (?) कुमार (?)
क्या आप अमरता को प्राप्त हैं?
क्या आप अभी भी कुमार हैं?
क्या आजीवन कारावास जीवन समाप्ति पर खत्म हुआ करता है?
आलोचना नेक नियत कार्यों पर नहीं होनी चाहिए.