बुधवार, 4 मई 2011

कपोल-लली

खिलने में हो लावण्य भंग
दिखने में सबको लगे भली। 
पिय दर्शन से रतनार रंग
हो जाता कनक-कपोल-लली*

नत नयन मंद मुस्कानों की
अवगुंठन की कहलाति अली**
पुरुषों के भ्रमर-लोचनों को
लगती रसदार कपोल-कली । 

*कपोल-लली — लज्जा.
**अली — सखी.





इस कविता मे अनुप्रास का छठा भेद है : "अन्त्यारम्भ अनुप्रास" [मौलिक उद्भावना]
जब तक मुझे अधिक समय नहीं मिल जाता तब तक छंद का पाठ तैयार नहीं कर सकता. इसलिए इस बार आलंकारिक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ.

10 टिप्‍पणियां:

सुज्ञ ने कहा…

मनोरम है यह कपोल-लली!!

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सुज्ञ: जीवन का लक्ष्य
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ZEAL ने कहा…

खिलने में हो लावण्य भंग
दिखने में सबको लगे भली।
पिय दर्शन से रतनार रंग
हो जाता कनक-कपोल-लली*।

नत नयन मंद मुस्कानों की
अवगुंठन की कहलाति अली**।
पुरुषों के भ्रमर-लोचनों को
लगती रसदार कपोल-कली ...

इतने सुन्दर शब्दों में इस उत्कृष्ट रचना को पढ़कर अंतरात्मा तृप्त हो गयी । आपकी अद्भुत लेखनी को नमन।

.

गिरधारी खंकरियाल ने कहा…

" कहलाती" या "कहलाति" टाइपिंग की गलती या छंद की व्यवस्था

Smart Indian ने कहा…

हो जाता कनक-कपोल-लली ...
वाह! कमाल की बात कही है।

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

आदरणीय प्रतुल जी....
सादर अभिनन्दन.
आपकी ये आलंकारिक कविता आपकी प्रतिष्ठा के अनुरूप है. कविता बहुत पसंद आई. मेरे ब्लॉग पर 'हिन्दू देवी- देवताओं के चित्रों का आपात्तिजनक प्रदर्शन' वाली पोस्ट पर आपके विचार मुझे पसंद आए. अपनी जगह आपका कहना सही है. वास्तव में मैं भी ऐसा ही सोचता हूँ. फिर भी हिन्दू देवी- देवताओं के चित्रों का इस तरह से प्रदर्शन बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है.
क्योंकि ऐसा काम घिनोनी मानसिकता वाले लोग मज़े लेने के लिए या धर्म विशेष के लोगों की भावनाएँ भड़काने के लिए ही करते हैं.
मुझे ख़ुशी है कि आपने इस कृत्य को निंदा करने योग्य बताया है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुज्ञ जी, निम्न पंक्तियों में कौन-सा अलंकार है?

"हंसराज जब बनो नोकदार रख खड्ग।"

....... केवल शब्द-अलंकार पहचान करवाने के लिये उदाहरण दिया है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

आपकी अद्भुत लेखनी को नमन।
@ न मन हो तो भी तो आप आते ही हैं....

दिव्या जी, यहाँ 'न मन' में कौन-सा अलंकार माना जायेगा?

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

" कहलाती" या "कहलाति" टाइपिंग की गलती या छंद की व्यवस्था

@ ठीक पहचाना गिरधारी जी, छंद की व्यवस्था में ही मात्राओं से छेड़छाड़ की छूट है अन्यथा है तो यह त्रुटि ही.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ आपने ही अनुराग जी मेरे लघु प्रयास को गुरु कर दिया और अब अपनी उपस्थिति से प्लुत भी कर रहे हैं. आभारी हूँ आपका.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ विरेन्द्र जी जब आपने अपने ब्लॉग पर वह पोस्ट लगायी थी तब मेरे दिमाग में एक घटना दौड़ गयी ... एक बार मैं अपने ६ वर्षीय अत्यंत धार्मिक भतीजे के साथ शाम के समय बाजार घूमने निकला. उससे बातें करना उसकी बातें सुनना मुझे अच्छा लग रहा था.. हमारे बीच एक चर्चा थी. भतीजा आर्यसमाज के प्रभाव में बोंल रहा था कि ईश्वर हर जगह मौजूद है. मैंने उसे बिजली खम्बा दिखाया पूछा - क्या इसमें भी ईश्वर है? उसने कहा - हाँ. मैंने पूछा - सड़क के किनारे नाली की कीचड़ में भी ईश्वर है? भतीजा थोड़ा असमंजस में पड़ा लेकिन फिर भी बोला - हाँ कीचड़ में भी है. तो क्या हमारी चप्पल में भी है? उसने कहा - हाँ चप्पल में भी है? उसे तो हम रौंदते चलते है... तो फिर क्या... तभी मैंने उसे एक आदमी साइकिल पर आता हुआ दिखाया और पूछा कि क्या उस आदमी में ईश्वर है? भतीजे ने तुरंत कहा - हाँ उस आदमी में ईश्वर है. मैंने पूछा - क्या उसकी साइकिल में भी इश्वर है?

भतीजा असमंजस में पड़ा, लेकिन उसने कुछ सोचकर संकोच में ही कहा - हाँ है उस साइकिल में भी ईश्वर है? तभी मैंने उसपर एक प्रश्न और दाग दिया - क्या ईश्वर ईश्वर की सवारी कर रहा है?

भतीजा घोर असमंजस में पड़ गया... लेकिन अपनी छोटी उम्र के कारण उसे उत्तर नहीं सूझ रहे थे. फिर भी उसका अटल विश्वास था कि ईश्वर हर जगह मौजूद है. ..

अचानक उस साइकिल पर आते युवक की टक्कर एक स्कूटर से हो गयी .... इधर मेरे प्रश्न उससे जारी थे ... देखो बेटे.. ईश्वर ईश्वर से टकरा गया... और अब ईश्वर ईश्वर को लात मार रहा है. झगड़ा कर रहा है.

वह चुप हो गया .... बहरहाल वह पूरे रास्ते चुप रहा.. केवल सोचता रहा ... और हमने गन्ने का रस पिया और घर लौट आये. लेकिन आज़ तक उसे उन उलझे प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले.... मुझे विश्वास है कि वह बड़ा होकर स्वयं ही इनके उत्तर खोज लेगा.

एक तरफ मेरा भतीजा ... अपनी छोटी आयु के बावजूद ... नाली से, गंदगी से, कीचड़ से, घृणा करते हुए भी ईश्वर को हर कण में विद्यमान बता रहा था लेकिन आज़ के आस्थावान बुद्धिजीवी पैरों तले ... ईशतुल्य देवतुल्य महान व्यक्ति का जड़ चित्र आते ही उचक जाते हैं... लेकिन वही जल, मृदा, वायु का प्रदूषण करते हुए तनिक नहीं उचकते..

दूसरी तरफ, नास्तिक बुद्धिजीवी इन्हें जानबूझकर जूतों और शराब की बोतलों पर उकेर कर, इस्तेमाल में लाकर अपने उन्नत-विकसित ज्ञान का इज़हार करते हैं.

हमारा स्वभाव बचपन से अपने आदरणीयों को मूर्तरूप में आदर देने का बना हुआ है इस कारण ही हमें देवि-देवताओं का इस्तेमाल बीड़ी पर, तम्बाकू पर, शराब पर, जूते-चप्पल पर बेहद बुरा लगता है.... क्या आपको इन देवि-देवताओं के पोस्टर उन दीवारों पर चिपकाया जाना उचित लगता है जहाँ सड़कों के किनारे लोग खड़े होकर पेशाब करने के अभ्यस्त हो चुके होते हैं?



बहरहाल ... आपसे लम्बी बात कह गया... आपके पास तर्कबुद्धि है आप भली-भाँति मानव स्वभाव को समझ सकते हैं और ऎसी धार्मिक भावनाएँ भड़काने वाली नियत को पहचान सकते हैं. हम सभी मांसाहार के संबंध में आपके अकाट्य तर्कों का प्रदर्शन एक बार देख चुके हैं.